Wednesday, 30 November 2016

अब सड़कें बनेंगी चार्जर दौड़ेगे इलेक्ट्रिक वाहन 

       देश में मंहगाई के तीखे झटके अक्सर गांव-गिरावं से लेकर मेगासिटीज के बाशिंदों को लगते रहते हैं। खास तौर से देखा जाये तो पेट्रोल व डीजल की कीमतों में दो साल में एक दर्जन बार इजाफा हुआ। हालांकि इसके बावजूद देश में पेट्रोल व डीजल चलित वाहनों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी। पेट्रोल व डीजल की कीमतों में इजाफा होने से वाहनों के संचालक व चालक कुछ तनाव में अवश्य आ जाते हैं। आटोमोबाइल इण्डस्ट्री के इंजीनियर्स ने पेट्रोल व डीजल की खपत से निजात दिलाने के लिए बैटरी-इलेक्ट्रिक चलित वाहनों की श्रंखला इजाद की। देश में बैटरी-इलेक्ट्रिक चलित वाहन सड़कों पर दौड़ने भी लगे। ऐसे वाहन चालकों के सामने एक बड़ी समस्या है कि यदि यात्रा के दौरान बैटरी डिस्चार्ज हो गयी तो समझो एक बड़ी मुसीबत सामने आ गयी। टेक्नॉलॉजी पर भरोसा करें तो भविष्य में इन दिक्कतों से वाहन चालकों को छुटकारा मिल सकेगा। दक्षिण कोरिया के इंजीनियर्स ने इलेक्ट्रिक टेक्नॉलॉजी से युक्त एक सड़क इजाद की है।

दक्षिण कोरिया की यह सड़क उपर से गुजरने वाले वाहनों को रिचार्ज करती है। हालांकि इलेक्ट्रिक टेक्नॉलॉजी वाली यह सड़क फिलहाल बारह किलोमीटर लम्बी बनायी गयी है लेकिन भविष्य में इसे अपेक्षित विस्तार दिया जायेगा। इंजीनियर्स मानते हैं कि दक्षिण कोरिया की यह इलेक्ट्रिक सड़क देश-दुनिया की रिचार्ज सिस्टम वाली पहली सड़क है। खास बात यह है कि वाहन को रिचार्र्ज करने के लिए सड़क पर कहीं रुकने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि टेक्नॉलॉजी का सम्पूर्ण सिस्टम सड़क के अन्दर संचालित होता है। फिलहाल अभी इस सड़क पर दो सार्वजनिक बसों का संचालन किया जा रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो दो वर्ष की अवधि में इस सड़क पर दस आैर बसों को चलाया जायेगा। टेक्नॉलॉजी के इस सिस्टम को कोरिया की कोरिया एडवांस इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एण्ड टेक्नॉलॉजी के विशेषज्ञों ने तैयार किया है।

 हालांकि यह टेक्नॉलॉजी काफी खर्चीली व महंगी है लेकिन बैटरी-इलेक्ट्रिक चलित वाहन चालकों के लिए बेहद सहूलियत वाली है। इस टेक्नॉलॉजी से वाहनों से होने वाले वायु प्रदूषण को काफी हद तक रोका जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में इस टेक्नॉलॉजी की भारी संभावनाएं हैं। इससे जन स्वास्थ्य को भी कोई खतरा नहीं है। इस टेक्नॉलॉजी में बिजली के तारों को सड़क के नीचे सिस्टमेटिक तौर-तरीके से लगाया गया है। इसमें उपकरण भी लगाये गये हैं। यह सिस्टम विद्युत की चुम्बकीय धारा प्रवाहित करता है। वाहन के चार्ज होने वाले उपकरण को सड़क से कुछ अंतराल पर वाहन में स्थापित किया जाता है।

