'इच्छाशक्ति" से ही बनेंगे शहर 'स्मार्ट सिटी"
सोच अच्छी हो... सोच विकास की हो... दिशा रचनात्मक हो तो कोई वजह नहीं कि कायाकल्प न हो। शहरों का न केवल कायाकल्प होना चाहिए बल्कि आदर्श-आइडियल शहर विकसित होने चाहिए। कोरी लफ्फाजी, दोहरी नीति-रीति व आरोप-प्रत्यारोप शहरों की दशा-दिशा नहीं बदल सकते। शय-मात के खेल नहीं होने चाहिए।
विकास को राजनीति के चश्में से नहीं देखना चाहिए। नफा-नुकसान नहीं सिर्फ विकास की रफ्तार होनी चाहिए। फिर चाहे दिल्ली को वल्र्ड क्लास सिटी बनाने की बात हो या फिर हैदराबाद या कोलकाता का कलेवर चेंज करना हो, कोई मुश्किल काम नहीं होगा। वायु प्रदूषण से लेकर साफ सफाई तक की समग्र व्यवस्थाओं के सुधार यथार्थ में बदलने चाहिए क्योंकि आज देश के अधिसंख्य शहरों में वायु प्रदूषण एवं शहरी क्षेत्रों में साफ-सफाई की दशा बेहद बदहाल है। जिसका सीधा दुष्प्रभाव शहरी बाशिंदों की सेहत व स्वास्थ्य पर पड़ता है। यह स्थिति से शहरी जीवन की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
देश समाज व सरकार सभी के लिए यह गम्भीर चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि जनस्वास्थ्य से कहीं न कहीं-कभी न कभी सभी का सरोकार रहता है। बात पानी की हो तो बिजली की भी होनी चाहिए। कोशिश हो कि शहरी विकास का एक समग्र डिजाइन तैयार हो जिसमें सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट से लेकर एनर्जी डेवेलपमेंट सहित सभी कुछ शामिल हो।आवश्यक है कि भवन निर्माण नीति में इस तरह की व्यवस्थायें आयें जिससे बिजली की खपत को कम किया जा सके। विशेषज्ञों की मानें तो ऐसा करने से वर्ष 2021 तक 42,000 मेगावाट बिजली बचाई जा सकेगी। 'टेरी" की रिपोर्ट में इस आशय के संकेत भी दिये गये हैं। आवश्यक है कि कूड़ा कचरा सहित अन्य सभी संसाधनों का अपेक्षित उपयोग सुनिश्चित हो। विकास की सतत प्रक्रिया होनी चाहिए।
जिसमें संसाधनों का तर्कसंगत इस्तेमाल सुनिश्चित करने के साथ-साथ पर्यावरण एवं सामाजिक पहलुओं का भी पूरा ध्यान रखा जाता हो। शहरों में फैले कूड़ा-कचरा को उर्जा, ईंधन, उर्वरक एवं सिंचाई जल में तब्दील करने की योजनायें बननी चाहिए जिससे निस्तारण भी हो आैर आवश्यकताओं की पूर्ति भी हो। इसमें आैद्योगिक घरानों व उद्योग जगत की भूमिका विशेष व महत्वपूर्ण हो सकती है। भारत सरकार का शहरी विकास मंत्रालय इस दिशा में कोशिश कर रहा है लेकिन कोशिशें सार्थक आयाम लेते दिखनी चाहिए क्योंकि सार्थक परिणाम ही देश की आवाम-देश की आबादी को अपेक्षित लाभ दे सकेंगी। भारत सरकार का शहरी विकास मंत्रालय इस दिशा में कार्यरत देश-विदेश की कम्पनियों व संस्थाओं की खोजबीन कर रहा है। कोशिश है कि इससे कूड़ा कचरा एवं सीवेज की व्यवस्थाओं में सुधार आयेगा। दोबारा इस्तेमाल के लिए किफायती समाधान (सोल्यूशंस) भी सामने आयेंगे।
यह सभी रीतियां-नीतियां शहरी विकास के स्वच्छ भारत मिशन, स्मार्ट सिटी व धरोहर शहरी विकास का हिस्सा होंगी। देश के करीब पांच सौ शहरों एवं कस्बों में इस तरह की योजनायें फिलहाल लाने की हलचल दिख रही है। शहरी विकास मंत्रालय की माने तो प्रथम श्रेणी व द्वितीय श्रेणी में आने वाले शहरों से नित्य-प्रतिदिन एक लाख तेंतीस हजार मीट्रिक टन कूड़ा-कचरा व ठोस अपशिष्ठ उत्पन्न होता है। इतना ही नहीं इन शहरों से हर दिन तकरीबन अडतीस हजार पांच सौ मिलियन लीटर सीवेज उत्पन्न होता है। देश के शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का कार्य भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं होगा। शहरी विकास मंत्रालय सहित अन्य मंत्रालयों की कोशिश है कि देश में एक सौ स्मार्ट सिटी बनाये जायें। शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने से पहले शहरी विकास मंत्रालय ने राज्यों व नौकरशाहों से विचार-विमर्श व मंथन कर जानना चाहा कि वह वाकई शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने के प्रति गम्भीर हैं अथवा नहीं क्योंकि भारत सरकार अपेक्षित धनराशि तो उपलब्ध करा सकता है लेकिन क्रियान्वयन या अमल में लाना तो राज्य सरकारों व नौकरशाहों का उत्तरदायित्व होगा।
कारण इच्छाशक्ति ही योजनाओं को आकार दे सकती है। स्मार्ट सिटी बनाने के लिए स्मार्ट नेतृत्व, स्मार्ट गवर्नेंस, स्मार्ट टेक्नॉलॉजी व स्मार्ट नागरिक भी होने चाहिए क्योंकि इन सभी के संयुक्त प्रयास से शहर स्मार्ट बनेंगे। शहर स्मार्ट तभी होंगे, जब शहर साफ सुथरे होंगे। बीमारियां दूर रहेंगी। इससे अर्थव्यवस्था भी सुधरेगी। जनस्वास्थ्य का सीधा असर अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। शहरों में पर्याप्त व अपेक्षित साफ सफाई व स्वच्छता न होने से बीमारियां फैलती हैं। शहरी विकास मंत्रालय की मानें तो इस कारण प्रत्येक वर्ष सकल घरेलू उत्पाद का 6.40 प्रतिशत यानी 54 बिलियन डालर का बोझ देश की आर्थिक व्यवस्था पर पड़ता है। इतना ही नहीं प्रत्येक वर्ष डायरिया से 18 लाख लोग मर जाते हैं। हालात यह हैं कि अस्सी प्रतिशत बीमारियां जल जनित हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद 19 प्रतिशत शहरी घरों में शौचालय नहीं है। इतना ही नहीं 13 प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं।
