ऊदबिलाव : एक कुशल गोताखोर
'ऊदबिलाव" की उछल कूद देख कर खास तौर से बच्चे बड़े खुश होते हैं क्योंकि ऊदबिलाव कभी पानी में गोता लगाते हुये दिखेगा तो कभी पिछले दोनों पैर पर खडे़ होकर इधर-उधर ताकते-झांकते दिखेगा। यूं कहा जाये कि ऊदबिलाव अपने में मस्त रहने वाला जन्तु है तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। ऊदबिलाव समुद्र, नदियों व बड़ी नहरों में रहने वाला जलीय जन्तु है।

जीव जन्तु विशेषज्ञों की मानें तो देश में ऊदबिलाव का अस्तित्व संकट में है क्योंकि इनकी संख्या तेजी से कम होती जा रही है। चबंल व शारदा आदि सहित देश की बड़ी नदियां इनका आश्रय स्थली होती हैं लेकिन इन नदियों पर संकट आने से अब इन पर भी संकट आ गया। विशेषज्ञों की मानें तो चंबल में ऊदबिलाव की दो प्रजातियां दिखती थीं। करीब पांच साल पहले एक सर्वेक्षण में चंबल नदी में चार ऊदबिलाव दिखे थे। इसी तरह से शारदा नहर में एक दशक पहले ऊदबिलाव की संख्या चालीस के आसपास थी लेकिन अब यह संख्या घट कर दो दर्जन के आसपास रह गयी है। वन्य व जलीय जीवन के इस जीव-जन्तु को बचाने के सार्थक प्रयास होने चाहिए जिससे इनके अस्तित्व को बचाया जा सके। अन्यथा कोई बड़ी बात न होगी कि ऊदबिलाव भविष्य में विलुप्तता की श्रेणी में आ जायें।
04.01.2017
04.01.2017
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पशुओं की डेटिंग भी करा रहे कम्प्यूटर जी
'कम्प्यूटर जी' को हल्का-फुल्का न समझें। जी हां, कम्प्यूटर जी बड़े काम की चीज, कौन बुरा है कौन भला है। इनको पूरी समझ है।
आप बस कम्प्यूटर जी के माउस को क्लिक करें, ये सब कुछ आपको सच-सच बता देंगे। कम्प्यूटर जी किसी के भी अच्छे दोस्त-हितैषी-हमदर्द हो सकते हैं। बशर्ते आप दोस्ती निभायें-समझें। युवक-युवतियों को सोशल साइट्स के जरिये हमराही-दोस्त बनाने वाले कम्प्यूटर बाबा अब पशुओं की डेटिंग कराने से लेकर उनकी जोड़ियां बनाने का कार्य कर रहे हैं। खास तौर से इंफारमेशन टेक्नॉलॉजी ने देश दुनिया की विलुप्त हो रही पशु-पक्षियों की प्रजातियों की दिशा में सार्थक कोशिशें शुरू की हैं। टेक्नॉलॉजिस्ट ने विलुप्त पशु-पक्षियों के लिए डेटिंग साइट्स इजाद की हैं। डेटिंग साइट्स देश दुनिया में विलुप्त हो रही पशु-पक्षियों की प्रजातियों को बचाने में कामयाब भी हो रही हैं।
पशु विशेषज्ञों की मानें तो ब्रिडिंग तकनीकि से चिडियाघरों के खर्चों में भी कमी आ रही है आैर विलुप्त प्रजातियों को संरक्षण व प्रोत्साहन भी मिल रहा है। वाशिंगटन के स्मिथ सोनियल नेशनल जू में सेंटर फॉर स्पीशीज सरवाइवल प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है। करीब चार दशक से चल रहे इस प्रोजेक्ट से पशुओं की विलुप्तता रोकने व पशुओं की आबादी को बढ़ाने की दिशा में काफी बड़े बदलाव आये। जिराफ, हिरन, चिंकारा आदि सहित पशुओं की दर्जनों प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट आ गया था लेकिन विज्ञान व तकनीकि के नये-नये शोध से अब काफी बदलाव आ चुके हैं। चीता, एशियाई हाथी, एशियाई हिरन आदि सहित दर्जनों पशु प्रजातियों के अस्तित्व या विलुप्तता का संकट आज भी खड़ा है। पशु विशेषज्ञों की मानें तो देश-दुनिया में आैसत हर दिन सौ से अधिक पशुओं की प्रजातियां खत्म हो जाती हैं।
