गार्बेज डिस्पोजल : कोसें नहीं खुद को भी बदलें
कूडा-करकट-गंदगी देख नाक-भौं सिकोड़ते व्यवस्था को कोसने की हमारी नियति बन चुकी है क्योंकि गली गलियारों से लेकर नेशनल हाईवेज के किनारे अक्सर कूड़ा-करकट व गंदगी के पहाड़ खड़े दिख जाते हैं। हालांकि कूूड़ा करकट व गंदगी के यह दानव देश-समाज के लिए एक गम्भीर समस्या है।
अमूमन कूड़ा-करकट व गंदगी को देख कर कभी हम न्यूयार्क की साफ-सफाई की दुहाई देंगे तो कभी सिंगापुर की शान में कसीदे पढें़गे। फिर कूड़ा-करकट-गंदगी के लिए शासन-सत्ता से लेकर व्यवस्था तक को एक झटके में कोस डालेंगे। सरकार ऐसी है... सरकार वैसी है... व्यवस्था चौपट है... कोई देखने सुनने वाला नहीं। आत्म चिंतन-आत्म मंथन करें तो क्या आप पायेंगे कि अपने शहर गली-मोहल्ले, गांव-गिरावं-गलियारों की साफ सफाई व्यवस्था में सहयोग करना हमारा कोई नैतिक धर्म कर्तव्य नहीं है....? जी हां, शासन-सत्ता या व्यवस्था को कोसने व दोष देने से गांव गिरांव से लेकर मेगाटाउंस चकाचक नहीं दिखने वाले।
भले ही भारत सरकार का ग्रामीण विकास मंत्रालय डर्टी गर्ल विद्या बालन को साफ-सफाई के लिए ब्राांड एम्बेसडर क्यंू न बना दे लेकिन क्या...? इससे शहर की सड़कें व गांव के गलियारे लकालक चमकने लगेंगे। जी नहीं... क्योंकि जब तक हमारी मानसिकता... सोच... सिविक सेंस में बदलाव नहीं आयेगा, तब तक हम गांव-गलियारा व सड़क तो छोडिए अपना घर तक साफ-सुथरा नहीं रख पायेंगे। गौर करें तो पायेंगे कि देश में प्रतिदिन करोड़ों मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है। अफसोस दक्षिण भारत के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो देश में कूड़ा-करकट-गंदगी के अपेक्षित व वैज्ञानिक निस्तारण या डिस्पोजल की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है।
विशेषज्ञों की मानें तो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन छह सौ ग्राम कूड़ा का उत्सर्जन माना जाता है। अब यह कूड़ा निकलेगा तो निश्चय ही घर से सड़क पर आयेगा। घर-घरौंदे से बाहर आते ही कूड़ा करकट के डिस्पोजल का उत्तरदायित्व म्यूनिसिपल बोर्ड सरीखे संस्थानों पर आ जाता है। बस यहीं से हम शासन-सत्ता व व्यवस्था को कोसने में लग जाते हैं क्योंकि कूड़ा करकट व गंदगी हमें गली गलियारों से लेकर सड़कों तक फैली दिखती है। म्युनिसिपल बोर्ड हो या लोकल बॉडी सभी की कूड़ा प्रबंधन की एक अलग व्यवस्था होती है। कूड़ा करकट व गंदगी उठाने का हर जगह एक समय निर्धारित होता है। अमूमन-आदतन बाशिंदे घर की साफ-सफाई के बाद कूड़ा सड़क या गली में कूड़ा फेंक देते हैं। लाजिमी है कि यह कूड़ा चौबीस घंटे सड़ता रहेगा। जिससे इलाके में सडांध फैलेगी।
एक आदत होती है कि केला या कोेई अन्य फल खाया आैर उसका छिलका सड़क पर इधर उधर कहीं भी फेंक दिया। खाने-पीने के बाद रैपर या पैकिंग पेपर कहीं भी इधर-उधर फेंक देते हैं। पान-पान मसाला या गुटखा खाया आैर कहीं भी थूंक दिया। इससे चौतरफा गंदगी फैलना स्वाभाविक है। इससे सरकारी दफ्तर भी अछूते नहीं रहते। साफ-सफाई के लिए आवश्यक है कि हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा कि हम खुद साफ सफाई का ख्याल रखें। कहीं भी इधर-उधर गंदगी करने या फैलाने से बचना चाहिए। दक्षिण भारत के शहरों में गंदगी कम दिखेगी क्योंकि व्यवस्था के साथ-साथ आदतन साफ सफाई की इच्छाशक्ति होती है।
खान-पान-परिधान में विदेश की नकल करते हैं तो सिविक सेंस की भी नकल करनी चाहिए। न्यूयार्क की प्रवासी भारतीय सुश्री कृष्णा कोठारी हिन्दुस्तान आती थीं तो गंदगी के कारण अक्सर बीमार पड़ जाती थीं लिहाजा कोठारी ने साफ सफाई का वीणा उठाया आैर 'क्लीन इंदौर" का स्लोगन देकर 'स्वीपिंग-क्लीनिंग-मूवमेंट" चलाना शुरू किया। इसके तहत कृष्णा ने स्कूल-कालेज के छात्र-छात्राओं को चुना। प्रवासी भारतीय कृष्णा छात्र-छात्राओं को एक वीडियो के जरिये गंदगी के नुकसान व साफ-सफाई के फायदे बताती-गिनाती है। इसके लिए उसने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक का भी सहारा लिया।
परिणाम यह रहा कि कुछ ही समय में 'क्लीन इंदौर" की जमीनी हकीकत दिखने लगी। उपदेश देने या 'स्वीपिंग-क्लीनिंग" की वर्कशाप करने से गली-मोहल्लों को साफ-सुथरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए सिविक सेंस व इच्छाशक्ति होनी चाहिए। खुद को बदलेंगे तो घर-आंगन, गली-मोहल्ला,गांव-गिरांव व मेगासिटीज चमकने लगेंगे।
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