Tuesday, 31 January 2017

देश में डिजिटल एवं कनेक्‍टि‍विटी क्रांति को बढ़ावा


                        केन्‍द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री एम. वेंकैया नायडू ने कहा है कि डिजिटल रेडियो ने देश में डिजिटल एवं कनेक्टिविटी क्रांति अजित करने के प्रधानमंत्री के विजन को आगे बढ़ाने के लिए सरकारी एवं निजी प्रसारकों समेत सभी हितधारकों के लिए एक अनूठा अवसर उपलब्‍ध कराया है। 
 

          डिजिटल रेडियो प्रौद्योगिकी श्रोताओं को किफायती मूल्‍य पर उल्‍लेखनीय रूप से बेहतर श्रव्‍य गुणवत्ता एवं सेवा विश्‍वसनीयता उपलब्‍ध करायेगी। मंत्री ने यहां ब्रॉडकास्‍ट इंजीनियरिंग कंसलटेंट्स इंडिया लिमिटेड (बीईसीआईएल) के साथ डिजिटल इं‍डिया मोंडीएल (डीआरएम) द्वारा आयोजित एक डिजिटल रेडियो गोलमेज सम्‍मेलन को संबोधित करने के दौरान इसका जि‍क्र किया। इसे और अधिक स्‍पष्‍ट करते हुए नायडू ने कहा कि ऑटोमोटिव विनिर्माताओं एवं खुदरा विक्रेताओं के लिए वाहनों में डिजिटल रेडियो प्रणाली समाविष्‍ट करने का यह एक उपयुक्‍त समय है जो उपभोक्‍ताओं को किफायती मूल्‍य पर उल्‍लेखनीय रूप से बेहतर श्रव्‍य गुणवत्ता एवं सेवा विश्‍वसनीयता प्रदान करेगा। 

               यह इस नई डिजिटल प्रौद्योगिकी को आगे बढ़ाने और इसे अंगीकार करने में सक्षम बनायेगा। डिजिटल रेडियो श्रोताओं, विनिर्माताओं, प्रसारकों एवं नियामकों समेत सभी हितधारकों को लाभ प्रदान करता है। नायडू ने डिजिटल रेडियो प्रौद्योगिकी अपनाने में आकाशवाणी की उपलब्धियों के बारे में जिक्र किया कि आकाशवाणी ने रेडियो प्रसारण के डिजिटाइजेशन, जो कि आज विश्‍व में आज एक अद्वितीय परियोजना है, के पहले चरण में 37 शक्तिशाली ट्रांसमीटरों के तकनीकी स्‍थापन एवं उन्‍नयन का काम पहले ही पूरा कर लिया है।               

                 यह डिजिटल ट्रांसमिशनों के लिए बिजली उपभोग में कमी सुनिश्चित करेगा तथा भविष्‍य में आकाशवाणी तथा करदाताओं की ट्रांसमिशन लागत में उल्‍लेखनीय रूप से बचत करेगा। उन्‍होंने कहा कि आकाशवाणी ने अंतर्राष्‍ट्रीय आईटीयू मानक डिजिटल रे‍डियो मोंडीएल (डीआरएम) पर आधारित अपने डिजिटल ट्रांसमीटरों के जरिये खुद को फिर से गढ़ा है। 

            राष्‍ट्रीय राजमार्गों पर ट्रैफिक परामर्शदात्री सेवाओं की जरूरत पर जोर देते हुए नायडू ने कहा कि आकाशवाणी एफएम ट्रांसमीटरों के जरिये इस सेवा के अगले चरण को आईटीयू मानकों के आधार पर डिजिटाइज करने की जरूरत है जिससे कि इसकी पूर्ण क्षमता का दोहन किया जा सके। यह सेवा विविध रेडियो कार्यक्रम, विस्‍तृत एवं मांग के अनुसार विविध भाषाओं में ट्रैफिक एवं यात्रा की सूचना तथा आपातकालीन चेतावनी सेवाएं प्रस्‍तुत करेगी। 

                  श्रोताओं के लिहाज से डिजिटल ट्रांसमिशन एक बेहद सुस्‍पष्‍ट और एफएम ध्‍वनि गुणवत्ता से बेहतर सेवा उपलब्‍ध करायेगी। इसमें संवर्द्धित कार्यक्रम विकल्‍प, एक साथ कई भाषाओं में इंटरनेट से खबर, खेल, यात्रा एवं मौसम संबंधी जानकारियों तक नि:शुल्‍क पहुंच की सुविधाएं भी उपलब्‍ध होंगी तथा यह किसी आपदा की स्थिति में लोगों को तत्‍काल आपातकालीन चेतावनी का प्रसारण करने में सक्षम होगी।