सांइस एण्ड इंफारमेशन टेक्नॉलॉजी की सहायता से इन विलुप्त होने वाली पशु प्रजातियों को आसानी से बचाया जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो दुनिया भर में फैले चिडियाघरों में पशुओं के शुक्राणुओं से लेकर आैषधियां सहित तमाम कारगर उपाय उपलब्ध हैं। पशुओं की विलुप्त हो रही प्रजातियों को बचाने के लिए चिडियाघर व पशु प्रेमी व सरकारें पशुओं की डेटिंग से लेकर ब्रिाडिंग तक की कोई भी योजना बना सकती हैं जिससे पशुओं की विलुप्तता को रोका जा सकता है। 31.12.2016
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पक्षी गिद्धराज को बचायें
'शिकारी" पक्षियों में गिने जाने वाले 'गिद्धराज" को देख कर मन में भले ही घृणा का भाव जागृत होता हो लेकिन प्रदूषण रहित परिवेश बनाने में गिद्धों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि मानव शव या पशुओं के शव को सामान्यत: कोई छूना पसन्द नहीं करता है लेकिन 'गिद्धों" का समूह सडांध मारते शव के मांस को नोंच नोंच कर खा डालते हैं।लिहाजा मुर्दा शरीर के संक्रमण से फैलने वाले प्रदूषण पर गिद्ध अंकुश लगाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि गिद्ध अपनी भूख शंात करने व पेट भरने के लिए सडांध भरे मांस को खाते हैं लेकिन इससे परिवेश का प्रदूषण पर अंकुुश लगता है। देश व समाज एक जहरीले संक्रमण की चपेट में आने से बचता है लेकिन संक्रमण से समाज को मुक्त रखने वाले गिद्धों के अस्तित्व का संकट खड़ा दिख रहा है क्योंकि अब मुर्दा पशुओं को देख कर गिद्धों का समूह आकाश में मंडराते नहीं दिखता। करीब तीन दशक पहले देश में गिद्धों की तादाद चार करोड़ के आसपास थी लेकिन अब गिद्धों की संख्या घट कर पचास पचपन हजार के बीच रह गई है। नब्बे के दशक में अचानक गिद्धों की संख्या में कमी दिखी तो पशु पक्षी विशेषज्ञों व वैज्ञानिकों की आंखे खुली तो अध्ययन की दिशा गिद्धों के जीवन मरण पर केन्द्रीत हो गयी क्योंकि गिद्धों की मौतें तेजी से हो रहीं थीं। मुर्दाखोर पक्षी गिद्धराज संक्रमण को खत्म करते करते खुद संक्रमण का शिकार होने लगे। पच्चीस तीस सालों की अवधि में गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों के 90 से 95 प्रतिशत गिद्ध खत्म हो गये।
गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों में काण्डर, किंग वल्चर, कैलिफोर्नियन वल्चर, टर्की बजर्ड, अमरीकी ब्लैक वल्चर, अफ्रीका व एशिया के राजगिद्ध, काला गिद्ध, चमर गिद्ध, बड़ा गिद्ध व गोबर गिद्ध आदि गिने जाते हैं। कत्थई व काले रंग के गिद्ध अन्य पक्षियों की तुलना में काफी वजनदार पक्षी माने जाते हैं। इनकी देखने की क्षमता काफी तेज होती है। कहावत है कि गिद्ध दृष्टि है। आसमान में मीलों की ऊंचाई पर उड़ान भरने के बावजूद धरती पर पड़े मांस के लोथड़े को वह आसानी से देख लेते हैं लेकिन आज समाज का यह प्राकृतिक सफाई कर्मी आसमान में उड़ान भरते नहीं दिखता आैर मरघट में गिद्ध समूह की कांय-कांय सुनने को नहीं मिलती। वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों की मानें तो गिद्धों की मौत की वजह 'डाइक्लाफिनेक" एक बड़ा कारण रही। वर्ष 2003 में अमेरिका के एक पशु पक्षी वैज्ञानिक ने पाकिस्तान में गिद्धों की मौत पर अध्ययन किया था। जांच में गिद्धों की मौत का कारण 'डाइक्लाफिनेक" सामने आया था। इसका सीधा असर भारत में पड़ा था। 'डाइक्लाफिनेक" दवा गाय व भैंस को दर्द से राहत देने के लिए दी जाती है।