स्वच्छता के लिए मानसिकता बदलने के साथ-साथ व्यापक स्तर पर जागरुकता की आवश्यकता है। तभी स्वच्छ भारत, स्वच्छ समाज व स्मार्ट सिटी की परिकल्पना साकार होगी। देश की राजधानी दिल्ली को वल्र्ड क्लास सिटी बनाने की बात हो या देश के प्रमुख शहरों को स्मार्ट सिटी के रुप में विकसित करने की परिकल्पना हो या फिर देश के खास शहरों को सांस्कृतिक-पौराणिक-धार्मिक या धरोहर शहर के रूप-रंग में तब्दील करने की वैचारिकी हो.... यह सभी तभी फलीभूत होंगें, जब देश व प्रदेश संयुक्त तौर पर विकास पथ पर कदमताल करेंगे। करीब एक दशक पहले जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन के तहत उत्तर प्रदेश के कवाल टाउन्स कानपुर, आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, लखनऊ सहित देश के कई शहरों में लाख करोड़ की विकास योजनायें लागू की गयी थीं। जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन (जेएनएनयूआरएम) की यह विकास योजनायें अभी तक आयाम नहीं ले सकीं। भले ही कारण कुछ भी रहे हों लेकिन देश की आम जनता को अभी तक न तो सुगम परिवहन सेवायें सुलभ हो सकीं आैर न साफ सुथरा पीने का पानी ही उपलब्ध हो सका बल्कि सप्ताह के सात दिन चौबीस घंटे पीने का पानी उपलब्ध कराने का खाका खींचा जा रहा है।
चाहे पीने का पानी हो या फिर परिवहन सेवायें, विकास योजनायें बननी ही चाहिए लेकिन विकास योजनाओं को फलीभूत होने के लिए समयवद्ध उत्तरदायित्व तय होने चाहिए क्योंकि तभी विकास योजनाओं से देश का कॉमनमैन लाभान्वित हो सकेगा। आवश्यक है कि इसके लिए केन्द्र सरकार व देश की राज्य सरकारें दलगत राजनीति से उपर उठ कर विकास योजनाओं के क्रियान्वयन से लेकर उसकी गुणवत्ता के प्रति गम्भीर हों। जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन की योजनाओं के लिए केन्द्र सरकार ने पचास प्रतिशत धनराशि बतौर अनुदान जारी की जबकि इसमें तीस प्रतिशत अंशदान स्थानीय निकाय व बीस प्रतिशत अंशदान प्रदेश सरकार को वहन करने का प्रावधान किया गया था लेकिन केन्द्र सरकार की व्यवस्थाओं में बदलाव दिखे। अब शहरी विकास के लिए केन्द्र सरकार ने कई मायनों में राज्य सरकारों पर निर्भरता की रीति-नीति को छोड़ दिया।
धरोहर शहर विकास योजना के तहत अब केन्द्र सरकार परियोजना खर्च खुद उठायेगगा। धरोहर शहर विकास योजना के तहत फिलहाल देश के मुख्य 12 शहर चयनित किये गये हैं। इन एक दर्जन शहरों के लिए केन्द्र सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने पांच सौ करोड़ रुपये की धनराशि का प्रावधान किया है। इसके पीछे शाायद मंशा यह है कि 'संस्कृति व विरासत की अनदेखी कर कोई भी राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता"। शायद इसी सोच के तहत केन्द्र सरकार ने देश के चुंनिदा शहरों को अपेक्षित विकास की स्पीड़ देने का निर्णय लिया है। विशेषज्ञों की मानें तो धरोहर शहर विकास योजना का लक्ष्य शहरों की विरासत को सुरक्षित व संरक्षित रखना है। साथ ही शहरों का समेकित, समावेशी और सतत विकास करना है। इसके तहत केवल स्मारकों के रख रखाव पर ही नहीं, बल्कि शहर के नागरिकों, पर्यटकों और स्थानीय व्यवसायों को बढ़ावा देना है।
यूनेस्को ने तीस से अधिक विरासत स्थलों को मान्यता देकर सुरक्षित व संरक्षित किया है। विशेषज्ञों की मानें तो भारत का एशिया में दूसरा और विश्व में पांचवां स्थान है, जो विरासत शहरों व स्थलों के प्रति गम्भीर है। देश में पर्यटन की संभावनाओं का अभी तक पूरा लाभ नहीं उठाया जा सका क्योंकि अपेक्षित विकास न होने से पर्यटन शहरों व स्थलों की ओर पर्यटकों को आकर्षित नहीं किया जा सका। संभव है कि शहरी विकास मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय व पर्यटन मंत्रालय की नयी योजनायें कोई नया आकार गढ़ें। धरोहर शहर विकास योजना के तहत आबादी के आधार पर काशी-बनारस को 89.31 करोड़ रुपए, अमृतसर को 69.31 करोड़ रुपए, वारंगल को 40.54 करोड़ रुपए तथा अजमेर, गया व मथुरा को चालीस-चालीस करोड़ रुपए, कांचीपुरम को 23.04 करोड़ रुपए और वेलानकिनी, अमरावती, बदामी एवं द्वारका को करीब पच्चीस-पच्चीस करोड़ रुपए तथा पुरी को 22.54 करोड़ रुपए मिलेंगे। विकास की यह नयी चुनौतियों अब स्थानीय निकायों के सामने खरा उतरने की हैं।
शहरी स्थानीय निकायों को परियोजनाओं के विकास के लिए धनराशि तो केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालय उपलब्ध करायेंगे लेकिन योजनाओं को आकार देने का उत्तरदायित्व तो स्थानीय निकायों पर रहेगा। हालात यह हैं कि शहरों के विकास में अब पारम्परिक चाल-ढ़ाल व रवैया नहीं चलेगा कि केन्द्र सरकार ने धनराशि जारी कर दी आैर राज्यों ने विकास की आैपचारिकतायें पूरी कर इतिश्री कर ली क्योंकि यदि शहरों का समग्र या सम्पूर्ण विकास चाहिए तो विकास को एक चुनौती के रूप में जनप्रतिनिधियों से लेकर नौकरशाहों को लेना होगा। शहरी प्रशासन में सुधार और नई चुनौतियों पर खरा उतरने की क्षमता शहरी स्थानीय निकायों में होनी चाहिए। इसी क्षमता के आधार पर शहरी विकास मंत्रालय स्मार्ट सिटी के लिए शहरों को चयनित करेगा। शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू खुद इस आशय के संकेत दे चुके हैं। भारत सरकार का शहरी विकास मंत्रालय फिलहाल देश के सौ स्मार्ट शहरों और पांच सौ शहरों व कस्बों में विकास के रंग भरने की योजनाओं पर कार्य कर रहा है।
कोशिश है कि विकास के इस इन्द्रधनुष में जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन के अनुभव के रंग भरे जायें। व्यवस्थाओं को देखें तो देश में प्रति व्यक्ति प्रति दिन एक सौ पैंतीस लीटर पानी उपलब्ध होना चाहिए लेकिन उपलब्धता पचहत्तर लीटर से भी कम है। शहरी क्षेत्र में पचास फीसदी परिवारों या आवासों में पानी कनेक्शन हैं। हालात यह हैं कि शहरी क्षेत्र में सिर्फ चालीस प्रतिशत में घरों में शौचालय की व्यवस्था है तो वहीं सोलह से बीस फीसदी सीवरेज शोधित हो पाता है। इतना ही नहीं शहरी क्षेत्र में कचरा प्रबंधन एक बड़ी समस्या है। करीब बीस से पच्चीस फीसदी कचरा का अपेक्षित निस्तारण हो पाता है।कचरा रिसाइकिलिंग की व्यवस्था अत्यधिक कमजोर है क्योंकि बमुश्किल दस फीसदी कचरा ही रिसाइकिल हो पाता है।