विशेषज्ञों की मानें तो इस सिस्टम के लिए पूरी सड़क न तो खोदने की आवश्यकता है आैर न पूरी सड़क में सिस्टम को लगाया जाता है। सिस्टम की पॉवर स्ट्रिप को सड़क के पांच से पन्द्रह प्रतिशत हिस्से में ही लगाया जाता है। हालांकि दक्षिण कोरिया की इस टेक्नॉलॉजी से पेट्रोल-डीजल पर निर्भरता भी कम होगी तो वहीं वायु प्रदूषण भी कम होगा। वाहन चालकों को तो सहूलियत रहेगी ही। इतना जरुर है कि इस टेक्नॉलॉजी से युक्त सड़कों के रखरखाव पर खास-विशेष ध्यान रखना पड़ेगा जिससे वाहन स्मूथली अपनी रफ्तार को कायम रख सकें। फिलहाल दक्षिण कोरिया के सार्वजनिक वाहन चालकों के लिए एक बड़ी खुशखबरी तो है ही। हालांकि इस टेक्नॉलॉजी को अपनाने में देश-दुनिया को अभी लम्बा वक्त लगेगा।

    



Monday, 28 November 2016

गंगा की निर्मलता एवं अविरलता :
चाहिए एक अंजुरी इच्छाशक्ति
राजनीतिज्ञ लें संकल्प, साफ करेंगे 'मोक्षदायिनी"


      'हिमालय" को न बचा सके तो शायद काफी कुछ खो देंगे....?  जी हां, पर्यावरण प्रेमियों व गंगा सेवकों की कसक तो यही बयां कर रही है क्योंकि हिमालय क्षेत्र व गंगधारा कंक्रीट की चपेट में दिख रही है। सुरम्य जल घाटियों वाले हिमालय क्षेत्र में विद्युत उत्पादन के लिए एक नहीं बल्कि असंख्य परियोजनाएं आकार लेते दिख रही हैं। 

जिससे उत्तराखण्ड का एक बड़ा इलाका विकास एवं विनाश की द्वंद में फंसा दिखायी दे रहा है। गंगा व उसकी सहयोगी नदियों मसलन मंदाकिनी, अलकनन्दा, यमुना, टौंस, पिंडर, काली, धौली, गौरी, रामगंगा व शारदा सहित अन्य छोटी-बड़ी नदियों पर 70 से अधिक बांध परियोजनाएं बलवती होते दिख रही हैं तो वहीं विद्युत परियोजनाओं के लिए पांच सौ से अधिक स्थल चिह्नित किये जा चुके हैं। अब ऐसे में देखा जाये तो गंगा-यमुना सहित अन्य नदियों का अस्तित्व ही खतरों में होगा। गंगा-यमुना कंक्रीट की सुरंगों में कैद होंगी.... ? शायद यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि इतनी लम्बी श्रंखला में बांधों का बनना निश्चित रूप से नैसर्गिक सौन्दर्य को तो नष्ट करेगा ही प्राकृतिक संसाधनों कोे भी खत्म कर देगा। 

कंक्रीट का जंगल बढ़ेगा तो निश्चित मानिए कि पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि पेड़-पौधे कटेंगे तो पर्यावरण का एक गम्भीर संकट खड़ा होगा। कल्पना करें कि पेड़-पौधे खत्म हो जायेंगे तो परिवेश कैसा होगा....? नदियां कंक्रीट की सुरंग में कैद होंगी तो आक्सीजन का प्रवाह न्यूनतम हो जायेगा। यह स्थिति न तो बाशिंदों के लिए सुखकर होगी न जलीय जीवों के हित में होगी। हिमालय संरक्षण, गंगधारा की अस्तित्व रक्षा व पर्यावरण का हनन न होने देने के लिए पर्यावरण  मर्मज्ञ सुन्दर लाल बहुगुणा के संघर्ष को देश के बाशिंदे अभी भूले नहीं होंगे। गंगा रक्षा में स्वामी निगमानन्द के प्राण चले गये। गंगा सेवा अभियानम के गंगा रक्षा आंदोलन में प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल (स्वामी सानन्द), साध्वी पूर्णाम्बा, साध्वी शारदाम्बा, ब्राह्मचारी कृष्णप्रियानन्द सहित दर्जनों साधु-संतों ने लम्बे समय तक अनशन,उपवास एवं तप किया लेकिन आंदोलन के कोई सार्थक परिणाम नहीं दिखे जिससे गंगा की अविरलता एवं निर्मलता गोमुख से गंगासागर तक दिखती।