इस दवा का प्रभाव गाय व भैंस के शरीर में मौत के बाद भी बना रहता है। इस मांस को खाने के बाद गिद्धों की आंतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे गिद्धों की मौत हो जाती थी। जब तक भारत सरकार इस तथ्य से अवगत होती तब तक बहुत देर हो चुकी थी। हालांकि बाद में सरकार ने इस दवा के उपयोग पर पाबंदी लगा दी थी। इसके अलावा गुजरात में पंतगबाजी के कारण भी बड़ी संख्या में गिद्धों की मौतें हुर्इं क्योंकि मंझे में फंस जाने के कारण गिद्धों की गर्दन कट जाने से मौत हो जाती थी। देश व समाज को प्रदूषण से बचाने व सफाई कर्मियों के मानिंद माने जाने वाले पक्षी गिद्धों को बचाने के लिए शासकीय स्तर पर गिद्ध संरक्षण योजना पर कार्य व्यापक पैमाने पर होना चाहिए। हालांकि करीब दस साल पहले इस दिशा में पहल हो चुकी है लेकिन गिद्धों के महत्व को देखते हुये यह पहल व प्रयास नाकाफी हैं। एक दशक पहले पिंजौर में वल्चर कंजर्वेशन ब्राीडिंग सेंटर की शुरुआत हुई थी।
गिद्ध संरक्षण का यह प्रोजेक्ट सेंटर फारेस्ट डिपार्टमेंट आफ हरियाणा, बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी, रॉयल सोसाइटी फॉर प्रोटेक्शन वर्डस, इंस्टीट्यूट ऑफ जुलॅाजी व नेचुरल वर्डस आफ प्रे ट्रस्ट के सयंुक्त प्रयासों से चल रहा है लेकिन सामाजिक व शासकीय स्तर पर व्यापक पैमाने पर गिद्ध संरक्षण की परियोजनाएं चलनी चाहिए। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भी आर्थिक सहयोग से पक्षी संरक्षण की परियोजनाओं को बल देना चाहिए क्योंकि गिद्धों की जमात समाज की अहम आवश्यकता है क्योंकि गिद्धों की निगाह खास तौर से शवों के मांस पर रहती है। चाहे वह नदियों में बहते पशुओं व मानव के शव हों या मरघट में पड़े पशुओं के शव हों... उनका भोजन तो यही है। संरक्षण के सार्थक प्रयास होने चाहिए। प्रयास शासकीय व सामाजिक स्तर पर सामूहिक तौर पर हों तभी इन सोशल स्वीपर्स का अस्तित्व बचाया जा सकेगा।
'डॉल्फिन" से सीखें दोस्ताना
'समुद्र की मुन्नी" जी हां, डॉल्फिन को समुद्र की मुन्नी कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। डॉल्फिन भले ही जल चर हो लेकिन मनुष्यों के साथ डॉल्फिन का कार्य-व्यवहार दोस्ताना होता है। डॉल्फिन से दोस्ताना सीखें क्योेंकि डॉल्फिन में संवेदनशीलता का कहीं कोई जोड़ नहीं। उसे एकांत रास नहीं आता। विशेषज्ञों की मानें तो डॉल्फिन का विश्वास व सोच मनुष्यों की भांति ही होता है। अमूमन डॉल्फिन अकेले रहना पसंद नहीं करती क्योंकि उसे अकेलापन अच्छा नहीं लगता। लिहाजा डॉल्फिन समूह में रहती है। समूह में आैसत दस से बारह सदस्य होते हैं। डॉल्फिन सामान्यत: आवाज व ध्वनि तरंगों से एक दूसरे की पहचान करती हैं। खास बात यह होती है कि उसकी मुंह से निकली ध्वनि तरंगें अन्य जीव-जंतुओं से टकरा कर वापस लौट आती हैं जिससे डॉल्फिन के लिए यह जानना आसान हो जाता है कि शिकार कितना बड़ा व कितना करीब है।