विशेषज्ञों की मानें तो अगले बीस वर्षों में बुनियादी ढ़ाचे में सुधार के लिए चालीस लाख करोड़ चाहिए होंगे। इसके साथ ही व्यवस्थाओं के संचालन एवं शहरी उपयोगिताओं के रखरखाव के लिए करीब बीस लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। आवासों की कमी को पूरा करने के लिए भी बड़ी धनराशि चाहिए होगी। विशेषज्ञों की मानें तो 15 लाख करोड़ रुपए आवास की कमी को पूरा करने के लिए और 60 हजार करोड़ रुपए स्वच्छता के लिए आवश्यक है। हालात पर गौर करें तो इन सबके लिए कुल एक हजार दो सौ बिलियन अमेरिकी डालर की आवश्यकता है। अब सरकार की कोशिश है कि इसका अधिसंख्य हिस्सा निजी क्षेत्र से आये।
29.12.2016
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अब खाइये जेनेटिक मॉडीफाइड आलू
अब आपको जेनेटिक मॉडीफाइड आलू खाने को मिलेंगे। जी हां, इस आलू का स्वाद भी कुछ खास होगा तो वहीं इसे अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकेगा।
आयरलैण्ड के कृषि वैज्ञानिकों ने जेनेटिक माडीफाइड आलू विकसित की है। सामान्यत: आलू नमी व उमस में सड़ने लगता है। आलू को फ्रिज में भी रखा जाये तो कितना रखा जायेगा। देश दुनिया के वैज्ञानिक आलू को सड़ने से बचाने के लिए काफी चिंतित थे। विशेषज्ञों की मानें तो आयरलैण्ड में करीब पौने दो सौ साल पहले 1840 में सूखा पड़ा था। इस सूखे में बड़ी तादाद में आलू सड़ गया था। लिहाजा आयरलैण्ड के कृषि वैज्ञानिक आलू पर शोध-अध्ययन व अविष्कार में जुट गये।
आयरलैण्ड के कृषि वैज्ञानिकों ने अथक शोध-अविष्कार के बाद जेनेटिक मॉडीफाइड आलू विकसित किया है। यह मॉडीफाइड आलू लम्बे समय तक खराब न होगा। साथ ही स्वाद भी कहीं अधिक अच्छा होगा। देश दुनिया के गांव-गिरांव, खेत-खलिहान से लेकर मेगाटाउन्स के आलीशान मार्केट्स में हर साल करोड़ों ƒ धनराशि के साग-भाजी आलू सड़-गल कर बर्बाद हो जाती है। फल व सब्जियों को खराब व बर्बाद होने से बचाने के लिए खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्रालय अरबों की धनराशि की परियोजनायें बनाता है। जिससे फल एवं साग-सब्जियों को प्रोसेस कर भविष्य के लिए उपयोगी बनाया जा सके। इसके बावजूद हर साल लाखों टन फल व सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं।
ब्रिटेन में सालाना 60 लाख टन आलू सड़ कर बर्बाद हो जाता है। सामान्य तौर पर आलू को कीटनाशकों से बचाने के लिए एक दर्जन से अधिक बार कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है। आलू को सड़ने गलने से बचाने के लिए यूरोप में भी कृषि वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। देश में इस वर्ष आलू की रिकार्ड फसल होने का अनुमान है। कृषि विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 2012-2013 में आलू का उत्पादन 453.43 लाख टन हुआ था जबकि इस वर्ष आलू का उत्पादन 464.43 लाख टन होने का अनुमान है। अब खास बात यह है कि आलू को सड़ने से बचाने की कोशिश होनी चाहिए। आलू एक ऐसा सब्जी जींस जो हर सब्जी के संग मिलाया जाता है। आलू की खाद्य पदार्थ के अलावा भी कई अन्य उपयोगितायें हैं। कच्चा आलू झुर्रियों को मिटाने के आैषधीयं उपयोग में आता है तो वहीं दाद, फुंसियों, गैस, मांसपेशियों के रोग में भी उपयोगी होता है। 23.12.2016
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बदलाव की हो सार्थक कोशिश
विशेषज्ञों की मानें तो देश को दस लाख से अधिक क्वालीफाईड व क्वालिटीबेस इंजीनियर्स चाहिए। क्वालीफाईड इंजीनियर्स की यह डिमांड लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि देश की विकास रफ्तार भी तेजी से बढ़ रही है। तो वहीं देश में क्वालीफाईड इंजीनियर्स की कमी दिख रही है। ऐसा नहीं है कि, देश के इंजीनियरिंग कालेज से इंजीनियर्स नहीं निकल रहे हैं। अब समस्या यह है कि इंजीनियरिंग कालेज से इंजीनियर्स भी निकल रहे हैं आैर क्वालीफाईड इंजीनियर्स इण्डस्ट्रीज को उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे में कई सवालों का सहज उठना लाजिमी है।
कहीं न कहीं इंजीनियरिंग कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। आइए, बात करें शासकीय व्यवस्थाओं की, जिसने इंजीनियरिंंग की तस्वीर बदलने की एक सार्थक कोशिश की। गुजरात सरकार ने इंजीनियरिंग करने वाले ग्रेजुएट्स को गुजरात सीएम फेलोशिप योजना दी। विशेषज्ञों की मानें तो आैसत हर साल ड़ेढ़ हजार ग्रेजुएट इंजीनियर्स इस फेलोशिप का लाभ उठाते हैं। इसका लाभ ग्रेजुएट इंजीनियर्स को भी मिलता है तो गुजरात सरकार को भी लाभ मिलता है। बताते हैं कि गुजरात के पालिका क्षेत्रों में इंजीनियर्स का संकट था।
लिहाजा इंजीनियरिंग ग्रेजुएट को छह माह की इंटर्नशिप देने का प्रस्ताव दिया गया। जिससे ग्रेजुएट इंजीनियर को अनुभव का लाभ मिला तो वहीं पालिका क्षेत्रों को ग्रेजुएट इंजीनियर्स की सेवाओं का लाभ मिला। बात केवल इंजीनियर्स की नहीं है। बात व्यवस्था की है। अक्सर होता यह है कि इंजीनियरिंग कालेज छात्र-छात्राओं को किताबी ज्ञान तो देते हैं लेकिन व्यवहारिक ज्ञान का संकट रहता है जिससे इंजीनियर्स क्षमता होने के बावजूद अपने नॉलेज का राष्ट्रहित में उपयोग नहीं कर पाते। बात केवल सिविल इंजीनियरिग की ही नहीं है बल्कि इंजीनियरिंग के हर सेक्टर में शासकीय नीति-नियंताओं को इस तरह के प्रयोग आजमाने चाहिये जिससे समाज को लाभ मिल सके।
देश के इंजीनियरिंग कालेज से हर साल बड़ी संख्या में इंजीनियर्स निकलते हैं। इनके किताबी ज्ञान को व्यवहारिक ज्ञान में तब्दील कर प्रदेश सरकारें सामाजिक बदलाव ला सकती हैं। सिविल इंजीनियरिंग, केमिकल इंजीनियरिंग, सूचना एवं प्रौद्योगिकी इंजीनियरिंग, टेक्सटाइल इंजीनियरिंग, पेट्रोलियम इंजीनियरिंग, कारपोरेट रिलेशन, कारपोरेट प्रबंधन आदि सहित अनगिनत सेक्टर्स में ग्रेजुएट का अच्छा व बेहतर उपयोग किया जा सकता है। इससे ग्रेजुएट इंजीनियर्स को अनुभव व रोजगार के अवसर मिलेंगे तो वहीं देश प्रदेश में विकास की रफ्तार को कहीं न कहीं बल अवश्य मिलेगा। तकनीकि शिक्षा को व्यवसायिक क्षेत्र से जोड़ कर समाज में बदलाव लाये जा सकते हैं। देश में एक सार्थक कोशिश होनी ही चाहिये, जिससे सामाजिक, आर्थिक व व्यावसायिक बदलाव दिखें।