 हालांकि गंगा रक्षा का यह आंदोलन न तो खत्म हुआ आैर न शांत हुआ। हां, इतना अवश्य हुआ कि आंदोलन का स्वरूप अब कानूनी शिंकजा कसने की कोशिश करता दिख रहा है। गंगा सेवा अभियानम ने संकल्प लिया है कि व्यवस्था से जुड़े विभागों के खिलाफ एक हजार एक तहरीर देकर एफआईआर दर्ज करायेंगे। इसकी शुरूआत भी हुई। काशी के विभिन्न थानों में तहरीर दी गयीं। गंगा सेवक राम शंकर सिंह फोटोग्राफ्स के जरिए 'गंगा का दर्द " दो दशक से निरंतर बयां करते चले आ रहे कि गंगा कैसे मलिन व कलुषित होती जा रही है। इसकी रक्षा करो....। अब शायद यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि कहीं न कहीं गंगा रक्षा के लिए राजनीतिक क्षेत्र में चेतना आयी है क्योंकि कई राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं ने हस्ताक्षर कर देश के तत्कालीन (पूर्व) प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के सामने गंगा की व्यथा-कथा रखी भी। 

गंगा रक्षा के लिए आंदोलित गंगा सेवकों का मानना है कि टिहरी बांध को तोड़े बिना गंगा-यमुना व अन्य नदियों के अस्तित्व को नहीं बचाया जा सकता। भारत सरकार ने गंगा की मलिनता को खत्म करने का संकल्प लिया। गंगा पुर्नरुद्धार एवं जल संसाधन मंत्रालय ने योजनायें भी बनायीं लेकिन अभी तक कहीं कोई सार्थक परिणाम नहीं दिखे। गौरतलब है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना गंगा की निर्मलता एवं अविरलता लौटाना काफी कुछ मुश्किल नहीं बल्कि असंभव सा दिखता है। सामाजिक सोच में बदलाव भी गंगा की निर्मलता में अपना योगदान दे सकता है। कुल मिला कर एक समग्र प्रयास होना चाहिए जिससे गंगा की निर्मलता एवं अविरलता लौट सके।  प्रकाशन तिथि 28.11.2016  

                             

Tuesday, 22 November 2016

 अब 'नीली क्रांति" की कोशिश
  
     'हरित क्रांति" के बाद अब 'नीली क्रांति" लाने की कोशिश।  जी हां, अब देश के नीति-नियंता मछली पालन को बढ़ावा देने की कोशिश में हैं। लिहाजा जल कृषि उत्पादन में वृद्धि की रणनीति बनने लगी। भारत सरकार को विश्वास है कि मछली पालकों व किसानों को आर्थिक फायदा के रास्ते भविष्य में तेजी से खुलेंगे। भारत सरकार ने रणनीति तैयार की है। इसी रणनीति के तहत केन्द्रीय बजट में इसके लिए 1700 करोड़ धनराशि का प्रावधान किया गया है। विशेषज्ञों की मानें तो अब उचित खर्च-उचित आय। 

इसके तीन फायदे गिनाये जा रहे हैं। मछली पालन से किसानों को 'आय" का प्रत्यक्ष फायदा होगा तो वहीं देश का निर्यात बढ़ेगा। साथ ही देश की विकास दर में इजाफा होगा। विशेषज्ञों की मानें तो मछली पालन का व्यवसाय तेजी से नया आकार ले रहा है। फिलहाल देश में 150 लाख से अधिक किसान-काश्तकार मछली पालन व्यवसाय से जुड़े हैं। भारत विश्व में झींगा मछली पालन में पहला स्थान रखता है। झींगा मछली का विश्व के अनेक देशों को निर्यात किया जाता है। कृषि मंत्रालय की मानें तो वर्ष 2015-2016 में 10.8 मिलियन टन मछली उत्पादन हुआ। यह मछली उत्पादन विश्व के मछली उत्पादन का 6.4 प्रतिशत रहा। भारत जल कृषि उत्पादन में लगभग 6.3 प्रतिशत योगदान करता है।