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हाथियों की चिंघाड़ संरक्षण दो
देश के नीति-नियंता जीव-जन्तुओं एवं पशुओं को संरक्षण देने में नाकाम रहे क्योंकि नीति नियंताओं ने कानून तो बना डाले लेकिन कानून बनाने के बाद पल्ला झाड़ लिया। कहीं न कहीं इच्छाशक्ति का अभाव रहा जिसके कारण जीव-जन्तुओ एवं पशुओं को खास तौर से हाथियों को संरक्षण देने में नाकाम रहे।
हालात यह रहे कि आजादी के बाद से अब तक हजारों हाथियों की दर्दनाक मौत हो चुकी है। भले ही कारण कुछ भी रहा हो लेकिन हाथियों की मौत कहीं न कहीं संरक्षण की शिथिलिता को इंगित करती है। कोल ब्लाक आवंटन को लेकर देश में खूब हो हल्ला मचा लेकिन कोल ब्लाक आवंटन से हाथियों का स्वच्छन्द विचरण प्रभावित होगा, यह कभी किसी के चिंतन का विषय नहीं रहा।
कोल ब्लाक आवंटन से देश का ग्यारह लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र खतरे में पड़ गया। विशेषज्ञों की मानें तो 185000 हेक्टेयर वन क्षेत्र बाघों का विचरण क्षेत्र है तो 170000 हेक्टेयर वन क्षेत्र तेंदुओं के विचरण का क्षेत्र है। हाथियों का विचरण क्षेत्र भी 55000 हेक्टेयर वन क्षेत्र माना जा रहा है। अब ऐसे में इन पशुओं का स्वच्छन्द विचरण क्षेत्र सिकुड़ गया जिससे कहीं न कहीं पशुओं का जीवन, सुरक्षा व संरक्षा प्रभावित होगी। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम-1972 में पशुओं को संरक्षण देने के लिए तमाम प्रावधान किये गये। पशुओं का शिकार व हत्या में सजा व जुर्माना दोनो का ही प्रावधान है।
अभी हाल ही में कानून को आैर भी अधिक सख्त किया गया है। अब केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को अधिकार हासिल है कि सीधे मामले को देखे। इसमें उपकरण, वाहन व हथियार आदि जब्त करने के प्रावधान हैं। देश में हाथियों की संख्या करीब 26 हजार है लेकिन इनमें से 3500 से अधिक हाथी कहीं सर्कस की कैद में हैं तो कहीं इनका व्यावसायिक उपयोग हो रहा है। इससे पशुओं का अल्मस्त जीवन व खिलंदड़पन बाधित होता है। पशुओं का स्वच्छंद विचरण प्रकृति की देन है। इसे किसी भी दशा में भंग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि कैद में कोई संतुष्ट नहीं रह सकता तो फिर पशुओं को कैद में रखा जाना कितना उचित है...? जाहिर सी बात है कि कैद में जीव-जन्तुओं एवं पशुओं का जीवन एक दायरे में सिमट जाता है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय नेे कुछ समय पहले घोषणा की थी कि हाथी को राष्ट्रीय धरोहर पशु घोषित किया जायेगा। इससे पशु प्रेमियों को लगा कि शायद अब हाथियों को स्वच्छंद विचरण व उन्मुक्त परिवेश मिलेगा। रेल मंत्रालय व वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को आपसी सहमति से हाथियों के संरक्षण के लिए रीति-नीति तय करनी थी जिससे हाथियों को जीवन की सुरक्षा एवं संरक्षा हासिल हो सके लेकिन अभी तक कहीं कुछ भी ऐसा नहीं दिखा बल्कि ट्रेनों से कट कर हाथियों की मौत होने का सिलसिला अनवरत जारी है। रेल व वन एवं पर्यावरण मंत्रालय गम्भीर होते तो शायद हाथियों के साथ यह हादसे नहीं होते।