21.12.2016
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खुशहाल दाम्पत्य जीवन में उल्लास के अलंकरण
खुुशियों से भरा पूरा परिवार हो... घर परिवार के बच्चे-बड़े, बुजुर्गों के चेहरे हसंते-मुस्कराते, खिलखिलाते दिखे... यह किसे अच्छा नहीं लगता। दाम्पत्य जीवन खुशियों-उल्लास से परिपूर्ण हो तो क्या कहने। युवा मन शादी विवाह के साथ ही भविष्य के सतरंगी सपने संजोने लगता है। सपने संजोये भी क्यूं नहीं...? आखिर जीवन एक लम्बी पारी होता है। इसे खूबसूरत रंगों से जितना अधिक सजायेंगे-सवारेंगे, उतना ही अधिक जीवन आनन्द व खुशियों से सराबोर रहेगा।
देश में सामान्य तौर पर बीस से तीस वर्ष की आयु में युवक-युवतियां शादी विवाह के बंधन में बंध जाते हैं। शादी विवाह के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियां-उत्तरदायित्व का निवर्हन करते-करते कब रोजी-रोजगार या नौकरी पेशा रिटायर हो गये, पता ही नहीं चलता। जीवन का यह सफर शांति, हंसी-खुशी व उल्लास के साथ बीत जाये, इससे बड़ी शायद ही जीवन की कोई उपलब्धि होगी। दाम्पत्य जीवन में प्रेम की प्रगाढ़ता-मधुरता जीवन को आैर भी रससिक्त बना देता है। जीवन को सदाबहार रंग-ढंग, तौर तरीके से गुजर जाये तो मन-मस्तिष्क को बेहद शांति मिलती है।
देश दुनिया में महिला हो पुरुष, सभी को अपेक्षित मान सम्मान मिलता है। पोलैण्ड शायद दुनिया का अकेला देश हैं, जहां खुशनुमा दाम्पत्य जीवन गुजारने-व्यतीत करने वाले दम्पत्ति को राष्ट्रपति मेडल से पुरस्कृत-अलंकृत किया जाता है। पोलैण्ड की राजधानी वॉरसा में दाम्पत्य जीवन के पचास बसंत देख चुके दम्पत्तियों को चांदी का मेडल भेंट किया जाता है। दाम्पत्य जीवन के पचास वर्ष अर्थात करीब अठारह हजार दिन हंसी खुशी से बीत जायें, यह जीवन की कोई कम उपलब्धि नहीं है। विशेषज्ञों की मानें तो पोलैण्ड में बुजुर्ग दम्पत्तियों को सम्मानित करने या पुरस्कार से अलंकृत करने की यह कोई नई परम्परा नहीं है। पोलैण्ड ने करीब पचास-पचपन वर्ष पहले 1960 में परम्परा की नींव रखी थी।
पोलैण्ड में सालाना करीब पैंसठ हजार बुजुर्ग दम्पत्तियों को राष्ट्रपति मेडल से अलंकृत किया जाता है। पोलैण्ड सरकार का यह प्रोत्साहन पारिवारिक माहौल बेहतर बनाने की दिशा में एक सार्थक प्रयास या कोशिश है। अमेरिका भी अपने बुजुर्ग दम्पत्तियों का ख्याल रखने में पीछे नहीं है। अमेरिका बुजुर्ग दम्पत्तियों को शादी की गोल्डन जुबली पर शुभकामना संदेश भेजता है। उनको यह शुभकामना संदेश राष्ट्रपति भवन व्हाइट हाउस से भेजा जाता है। ब्रिाटेन में भी बुजुर्ग दम्पत्तियों को सम्मान दिया जाता है। ब्रिाटेन में शादीशुदा जीवन के छह दशक पूर्ण करने पर महारानी की ओर से शुभकामना संदेश भेजा जाता है। राजवंश से महारानी एलीजाबेथ द्वितीय को भी दाम्पत्य जीवन के 60 वर्ष पूरे करने पर शुभकामनायें दी गयीं।
समाजवाद की अवधारणा पर चलने वाला रोमानिया बुजुर्ग दम्पत्तियों में महिलाओं का खास ख्याल रखता है। ऐसा नहीं है कि बुजुर्ग पुरुष दम्पत्ति की उपेक्षा की जाती हो लेकिन रोमानिया बुजुर्ग दम्पत्ति महिला को आर्डर आफ मदर हीरो के खिताब से अलंकृत करती है। साफ जाहिर है कि महिलायें मान-सम्मान हासिल करने में किसी से पीछे नहीं हैं। सम्मान होना भी चाहिये क्योंकि महिलाओं के बिना एक सार्थक दुनिया की कल्पना भी नहीं की जा सकती। समाज हो या परिवार, महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
प्रकाशन तिथि 20.12.2016
प्रकाशन तिथि 20.12.2016
रोशनी जो आपका मूड बदल दे
लाइफ कलर्स से लबरेज हो तो फिर क्या बात है...? कलरफुल लाइफ स्टाइल हो तो फिर क्या कहने... देखने वाले बस देखते ही रह जायें। व्यक्तित्व विकास की बात हो तो केवल फैशनेबल कपड़ों तक ही सीमित नहीं रहा जा सकता। लाइफ में लाइट्स का टच आ जाये तो इमोशंस ब्यूटी को आैर भी अधिक बढ़ा देते हैं। देश-दुनिया की लाइट्स रेसेज पर गौर करें तो पायेंगे कि लाइट्स के शेड्स न केवल आकर्षक होते हैं बल्कि लुभाते भी खूब हैं। अब आप खुद ही देखिये शादी विवाह या अन्य मांगलिक उत्सव-पर्व पर चकाचौंध रोशनी के इंतजाम होते हैं। बस लाइट्स के शेड्स कलर्सफुल हो जाते हैं तो सजावट व आगंतुकों के अंदाज ही अलग दिखते हैं। लाइट शेड्स से शायद ही कोई क्षेत्र छूटा हो क्योंकि लाइट्स के शेड्स स्थान की निर्जीवता में जीवंतता डाल देते हैं। लाइफ स्टाइल की बात करें तो घर-घरौंदा या आशियाना हो या फिर आपका वर्किंग प्वाइंट हो.... लाइट्स के शेड्स ऐसे होने चाहिये, जो आपका मूड दिलचस्प बना दें।
यह कहा जाये कि आपका मूड बदल दे तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। एक जमाना था, बल्ब हो ट्यूबलाइट दूधिया या सामान्य रोशनी देने वाली ही होती थी लेकिन आज यह सब मायने बदल चुके हैं। लाइट्स की दुनिया में अनके करिश्माई अविष्कार हुये तो वहीं लाइट्स ने लालित्य व सौन्दर्य में चार चांद भी लगाये। बात चाहे लाल, हरा, पीला व सुनहरा रंग से परिवेश को सौन्दर्य को लबरेज करने की हो फिर बैंगनी व डार्क कलर्स वाली लाइट्स की हो, सभी लाइट्स का अपना एक अलग व विशेष महत्व होता है। विशेषज्ञों की मानें तो लाल रंग जोशीला होता है तो वहीं हरा व श्वेत मन-मस्तिष्क को शांति व शीतलता देता है। रोशनी से जीवन रोशन होता है। मन के अनुकूल रोशनी होने से खराब मूड़ भी प्रफुल्लित हो उठता है। अब आप देखेंगे कि ज्वैलर्स शोरूमस में रोशनी के बेहतर व विशिष्ट इंतजाम होते हैं जिससे ज्वैलरी का एक एक बारीक से बारीक कण आपको सौन्दर्ययुक्त दिखे। साफ जाहिर है कि निश्चित रूप से रोशनी से लबरेज शोरूम आपको आकर्षित करते होंगे।