 विश्व में मछली एवं मत्स्य उत्पादन में निर्यात दर आैसत 7.5 प्रतिशत रही जबकि भारत का यह प्रतिशत 14.8 रहा। विकास दर में भारत विश्व में पहले स्थान पर रहा। कृषि मंत्रालय ने 'नीली क्रांति" का संदेश दिया है। मंत्रालय ने विभिन्न योजनाओं का विलय कर तीन हजार करोड़ की एक छत्र योजना नीली क्रांति का एलान किया है। कोशिश है कि 2020 तक मत्स्य उत्पादन पन्द्रह मिलियन टन हो। जल कृषि के लिए लगभग 26869 हेक्टेयर क्षेत्र विकसित किया गया। इससे करीब 63372 मछुआरों को लाभ मिलेगा। इतना ही नहीं मछुआरा कल्याण के तहत 9603 मछुआरा आवास का निर्माण भी किया गया। कल्याण एवं व्यवसाय के लिए 20705 मछुआरों को प्रशिक्षण भी दिया गया। इतना ही नहीं पचास लाख मछुआरों को बीमा सहायता भी दी गयी।  
                                                          प्रकाशन तिथि 22.11.2016


Monday, 21 November 2016

गरीब को आवास एक बड़ी चुनौती !
    'सभी को आवास एक बड़ी चुनौती" ! जी हां, देश की आवाम को आवास उपलब्ध कराना किसी चुनौती से कम नहीं। भारत सरकार ने इस चुनौती को स्वीकार किया है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एलान किया है कि वर्ष 2022 तक सभी को आवास का प्रबंध किया जाएगा। भारत सरकार की कैबिनेट करीब आठ माह पूर्व ग्रामीण आवास योजना को स्वीकृति दे चुकी है। भारत सरकार ने इसे बाकायदा एक मिशन के तौर पर स्वीकार किया है। ताज नगरी आगरा में बाकायदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ग्रामीण आवास योजना का शिलान्यास कर गरीब के सपनों को पंख लगा दिये लेकिन क्रियान्वयन कैसा होगा ? नौकरशाहों की कार्यसंस्कृति सवालिया निशान खड़ा करती है। गरीब को आवास उपलब्ध कराना आैर गुणवत्तापरक आवास का होना.... यह किसी चुनौती से कम नहीं। आवास भी पर्यावरणीय, सुरक्षित एवं गुणवत्तापरक होंगे। भरोसा तो देश के प्रधानमंत्री यही दिला रहे हैं। यह आवास मंहगे भी नहीं होंगे बल्कि अत्यंत निम्नदर पर उपलब्ध होंगे।

जी हां, आवास की लागत भले ही कुछ हो लेकिन लाभार्थी को डेढ लाख से एक लाख पचास हजार में उपलब्ध होंगे। लाभार्थी चाहे तो आवास के लिए ऋण भी ले सकेगा क्योंकि योजना के तहत सत्तर हजार ऋण का भी प्रावधान किया गया है। विशेषज्ञों की मानें तो अब तक दो सौ डिजाइन तैयार किये जा चुके हैं। लक्ष्य भी मार्च 2019 तक एक करोड़ आवास तैयार करने का है। गरीब को मिलने वाले इन आवास में रसोई, बिजली का कनेक्शन, एलपीजी, स्नानघर, शौचालय आदि सहित सभी आवश्यक आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी।

भारत सरकार का मिशन '2022 तक सभी को आवास" है। ग्रामीण विकास मंत्रालय की मानें तो 2022 तक देश में तीन करोड़ आवास बनाने का लक्ष्य है। इसके लिए बाकायदा 81975 करोड़ की धनराशि का प्रावधान बजट में किया गया है। लागत में प्रांत सरकारों को भी सहयोग करना होगा। केन्द्र सरकार का अंशदान 60 प्रतिशत तो प्रांत सरकार का अंशदान 40 प्रतिशत होगा। पहाड़ी क्षेत्रों में भारत सरकार का अंशदान 90 प्रतिशत होगा तो प्रांत सरकार का अंशदान सिर्फ 10 प्रतिशत ही रहेगा। आवास का क्षेत्रफल बीस से पच्चीस वर्गमीटर तय किया गया है।

भारत सरकार की कोशिश होगी कि 2022 तक पांच करोड़ आवास तैयार करे। हालांकि प्रधानमंत्री के इस मिशन में गुणवत्ता से लेकर पर्यावरणीय परिवेश सहित कई चुनौतियां सामने होंगी। तो वहीं गरीब या ग्रामीण के सामने भी कम  चुनौतियां नहीं होंगी। आवास पात्रता के आधार पर उपलब्ध होंगे। आय से लेकर जाति प्रमाण पत्र व अन्य आैपचारिकतायें पूरी करना गरीब के लिए मुश्किल होगा। ऐसा नहीं है कि किसी गरीब एवं ग्रामीण को आवासीय लाभ नहीं मिलेगा लेकिन बहुसंख्यक गरीब-ग्रामीण इस लाभ से वंचित रहेंगे।                          प्रकाशन तिथि 21.11.2016