अभी हाल ही में कानून को आैर भी अधिक सख्त किया गया है। अब केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को अधिकार हासिल है कि सीधे मामले को देखे। इसमें उपकरण, वाहन व हथियार आदि जब्त करने के प्रावधान हैं। देश में हाथियों की संख्या करीब 26 हजार है लेकिन इनमें से 3500 से अधिक हाथी कहीं सर्कस की कैद में हैं तो कहीं इनका व्यावसायिक उपयोग हो रहा है। इससे पशुओं का अल्मस्त जीवन व खिलंदड़पन बाधित होता है। पशुओं का स्वच्छंद विचरण प्रकृति की देन है। इसे किसी भी दशा में भंग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि कैद में कोई संतुष्ट नहीं रह सकता तो फिर पशुओं को कैद में रखा जाना कितना उचित है...? जाहिर सी बात है कि कैद में जीव-जन्तुओं एवं पशुओं का जीवन एक दायरे में सिमट जाता है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय नेे कुछ समय पहले घोषणा की थी कि हाथी को राष्ट्रीय धरोहर पशु घोषित किया जायेगा। इससे पशु प्रेमियों को लगा कि शायद अब हाथियों को स्वच्छंद विचरण व उन्मुक्त परिवेश मिलेगा। रेल मंत्रालय व वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को आपसी सहमति से हाथियों के संरक्षण के लिए रीति-नीति तय करनी थी जिससे हाथियों को जीवन की सुरक्षा एवं संरक्षा हासिल हो सके लेकिन अभी तक कहीं कुछ भी ऐसा नहीं दिखा बल्कि ट्रेनों से कट कर हाथियों की मौत होने का सिलसिला अनवरत जारी है। रेल व वन एवं पर्यावरण मंत्रालय गम्भीर होते तो शायद हाथियों के साथ यह हादसे नहीं होते।
ऐसा नहीं है कि हाथियों के संरक्षण व सुरक्षा को ध्यान में रख कोई नीति या व्यवस्था नहीं बनती लेकिन इन नीतियों व व्यवस्थाओं की सार्थकता कहीं नहीं दिखती। हाथियों के संरक्षण के लिए भारत वंशीय ही चिंतित नहीं है बल्कि देश दुनिया के तमाम पशु-पक्षी एवं जीव-जन्तु प्रेमी व पशु संरक्षक चिंतित हैं। कुछ समय पहले विश्व बैंक ने बांगला देश व नेपाल को 1.76 अरब रुपये की धनराशि का आर्थिक सहयोग दिया था जिससे नेपाल व बांगला देश में हाथियों को अपेक्षित संरक्षण मिल सके। कुछ भी हो लेकिन बेजुबान पशुओं खास तौर से हाथियों को अपेक्षित संरक्षण मिलना चांिहए क्योंकि स्वच्छंद विचरण व वन क्षेत्र में खिलंदड़पन उनको प्रकृति ने बतौर उपहार दिया है। पशुओं के स्वच्छंद विचरण व खिलंदड़पन छीनने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। केन्द्र सरकार को भी चिंतत करना चाहिए कि वन क्षेत्र कम न हों क्योंकि इससे कहीं न कहीं पशुओं का स्वच्छंदता बाधित हो रही है। हाथियों की कमी देश की प्राकृतिक सम्पदा का हनन व क्षति है। इस क्षति को रोकने के लिए हम सब को आगे आना चाहिए। भारत सरकार को सार्थक एवं यर्थाथवादी नीति बनानी चाहिए। जिससे नीतियां अमल होते दिखें। नीति-रीति फाइलों की शोभा बनने तक सीमित न रहे।
प्रकाशन तिथि 01.12.2016
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खतरे में हिम तेंदुआ