मेगाटाउन्स के मेगामॉल्स को देखिये कलर्सफुल लाइटस से चकाचौंध व लबरेज दिखते हैं क्योंकि लाइट्स शेड्स या रोशनी के अंदाज आपको बरबस आकर्षित करेंगे। लिहाजा मॉल्स में आने वाले ग्राहकों की संख्या बढ़ेगी। जर्मन की लाइट कम्पनी लिश्टेरॉयम रोशनी की आधुनिक व्यवस्थाओं पर लम्बे समय से काम कर रही है। विशेषज्ञों की मानें तो कलर्स लाइट्स के शेड्स से रोगों का इलाज भी संभव है क्योंकि लाइट्स के शेड्स मन के अनुकूल होने पर प्रफुल्लित रखेंगे लिहाजा प्रफुल्लित मन तन को स्वस्थ्य करने में सहायक होगा। देश दुनिया में रोशनी के क्षेत्र में तमाम बदलाव एवं शोध हो रहे हैं। अब आप घर-आशियाना में रोशनी के अनुकूल प्रबंध कर परिवेश को बेहतर बना सकते हैं। बात चाहे बेडरूम की हो या फिर ड्राइंग रूम की हो रोशनी के अलग अंदाज तो दिखने ही चाहिए क्योंकि इससे लाइफ स्टाइल में कहीं न कहीं कुछ चेंज आपको अवश्य दिखेगा। भले ही इसमें कुछ वक्त लग जाये।
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भूख से गरीब बेहाल अरबों का भोजन बर्बाद
'कॉमनमैन" की शक्ति-पॉवर को कम नहीं आंकना चाहिए क्योंकि 'कॉमनमैन" ही देश-दुनिया में इंकलाब लाता है। चाहे सिल्वर स्क्रीन की फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस" का डॉयलॉग 'डोंट अण्डर स्टीमेट द पॉवर ऑफ कॉमनमैन" हो या किसी राजनीतिक मंच से 'आम आदमी" की बात की जा रही हो। राजनीतिक मंच हो या फिर सिल्वर स्क्रीन की फिल्म हो.... 'कॉमनमैन" के लिए 'डॉयलॉग" तो अच्छा लगता है। फिल्म के दर्शक हों या फिर राजनीतिक मंच के श्रोता हों.... तालियां खूब बजाते हैं.... वाह-वाह भी खूब होती है लेकिन अफसोस 'कॉमनमैन" की दशा-दिशा से समाज से लेकर सरकार तक सभी बेपरवाह दिखते हैं क्योंकि यदि समाज-सरकार की बेपरवाही न होती तो देश-दुनिया में करोड़ों बाशिंदे भूखे या आधे पेट खाना खाकर न सोते।
भूख से गरीब बेहाल अरबों का भोजन बर्बाद
'कॉमनमैन" की शक्ति-पॉवर को कम नहीं आंकना चाहिए क्योंकि 'कॉमनमैन" ही देश-दुनिया में इंकलाब लाता है। चाहे सिल्वर स्क्रीन की फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस" का डॉयलॉग 'डोंट अण्डर स्टीमेट द पॉवर ऑफ कॉमनमैन" हो या किसी राजनीतिक मंच से 'आम आदमी" की बात की जा रही हो। राजनीतिक मंच हो या फिर सिल्वर स्क्रीन की फिल्म हो.... 'कॉमनमैन" के लिए 'डॉयलॉग" तो अच्छा लगता है। फिल्म के दर्शक हों या फिर राजनीतिक मंच के श्रोता हों.... तालियां खूब बजाते हैं.... वाह-वाह भी खूब होती है लेकिन अफसोस 'कॉमनमैन" की दशा-दिशा से समाज से लेकर सरकार तक सभी बेपरवाह दिखते हैं क्योंकि यदि समाज-सरकार की बेपरवाही न होती तो देश-दुनिया में करोड़ों बाशिंदे भूखे या आधे पेट खाना खाकर न सोते।
राजनीतिक गलियारों के विशेषज्ञों की मानें तो देश में दस वर्ष के दौरान पांच लाख बाशिंदे भूख से मर गये। अब सरकार की नजर से देखें तो भी दस वर्ष में 2.10 लाख लोग भूख से मर गये। भारत भले ही दुनिया में तीसरी महाशक्ति के तौर पर उभरा हो लेकिन हकीकत यह है कि भारत ने भुखमरी में पाकिस्तान व श्रीलंका को भी पीछे छोड़ दिया। विशेषज्ञों की मानें तो देश का 44 प्रतिशत बचपन भुखमरी का शिकार है। ऐसा नहीं है कि देश-दुनिया में खाद्यान्न का कहीं कोई गंभीर संकट खड़ा है जिससे आबादी को खाना नहीं मिल रहा है। हालात यह हैं कि दुनिया में सालाना एक अरब तीस टन भोजन-खाना बर्बाद हो जाता है।
देश में ही 50 से 60 करोड़ धनराशि का खाना सालाना बर्बाद चला जाता है। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि बर्बाद होने वाले खाने से कितने लोगों का खाली पेट भरा जा सकता है। भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है। हालांकि दिल्ली में 'इण्डिया फूड बैंकिंग नेटवर्क" शुरू किया गया है लेकिन इसकी सार्थकता तो तभी है, जब भूख से तड़पते-मरते गरीब का पेट भरा जा सके। अब विशेषज्ञों की मानें तो शादी, विवाह, साामाजिक कार्यक्रमों की दावतों में पन्द्रह से बीस प्रतिशत खाना बर्बाद हो जाता है।
खाना-भोजन की इस बर्बादी को रोका जा सकता है। एक बेहतर नेटवर्किंग के जरिये बर्बाद होने वाले खाना से गरीब-मजदूर-लावारिस, बेसहारा, बच्चों-बड़ों-बूढ़ों का पेट भरा जा सकता है। इससे भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है। हालांकि मौत होने पर तर्क दिया जाता है कि गर्मी में मौत लू लगने से हो गयी तो सर्दी में तर्क दिया जाता है कि मौत सर्दी लगने से हो गयी लेकिन चिकित्सा वैज्ञानिकों की मानें तो सर्दी हो या गर्मी खाली पेट होने पर लू भी लगेगी आैर सर्दी भी लगेगी, जिससे मौत भी हो सकती है। साफ जाहिर है कि मौतें भूख से होती है लेकिन उत्तरदायित्व से बचने के लिए तर्क तो दिये ही जा सकते है। अफसोस भूख से होने वाली मौत को रोकने के लिए अभी तक कोई भी सार्थक उपाय नहीं किये गये। हालांकि भोजन की बर्बादी को रोक कर कुपोषण व भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है। भूख से होने वाली मौतों को रोका नहीं जा सकता तो कम से कम इसे न्यूनतम अवश्य किया जा सकता है।
आवश्यक है कि फूड़ बैंक की ऐसी व्यवस्था बने जो शादी-विवाह व अन्य सार्वजनिक समारोह की दावतों में बर्बाद होने वाले भोजन को बर्बाद होने से बचा सके। इसके लिए एक संचार संसाधनों से युक्त बेहतर नेटवर्क बनना चाहिए। शादी-विवाह, सार्वजनिक समारोह की दावतों का भोजन बचने की सूचना समय से फूड़ बैंक को दी जाये जिससे फूड़ बैंक उसे संग्रहित कर संरक्षित कर ले। फूड़ बैंक में व्यवस्थित स्टोर्स हों, जहां भोजन को खराब होने से बचाया जा सके। इन फूड़ स्टोर्स से जरुरतमंदों को भोजन उपलब्ध कराया जाना सुनिश्चित किया जाये। इससे भोजन की बर्बादी भी रुकेगी आैर जरुरतमंद व्यक्ति-परिवारों तक भोजन पहंुच सकेगा। प्रकाशन तिथि 15.12.2016