Saturday, 19 November 2016

 जल परिवहन के मजे लें

      मौसम कोई भी हो, जल क्रीड़ा-जल यातायात के मजे ही कुछ आैर होते हैं। जर्मन को जानना हो या सिंगापुर में सैरसपाटा करना हो तो जल यातायात का आनन्द लें। जर्मन में राइन सहित करीब आधा दर्जन नदियों की शानदार जल श्रंखला है। यह नदियां यातायात की एक बेहतरीन कड़ी हैं। करीब सात हजार किलोमीटर लम्बी नदियों की इस श्रंखला से जर्मन के दर्शन किये जा सकते हैं। इसी तरह से सिंगापुर में वॉटर पार्कों की बहुतायत है। सिंगापुर में जलधाराओं को मनोरंजन के साथ साथ यातायात के रूप में भी उपयोग किया जाता है। देश में भी जल यातायात के नये आयाम की खोज-बीन हो रही है।

 हालांकि ऐसा नहीं है कि देश में जल पार्कों, जल यातायात व नदियों की कहीं कोई कमी है। वैसे देखें तो जर्मन की तुलना में देश में कहीं अधिक लम्बे जल यातायात की व्यवस्थायें दिखती हैं। जल यातायात में घूमने-फिरने का भी आनन्द है आैर सफर भी आसान रहता है क्योंकि जल यातायात में कहीं कोई ट्रैफिक जाम का संकट नहीं होता। इसके साथ ही जल परिवहन व्यवस्था पर्यावरण के काफी कुछ अनुुकूल भी होती है। विशेषज्ञों की मानें तो देश में चौदह हजार पांच सौ किलोमीटर लम्बी जल परिवहन की व्यवस्थायें हैं। जल परिवहन की यह व्यवस्थायें खास तौर यात्रियों के आवागमन के साथ साथ माल ढ़ोने का काम भी जल क्षेत्र से होता है। जल परिवहन की व्यवस्थाओं वाले क्षेत्रों में खास तौर से असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, मुम्बई, गोवा व केरल आदि इलाके खास तौर से माने जाते हैं। दक्षिण भारत  में केरल सहित कई इलाकों में नौकायन के मजे लिये जा सकते हैं। इन इलाकों में नौकाओं की दौड़-प्रतियोगिताओं के आयोजन भी अक्सर होते रहते हैं। देश की बड़ी नदियों में सुमार होने वाली ब्राह्मपुत्र में भी सादिया से घाबरी तक करीब नौ सौ किलोमीटर लम्बी जल परिवहन व्यवस्था है। इसी तरह से दक्षिण भारत में कोल्लम से कोट्टापुरम तक करीब दो सौ पांच किलोमीटर लम्बा जल परिवहन क्षेत्र है। भारत सरकार जल परिवहन व्यवस्थाओं को एक नया आयाम देने पर विमर्श-मंथन कर रही है। जिससे जल परिवहन व्यवस्थाओं को विस्तार दिया जा सके। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से हल्दिया तक गंगा नदी में करीब 1620 किलोमीटर लम्बा जल परिवहन मार्ग विकसित होने की संभावना है।

 इससे एक बार फिर गंगा की गोद में जल तरंगों का भरपूर आनन्द ले सकेंगे। विशेषज्ञों की मानें तो जल परिवहन मार्ग बनाने में करीब बीस हजार करोड़ से अधिक धनराशि खर्च की जायेगी। हालांकि ऐसा नहीं है कि गंगा नदी में कोई पहली बार जल परिवहन की व्यवस्था को आयाम देने की कोशिश की जा रही है क्योंकि ब्रिाटानिया हुकूमत में एशिया की आैद्योगिक राजधानी कानपुर से पश्चिम बंगाल तक जल परिवहन की व्यवस्थायें चलती थीं। चूंकि कानपुर में कपड़ा मिलें बहुतायत में थीं। गंगा नदी के जल मार्ग से कानपुर से कपड़ा कलकत्ता भेजा जाता था। काशी-बनारस में तो सैकड़ों नाव-स्टीमर्स का काफिला गंगा की गोद में अनवरत जल तरंगों के साथ अठखेलियां करता रहता है। देश-दुनिया के लाखों पर्यटक गंगा में नौकायन का आनन्द-लुफ्त उठाने सालों-साल से आते रहते हैं। नोएड़ा हो या लखनऊ, देश के सभी बड़े शहरों में वॉटर पार्कों में जलक्रीड़ा का आनन्द लिया जा सकता है।