भले ही वन्य जीव संरक्षण का लाख ढ़िंढोरा पीट लें... करोड़ों-अरबों की धनराशि खर्च कर दें... वन्य जीव संरक्षण के कानूून बना ड़ालें लेकिन क्या वाकई देश में वन्य जीवों को अपेक्षित संरक्षण देने में हम कामयाब रहे...? वन्य जीव संरक्षण पर गम्भीर चिंतन-मनन-विमर्श की आवश्यकता है।
भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय हो या वन्य जीव प्रेमियों की फौज हो... सभी को वन्य जीव संरक्षण के सार्थक उपाय खोजने चाहिए। खास तौर से वन्य जीवों की उस श्रंखला पर गम्भीरता से गौर करना चाहिए, जो धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। खास तौर से हिम तेंदुओं के संरक्षण व उनकी संख्या बढ़ाने की दिशा में सार्थक उपाय होने चाहिए क्योंकि वन्य जीव किसी भी राष्ट्र की धरोहर व सम्पदा होते हैं। इनको बचाना चाहिए। विशेषज्ञों की मानें तो उत्तराखण्ड के नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में दो वर्ष की अवधि में सिर्फ तीन हिम तेंदुओं के दर्शन हो सके। हिम तेंदुओं की यह छवि पार्क में लगाये गये आटोमेटिक कैमरों में दिखी। हालात यह हैं कि तीन दशक के दौरान हिम तेंदुओं की आवाजाही काफी तेजी से घटी है क्योंकि वन क्षेत्र में इनकी कहीं कोई खास हलचल नहीं दिखायी पड़ी।
देश में हिम तेंदुओं की संख्या फिलहाल सात सौ पचास के आसपास आंकलित है लेकिन भारत जैसे विशाल देश में सात सौ पचास हिम तेंदुओं की मौजूदगी नाकाफी है। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत सरकार हिम तेंदुओं के संरक्षण के लिए चिंतित नहीं है क्योंकि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने थल सेना व भारत तिब्बत सीमा पुलिस से हिम तेंदुओं के संरक्षण में सहयोग की अपेक्षा की है। यह एक अच्छी बात है लेकिन इसके सार्थक परिणाम भी दिखने चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि दिल में कहीं न कहीं वन्य जीव संरक्षण-पशुओं के लिए संवेदना, हमदर्दी व इच्छाशक्ति होनी चाहिए। हालांकि थल सेना व भारत तिब्बत सीमा पुलिस हिम तेंदुओं को संरक्षण देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। देश में मुख्यत: हिमाचल प्रदेश, जम्मू एण्ड कश्मीर, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश आदि में हिम तेंदुये पाये जाते हैं। भारत के अलावा हिम तेंदुये अफगानिस्तान, भूटान, चीन, कजाकिस्तान, मंगोलिया, नेपाल, पाकिस्तान, रूस, तजाकिस्तान, उजबेकिस्तान सहित दुनिया के एक दर्जन से अधिक देशों में हिम तेंदुये... स्नो लैपर्ड... बर्फानी तेंदुये पाये जाते हैं। ऐसा नहीं है कि हिम तेंदुये केवल भारत में ही खतरे में हैं। अफगानिस्तान सहित कई देशों में हिम तेंदुओं के अस्तित्व पर गम्भीर संकट है। हिम तेंदुआ खास तौर से दस हजार से अठारह हजार फुट की ऊंचाई पर पाया जाता है। हिमाचल प्रदेश में हिम तेंदुओं की संख्या पैंतीस के आसपास आंकलित है। हिमाचल प्रदेश सरकार हिम तेंदुओं को संरक्षण देने के लिए कोशिश भी कर रही है।