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मंगलामुखी का आशीर्वाद
शिक्षा-दीक्षा व्यक्ति को संस्कारवान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निवर्हन करती है लेकिन देश में समाज के 'मंगलामुखी" किन्नरों के कल्याणार्थ कोई व्यापक या समग्रता वाली रीति-नीति नहीं दिखती जिससे किन्नर समाज खुद को सामाजिक व आर्थिक रूप से सुरक्षित महसूस करते। सवाल उठता है कि सर्वसमाज के कल्याण व मंगल की कामना करने वाले 'मंगलामुखी" किन्नरों के दु:ख-दर्द को कौन समझेगा...? जी हां, किन्नरों के दु:ख-दर्द को समझने के लिए संवेदना होनी चाहिए क्योंकि बिना संवेदना किसी भी व्यक्ति के दु:ख-दर्द को समझा जाना नहीं जा सकता।
'बीच" वाला कह कर अक्सर लोग-बाग 'मंगलामुखी" किन्नरों पर व्यंग्यबाण कसने से नहीं चूकते लेकिन कभी उनकी तकलीफों व पीड़ा को महसूस करने की जहमत नहीं उठाते क्योंकि तकलीफों को महसूस करने के लिए दिल में एक 'चुटकी संवेदना" होनी चाहिए। 'अभिजात्य" वर्ग से लेकर 'कॉमनमैन" तक को एक बार चिंतन अवश्य करना चाहिए कि आखिर 'मंगलामुखी" किन्नरों को समाज की मुख्यधारा से कैसे जोड़ा जाये जिससे वह समाज में सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार हासिल कर सकें। केन्द्र सरकार हो या फिर देश की राज्य सरकारें हों... सभी को किन्नरों की शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य की रीति-नीति तय करनी चाहिए, जिससे वह समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकें।
व्यवसाय से लेकर आवास उपलब्ध कराने की दिशा तय करनी चाहिए जिससे उनमें स्वावलम्बन की भावना विकसित हो सके। हालांकि ऐसा नहीं हैं कि देश में 'मंगलामुखी" किन्नरों के लिए कुछ नहीं हो रहा है लेकिन प्रयास पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि किन्नर समाज देश के गांव-गिरांव से लेकर मैट्रोपोलिटेन सिटीज तक फैला हुआ। हालांकि किन्नरों की शिक्षा-दीक्षा व व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए बरेली में 'आस" नाम से स्कूल के रूप में सहपुर्नवास केन्द्र खोल गया है। इस स्कूल में सामान्य शिक्षा के साथ साथ रोजगारपरक व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। 'आस" से उनको उज्जवल भविष्य की रोशनी तो मिलेगी लेकिन यह रोशनी देश में फैलनी चाहिए क्योंकि तभी किन्नर समाज का अपेक्षित कल्याण हो सकेगा।
देश में किन्नरों की संख्या नौ से दस लाख अनुमानित है लेकिन अधिसंख्य किन्नर अशिक्षा के अंधकार में भटकते दिखते हैं क्योंकि इनकी शिक्षा के लिए कोई व्यापक प्रबंध केन्द्र व राज्य सरकारों की रीतियों-नीतियों में नहीं दिखते। हालांकि इनको देश में मतदान से लेकर चुनाव लड़ने का अधिकार हासिल है। इसके बावजूद किन्नरों को समाज में हेय या तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है। फिलहाल किन्नर नाच-गा कर या बधाई देकर नजराना पाकर अपना गुजर-बसर करते हैं। तमिलनाडु में राशनकार्ड में इनका अपना एक अलग वजूद दिखता है तो केन्द्र सरकार ने पासपोर्ट में इनके लिए एक अलग कॉलम निधार्रित किया है। इतना ही नहीं भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने देश के साढ़े बारह हजार से अधिक किन्नरों को 'आधार कार्ड" जारी कर एक पहचान देने की सार्थक कोशिश की है।
अभी हाल ही में पाकिस्तान ने किन्नरों को चुनाव में मत देने का अधिकार दिया है। सागर में आयोजित किन्नर सम्मेलन में देश भर से जुटे किन्नरों ने केन्द्र सरकार से एक स्वर से मांग की थी कि केन्द्र सरकार 'किन्नर आयोग" का गठन करे जिससे किन्नरों के हितों की रक्षा हो सके। अभी कुछ समय पहले लखनऊ नगर निगम की कार्यकारिणी ने फैसला लिया था कि किन्नरों का स्वास्थ्य परीक्षण कर पहचान-पत्र जारी करेगा। इतना ही नहीं नगर निगम के स्कूलों में किन्नरों को निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जायेगी। यह एक अच्छी व रचनात्मक पहल है। सरकारी नौकरियों में किन्नरों को आरक्षण देने का फैसला भी कार्यकारिणी ने लिया है लेकिन नगर निगम कार्यकारिणी का यह फैसला तभी लागू हो सकेगा, जब शासन भी इस पर अपनी मुहर अंकित करेगा। इसके बावजूद किन्नरों के लिए रीति-नीति निर्धारित करने की आवश्यता है जिससे मंगलामुखी किन्नर राष्ट्र व समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकें।
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महिलाओं को मिले उन्मुक्त वातावरण
इच्छाशक्ति से ही मिलेंगी अपनत्व की छांव.... बहू में देखें बेटी की छवि
महिलाओं-बालिकाओं के साथ आखिर हिंसा क्यों...? यह सवाल सहज मन-मस्तिष्क में उठना स्वाभाविक है।
चाहे तेजाबी हमलों की हो या बालिकाओं के साथ दुराचार की हो या फिर मानसिक उत्पीड़न की हो। एक सभ्य समाज में चिंता-चिंतन-विमर्श होना लाजिमी है। सवाल उठता है कि आखिर यह सब रुक क्यों नहीं सकता। बालिकाओं-महिलाओं के साथ हिंसा कहीं न कहीं खुद को व्यथित-चिंतित अवश्य करती है क्योंकि हम भी तो किसी बेटी के पिता या किसी बहन के भाई होते हैं। बेटी की शादी में पिता अपनी इच्छाशक्ति व आर्थिक सामर्थ को ध्यान में रख कर बहुत कुछ दान-दहेज में देता है लेकिन सामने खड़े व्यक्ति की अपेक्षाएं कहीं अधिक बढ़ जाती हैं आैर विवशता का फायदा उठाने की कोशिश होती है तो पिता की अंतरआत्मा कचोटने लगती है, बस यहीं पर 'बेटियां अभिशाप" लगने लगती हैं क्योंकि अंदर ही अंदर एक भय भी सताने लगता है कि अपेक्षाएं पूरी न की गयीं तो बेटी का उत्पीड़न होगा।