कानपुर की शान, देश-विदेश में पहचान
  
       कानपुर की शान, देश-विदेश में पहचान। जी हां, उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर की शान से 'लाल इमली" मिल को नवाजा जाए तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। लाल इमली के कम्बल हों या कोई अन्य उत्पाद वस्त्र उद्योग एवं उपभोक्ताओं के बीच अपनी खास अहमियत रखते हैं। लाल इमली शहर की केवल एक मिल ही नहीं बल्कि एक इतिहास भी है। एशिया के मैनचेस्टर की आैद्योगिक ताकत का एहसास वाकई यह शहर कराता है। आैद्योगिक ताकत में लाल इमली मिल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लाल इमली मिल शहर के बाशिंदों को 'समय" की याद भी दिलाता-बताता है। करीब एक सौ चालीस वर्ष पहले 1876 में पांच अंग्रेज वी ई कूपर, जॉर्ज ऐलेन, गैविन एस जोंस, डाक्टर कॉडोन व बिवैन पेटमैन ने संयुक्त तौर पर एक छोटी सी मिल की स्थापना की थी। 

शहर के सिविल लाइंस में स्थापित एवं संचालित इस मिल ने धीरे-धीरे एक वृहद स्वरुप हासिल कर लिया। बताते हैं कि इसके संसद में एक विशेष कानून भी बना। लाल इमली मिल की स्थापना खास तौर से निर्बल एवं कमजोर तबके की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर की गई थी। मिल में सस्ते ऊनी कम्बल एवं शॉल सहित अन्य वस्त्र उत्पादन खासियत रही। इस मिल से गरीबों को आवश्यकताओं के लिए वस्त्र आदि रियायती दर पर उपलब्ध होते थे तो वहीं ब्रिाटिश सेना के सिपाहियों के लिए कम्बल बड़ी तादाद में बनते थे। विस्तार के साथ ही इसके उत्पाद देश-विदेश में बड़ी तादाद में भेजे जाते थे। इस मिल का नाम प्रारम्भ में कानपोर वुलेन मिल्स रखा गया। मिल परिसर में एक इमली का विशाल पेड़ हुआ करता था। शनै: शनै: इमली इस मिल की पहचान बन गयी। चूंकि शहर में अन्य मिलें भी थीं। लिहाजा इस मिल को इमली वाला मिल के तौर पर जाना-पहचाना जाने लगा। आम बातचीत में इमली वाला मिल आ गया। वर्ष 1910 में अचानक इस मिल में आग लग गई। मिल की नई इमारत गोथ शैली में लाल र्इंट (ब्रिाक्स) से बनाई गयी। 

लिहाजा इस मिल को 'लाल इमली" की नई इबारत मिल गयी। उस वक्त चूंकि घंटे एवं घड़ियों की कोई पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। लिहाजा मिल प्रबंधन ने घंटाघर बनाने का फैसला लिया। वर्ष 1911 में घंटाघर बनना प्रारम्भ हुआ आैर वर्ष 1921 में बन कर तैयार हो सका। खास बात यह रही कि लाल इमली मिल का घंटाघर लंदन के बिग बेन की तर्ज पर बना। घंटाघर की ऊंचाई 130 फुट है। घंटाघर की टिकटिक करती सुइयां साफ तौर पर सुनी जा सकती हैं। इसे शहर की आैद्योगिक ताकत के तौर पर देखा जाने लगा। वर्ष 1947 में ब्रिाटिश देश छोड़ कर जाने लगे तो इसका प्रबंधन भारतीयों को सौंप दिया गया। कई उद्योगपतियों के हाथों से गुजरने के बाद आखिर वर्ष 1981 में लाल इमली मिल का नियंत्रण भारत सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। इस मिल के ऊनी वस्त्र एवं कम्बल देश विदेश में मशहूर हैं।          प्रकाशन तिथि 19.11.2016