खास बात यह है कि हिमाचल प्रदेश राज्य में मंगोलिया की तर्ज पर स्पीती घाटी किब्बर में राज्य पशु बर्फानी तेंदुआ (स्नो लैपर्ड) संरक्षण केन्द्र बनाने जा रहा है। इस पर पांच करोड़ की धनराशि खर्च होगी। यह एक रिसर्च सेंटर की तरह होगा। इसमें हिम तेंदुओं के कार्य व्यवहार से लेकर उनकी हर गतिविधियों पर अध्ययन होगा। इसमें वन्य जीव विशेषज्ञ कैमरा ट्रैपिंग व रेडियो कॉलरिंग का उपयोग भी करेंगे। जिससे विशेषज्ञ हिम तेंदुओं की जीवन चर्या को भली-भांति समझ सकें। कोशिश के सार्थक परिणाम भी आने चाहिए। अब यह रिसर्च सेंटर प्रदेश में हिम तेंदुओं को कितना संरक्षण दे पाता है। यह तो परिणाम आने पर ही पता चलेगा।
हालात यह हैं कि हिम तेंदुओं को अपना अस्तित्व बचाने के लिए दोहरा संघर्ष करना पड़ रहा है। एक तो देश का हिम क्षेत्र व वन क्षेत्र घट रहा है तो वहीं भेंड़-बकरियों को बचाने वाले किसानों-काश्तकारों से हिम तेंदुओं को जबर्दस्त खतरा रहता है क्योंकि भेंड़-बकरियों को बचाने के लिए किसान-काश्तकार हिम तेंदुओं का शिकार करते-कराते हैं तो वहीं हिम तेंदुओं की खाल के शौकीन भी एक बड़ा खतरा हैं। इन सब हमलों से हिम तेंदुओं को बचाना होगा, तभी हिम तेंदुओं को संरक्षण देने की कोशिशें सार्थक आयाम ले सकेंगी। प्रकाशन तिथि 02.12.2016
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भले ही वन्य जीव संरक्षण का लाख ढ़िंढोरा पीट लें... करोड़ों-अरबों की धनराशि खर्च कर दें... वन्य जीव संरक्षण के कानूून बना ड़ालें लेकिन क्या वाकई देश में वन्य जीवों को अपेक्षित संरक्षण देने में हम कामयाब रहे...? वन्य जीव संरक्षण पर गम्भीर चिंतन-मनन-विमर्श की आवश्यकता है।
भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय हो या वन्य जीव प्रेमियों की फौज हो... सभी को वन्य जीव संरक्षण के सार्थक उपाय खोजने चाहिए। खास तौर से वन्य जीवों की उस श्रंखला पर गम्भीरता से गौर करना चाहिए, जो धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। खास तौर से हिम तेंदुओं के संरक्षण व उनकी संख्या बढ़ाने की दिशा में सार्थक उपाय होने चाहिए क्योंकि वन्य जीव किसी भी राष्ट्र की धरोहर व सम्पदा होते हैं। इनको बचाना चाहिए। विशेषज्ञों की मानें तो उत्तराखण्ड के नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में दो वर्ष की अवधि में सिर्फ तीन हिम तेंदुओं के दर्शन हो सके। हिम तेंदुओं की यह छवि पार्क में लगाये गये आटोमेटिक कैमरों में दिखी। हालात यह हैं कि तीन दशक के दौरान हिम तेंदुओं की आवाजाही काफी तेजी से घटी है क्योंकि वन क्षेत्र में इनकी कहीं कोई खास हलचल नहीं दिखायी पड़ी।
हालात यह हैं कि हिम तेंदुओं को अपना अस्तित्व बचाने के लिए दोहरा संघर्ष करना पड़ रहा है। एक तो देश का हिम क्षेत्र व वन क्षेत्र घट रहा है तो वहीं भेंड़-बकरियों को बचाने वाले किसानों-काश्तकारों से हिम तेंदुओं को जबर्दस्त खतरा रहता है क्योंकि भेंड़-बकरियों को बचाने के लिए किसान-काश्तकार हिम तेंदुओं का शिकार करते-कराते हैं तो वहीं हिम तेंदुओं की खाल के शौकीन भी एक बड़ा खतरा हैं। इन सब हमलों से हिम तेंदुओं को बचाना होगा, तभी हिम तेंदुओं को संरक्षण देने की कोशिशें सार्थक आयाम ले सकेंगी। प्रकाशन तिथि 02.12.2016
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