उच्चतम न्यायालय से लेकर सरपंच की चौपालों तक बालिका-महिला हिंसा के प्रसंग उठते-सामने आते हैं। न्यायापालिका सख्ती भी करती है आैर सरपंच फैसले भी सुनाते-लेते हैं। इसके बावजूद जमीनी हकीकत यह है कि बालिकाओं-महिलाओं को उनके अपने ही घरों में एक संशय घेरे रहता है। कई बार बालिकाओं-महिलाओं का सौन्दर्य भी उनके लिए एक अघोषित दुश्मन हो जाता है। यह सौन्दर्य ही उनके सर्वाधिक असुरक्षित होने का कारण बन जाता है। बालिकाओं-महिलाओं पर तेजाबी हमलों पर गौर करें तो पायेंगे कि अमुक युवक या व्यक्ति किसी युवती को हासिल करना चाहता था लेकिन विफल होने पर उसने तेजाब का हमला कर दिया। आंकड़ों के फलसफे को देखेंगे तो पायेंगे कि अधिकतर मामलों में हासिल करने में विफल रहने पर बालिका-महिला पर तेजाब का हमला किया गया। फलस्वरूप बालिका-महिला के सौन्दर्य की आभा या रंगत बदल चुकी होती है। अब उसे भले ही जुर्माने के तौर पर बड़ी धनराशि मिल जाये आैर दोषी को कड़ी से कड़ी सजा हो जाये लेकिन भुक्तभोगी बालिका-महिला के अन्त:र्मन को कैसे समझा पायेंगे....? सौन्दर्य की क्षतिपूर्ति क्या इतना आसान है.... ? भले ही प्लास्टिक सर्जरी से सौन्दर्य की पूर्ववत आभा लाने की कोशिश की जाये तो क्या तेजाबी हमले की टीस को बालिका-महिला इतनी आसानी से भूल सकती है।
महिला हिंसा-उत्पीड़न की रोकथाम के लिए कानून भी बनने चाहिए आैर उनका सख्ती से पालन भी होना चाहिए लेकिन एक सभ्य समाज को भी तो अपने उत्तरदायित्व समझने चाहिए। भारतीय संस्कृति व सभ्यता कहीं नहीं कहती कि बालिकाओं-महिलाओं के साथ हिंसा हो या हिंसा करो। फिर हम क्यों भारतीय संस्कृति व सभ्यता की दुहाई देते हैं। हमें अपने आचरण, सोच, चिंतन-विमर्श में सकारात्मक बदलाव लाना चाहिए। गुलाब के फूल का सौन्दर्य व लालित्य आकर्षक व लुभावना होता है लेकिन उसके साथ छेड़छाड़ करते ही उसकी पंखुड़ियां बिखर जाती है। बाल विवाह की रोकथाम के लिए कानून बना तो दो साल की सजा व एक लाख जुर्माना का प्रावधान किया गया लेकिन उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र सहित देश के तमाम राज्यों में बाल विवाह को नहीं रोका जा सका। कारण देश की व्यवस्था ने कानून तो बना दिये लेकिन समाज का मानसिक बदलाव नहीं कर सके। समाज की मनोवृत्ति को बदले बिना कानून को लागू करना आसान नहीं होता। बात चाहे तेजाबी हमले की हो या फिर बाल विवाह, जबरन विवाह, घरेलू हिंसा या फिर आर्थिक भेदभाव की हो, समाज को अपनी सोच तो बदलना ही होगा।
विशेषज्ञों की मानें तो कन्या भ्रूण हत्या से लेकर दुष्कर्म तक के मामलों को देखें तो पायेंगे कि देश में दस करोड़ से अधिक घटनाएं हर साल होती हैं। अब इसमें कोई पीड़िता कानून तक पहंुच पाती है या नहीं। इसका कहीं कोई लेखा जोखा नहीं है। इसमें बालिकाओं-महिलाओं की तस्करी भी शामिल है। बालिकाओं-महिलाओं की तस्करी के लिए गरीबी, अशिक्षा व पिछड़ापन एक बड़ा कारण है। बालिकाओं व महिलाओं का एक बड़ा तबका कभी धोखाधड़ी तो कभी भूख मिटाने की विवशता उनको वेश्यालयों तक पहंुचा देती है। विशेषज्ञों की मानें तो देश में 2010 में आठ हजार से अधिक बालिकाओं व महिलाओं की खरीद-फरोख्त हुयी। पश्चिम बंगाल बालिकाओं-महिलाओं की खरीद फरोख्त का एक बड़ा केन्द्र माना जाता है। पश्चिम बंगाल से 2009 में 2500 से अधिक बालिकाएं गायब हुयीं। कारण बीस प्रतिशत से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। घर-परिवार में महिलाओं को अपेक्षित सम्मान कम ही मिलता है क्योंकि आर्थिक प्रबंध व व्यवस्था कर पुरुष प्रधान समाज खुद को महिलाओं की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ मान लेता है। हालात यह हैं कि देश में पांच करोड़ से अधिक बालिकायें-महिलायें अपने ही घर-परिवार में सुरक्षित नहीं रह पाती आैर हिंसा का शिकार होती हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि देश में ही बालिकाओं व महिलाओं के साथ हिंसा व उनका उत्पीड़न होता है। इस पर गौर करें तो महिला उत्पीड़न से लेकर तस्करी सहित अन्य तमाम मामलों में भारत दुनिया में चौथे स्थान पर है। दुनिया में महिलाओं पर सर्वाधिक उत्पीड़न अफगानिस्तान में होता है। इस मामले में अफगानिस्तान दुनिया में पहले नम्बर पर है। इसी तरह से पाकिस्तान दूसरे व सोमालिया पांचवे स्थान पर है। पडोसी देश चीन को देखे तो ऐसा नहीं है कि महिलाओं-बालिकाओं का उत्पीड़न नहीं होता। चीन में वर्ष 2011 में बालिकाओं-महिलाओं की तस्करी के अपराध में 3196 पकड़े गये। धरपकड़ में 8660 बच्चों व 15458 महिलाओं को मुक्त कराया गया। कहने का आशय है कि कानून बने तो सख्ती से पालन भी हो। महिला मंच की अध्यक्ष व सखी केन्द्र की महामंत्री श्रीमती नीलम चतुर्वेदी का कहना है कि बालिकाओं व महिलाओं को हिंसात्मक हमलों से बचाने के लिए समाज को पितृ सत्ता की सोच को बदलना होगा। महिलाओं को उपभोग की वस्तु नहीं समझा जाना चाहिए। महिलाओं के मामले में समाज को उपभोक्तावादी संस्कृति से हट कर सोचना चाहिए। इसके साथ ही एक सांस्कृतिक क्रांति की जरुरत है। इसके बिना महिलाओं को एक उन्मुक्त वातावरण नहीं दिया जा सकता। प्रकाशन तिथि 27.11.29016
सामाजिक चिंतन-मंथन :
विधवाओं के चेहरों पर मुस्कान लायें
देश-दुनिया में भले ही महिला सशक्तीकरण पर लम्बी चौड़ी बहस चल रही हो या फिर महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने की दिशा में कोई पहल ही क्यों न हो.... इसकी सार्थकता तो तभी होगी जब समाज की उपेक्षित... बहिष्कृत... तिरस्कृत... एकाकी जीवन यापन करने वाली महिलाओं के आंसुओं को पोछ सकें।

विधवा महिलाओं को कहीं कुलटा तो कहीं डायन जैसे अभिशप्त शब्दों से भावनात्मक चोट पहंुचायी जाती है। 'विधवा जीवन को बिना अपराध के आजीवन कारावास" कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि महिला के विधवा होने में उसका कोई अपराध नहीं होता है लेकिन उसे वैधव्य को आजीवन कारावास की तरह झेलना होता है। विशेषज्ञों की मानें तो देश में करीब 12 प्रतिशत महिलाएं वैधव्य जीवन जीने को विवश हैं। इस तरह से देखा जाये तो देश में 14 से 15 करोड़ महिलाएं वैधव्य का शूल सहने को मजबूर हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश व राजस्थान सहित देश की अधिसंख्य राज्य सरकारें विधवाओं को जीवन के गुजर बसर के लिए 'विधवा पेंशन" के नाम पर कुछ राहत तो देती हैं लेकिन यह आर्थिक राहत उनके आंसुओं को पोछने में नाकाम साबित हो रही है। कारण सरकारी आर्थिक सहायता ठीक उसी तरह से है जैसे 'नौ दिन चले अढ़ाई कोस...." मसलन समय पर आवश्यकताओं की पूर्ति न हो सके।
अब बात करें गैर सामाजिक संगठनों (एनजीओ) के उत्तरदायित्वों की तो अभी उनकी भूमिका कोई खास उल्लेखनीय नहीं दिखती। विशेषज्ञों की मानें तो देश में तीस लाख से अधिक एनजीओ अस्तित्व में हैं लेकिन विधवाओं के आंसुओं को पोछने में एनजीओ कहीं अधिक सक्रिय नहीं दिखते। हालांकि एनजीओ विधवाओं के आंसुओ को पोछने में अपनी खास भूमिका निभा सकते हैं। हालांकि 'सुलभ आंदोलन" ने विधवाओं के चेहरों पर मुस्कान लाने की एक सार्थक कोशिश की है। 'सुलभ आंदोलन" ने इस दिशा में राष्ट्रव्यापी रेखांकन किया। विशेषज्ञों का एक समूह देश की विधवा महिलाओं को राहत देने से लेकर उनको संरक्षण देने सहित तमाम बिन्दुओं को समाहित करते हुए कानून बनाने-बनवाने की पहल की है। यह एक कटु सत्य है कि वैधव्य का दारुण दु:ख कम नहीं किया जा सकता लेकिन उनके चेहरों पर मुस्कान लाने व उनको आर्थिक स्वावलम्बन देने की सार्थक कोशिश की जा सकती है। इस दिशा में 'सुलभ आंदोलन' ने एक सार्थक कोशिश या पहल की है। 'सुलभ आंदोलन" ने उत्तर प्रदेश के वृंदावन की आठ सौ से अधिक विधवा महिलाओं को जीवन की मुख्य धारा में लाने की एक सार्थक पहल की है। सुलभ आंदोलन प्रति माह एक विधवा को दो हजार रुपये की आथिक सहायता बतौर अनुग्रह राशि उपलब्ध करा रहा है। जिससे विधवा महिलाएं अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति कर सकें।
'सुलभ आंदोलन" विधवा महिलाओं को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के साथ-साथ उनको पढ़ाना लिखाना व व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दे रहा है जिससे वह स्वावलम्बी बन सकें। जिससे उनको भूखे पेट सोने व भीख मांगने की दरकार न रहे। बनारस के विधवा आश्रमों में रह रही करीब डेढ़ सौ विधवा महिलाओं को अभी हाल ही में सुलभ आंदोलन ने आर्थिक सहायता देने व स्वावलम्बी बनाने के लिए गोद लिया है। बनारस की विधवाएं पढ़ना लिखना यानी ककहरा सीख रही हैं। वृंदावन हो या काशी बनारस.... विधवाओं को हिन्दी, अंग्रेजी व नेपाली भाषा लिखना पढ़ना सिखाया जा रहा है। इसके लिए बाकायदा विधवा आश्रम में शिक्षक नियुक्त किये गये हैं। सुलभ आंदोलन ने फिलहाल काशी बनारस के चार विधवा आश्रम इस पुनीत कार्य के लिए गोद लिये हैं। इन आश्रम में खास तौर से दुर्गा कुण्ड सरकारी महिला आश्रम, बिरला विधवा आश्रम, नेपाली मंदिर आश्रम व सारनाथ स्थित महिला अनाथाश्रम शामिल हैं। स्वास्थ्य सुरक्षा को ध्यान में रख कर अत्याधुनिक संसाधनों से लैस दो एम्बुलेंस भी उपलब्ध कराये गये हैं। जिससे उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का निदान भी सुनिश्चित हो सके। सुलभ आंदोलन के प्रणेता डाक्टर बिन्देश्वर पाठक का कहना है कि सुलभ इण्टरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन ने अपने सामाजिक उत्तरदांियत्व के तहत विधवाओं के जीवन स्तर को सुधारने व उनके चेहरों से बेचारगी का भाव हटाने का लक्ष्य लिया है।
फिलहाल अभी वृंदावन की विधवाओं पर सालाना तीन करोड़ व काशी बनारस की विधवाओं पर सालाना साठ लाख की धनराशि खर्च करने का प्रावधान किया है। हालांकि यह एक छोटी सी पहल है। देश के एनजीओ को इस दिशा में सार्थक पहल करनी चाहिए क्योंकि एनजीओ काफी कुछ कर सकते हैं। विधवाओं को संरक्षण देने व उनको आर्थिक स्वावलम्बन की दिशा में वर्ष 2006 में एक सांसद ने लोकसभा में विधवाओं के संरक्षण, कल्याण व गुजारा के लिए विधेयक पेश किया था लेकिन विधेयक के कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ सके। सुलभ आंदोलन ने इस दिशा में एक बार फिर पहल की है। 'विधवाओं के संरक्षण, कल्याण व गुजारा के लिए विधेयक" का रेखांकन किया जा रहा है। इसका रेखांकन सुलभ आंदोलन के कर्ताधर्ता डा. बिन्देश्वर पाठक के नेतृत्व में विशेषज्ञ दल कर रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता डा. बिन्देश्वर पाठक का कहना है कि मसौदा विधेयक (ड्राफ्ट बिल)लोकसभा अध्यक्ष को सौपंेगे। ताकि कानून बनाने की दिशा में यथाशीघ्र सार्थक पहल हो सके।
इस विधेयक को लागू कराने के लिए देश के सभी राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं से सम्पर्क कर सहयोग मांगा जायेगा। जिससे विधवाओं के पुर्नवास, पेंशन व सामाजिक सुरक्षा जैसी अहम व्यवस्थाएं सुनिश्चित हो सकें। इससे यह होगा कि विधवाएं खुद को समाज पर बोझ न समझेंगी आैर वह समाज व जीवन की मुख्य धारा में लौट सकेंगी। यहां यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि समाज में समाजसेवा करने वालों की कहीं कोई कमी नहीं है लेकिन इस दिशा में अपेक्षित व सार्थक कोशिश का अभाव दिख रहा है अन्यथा कोई वजह नहीं है कि दीनहीन दुखियारी विधवा महिलाओं के चेहरों पर मुस्कान न लायी जा सके। देश में भामा शाह व धनकुबेरों की भी कहीं कोई कमी नहीं है लेकिन कहीं न कहीं इच्छाशक्ति में कमी अवश्य है जिससे विधवाओं के जीवन की तस्वीर नहीं बदल पा रही है। धनकुबेरों, भामा शाहों व समाज के पुरोधाओं को इस दिशा में आगे आकर सार्थक पहल करनी चाहिए जिससे विधवाओं का जीवन रंगहीन न रहे।
प्रकाशन तिथि 29.11.2016
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