Monday, 30 January 2017

पोस्टकार्ड एक सुगम संदेशवाहक



      देश दुनिया में भले ही इंफारमेशन टेक्नॉलॉजी का दौर चल रहा हो... हाईप्रोफाइल मोबाइल से लेकर इंटरनेट पर ग्लोबल वल्र्ड का जुड़ाव भले ही तमाम सेवाओं-सुविधाओं व जानकारियों से लबरेज हो लेकिन गांव-गिरांव में आज भी आाम आदमी परम्पराओं संग चल रहा है। 

           हालांकि मोबाइल सेवायें आम आदमी तक पहंुच रही हैं। फिर भी डाक सेवायें संदेश वाहक के तौर पर अभी भी कहीं बेहतर मान्य हैं। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक अपने किसी सगे सम्बंधी तक संदेश पहंुचाने के लिए गांव-गवंईयों के बीच डाक सेवायें बेहद आसान व सस्ती हैं। डाक सेवाओं में पोस्टकार्ड किफायत पर देश के किसी भी हिस्से या क्षेत्र में संदेश पहंुचाने का सुलभ तरीका है। संदेश चाहे खुशी का हो या संदेश गम का हो.... डाकिया पोस्टकार्ड के जरिये आपका संदेश आपके घर-गांव तक आसानी से पहंुचायेगा।

              भारतीय डाक में पोस्टकार्ड का इतिहास करीब एक सौ पैंतिस साल पुराना है।     देखा जाये तो भारतीय डाक विभाग का यह  पोस्टकार्ड एक निश्चित आकार का कार्ड होता है। इस कार्ड पर संदेश लिखा जाता है। संदेश लिखित यह कार्ड डाक के जरिये गन्तव्य तक पहंुचता है। इस कार्ड का आकार सामान्य तौर पर 14 सेंटीमीटर व 9 सेंटीमीटर लम्बाई चौड़ाई में होता है।  पोस्ट कार्ड सामान्य तौर पर दो तरह का उपलब्ध होता है। केवल एक पोस्टकार्ड संदेश भेजने के लिए होता है जबकि दोहरा पोस्टकार्ड जवाबी पोस्टकार्ड कहलाता है। जवाबी पोस्टकार्ड में संदेश पाने वाले को अतिरिक्त पोस्टकार्ड पर अपना जवाब देना होता है। इसमें संदेश पाने वाले को कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ता है।

              संलग्न पोस्टकार्ड होने से जवाब मिलने में अत्यधिक देरी नहीं होती।जवाबी पोस्टकार्ड में एक संदेश भेजने के लिए और दूसरा संदेश का जवाब पाने के लिए होता है।  संदेश भेजने वाले को जवाबी पोस्टकार्ड की कीमत देनी होती है जिससे संदेश का जवाब देने वाले को कोई शुल्क न अदा करना पड़े। पोस्टकार्ड का उपयोग-इस्तेमाल केवल भारत में ही एक कोने से दूसरे कोने तक संदेश के आदान-प्रदान के लिए किया जा सकता है। कोई व्यक्ति या संस्था भी अपने कर्मचारियों या उपभोक्ताओं को संदेश भेजने के लिए पोस्टकार्ड छपवा सकती हैं लेकिन यह सब भारतीय डाक व्यवस्था के तहत किया जा सकता है। इस प्रकार के पोस्टकार्डों का आकार-साइज भी सरकारी पोस्टकार्ड जैसा ही होना चाहिए।

            यह अत्यधिक पतला भी नहीं होना चाहिए और इनका आकार और मोटाई भी छपे हुए सरकारी पोस्टकार्ड के समान व उस जैसी होनी चाहिए। भारतीय पोस्टकार्ड का इतिहास एक सौ पैंतिस साल पुराना है। भारतीय डाक घर- विभाग ने पहली बार जुलाई 1879 में चौथाई आना (यानी एक पैसा) का पोस्ट कार्ड जारी किया था। इसका लक्ष्य भारत की सीमा में एक स्थान से दूसरे स्थान तक डाक भेजना था या यूं कहें कि आमजन के संदेश को एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहंुचाने की व्यवस्था सुनिश्चित करना था। भारतीय बाशिंदों के लिये अब तक का यह सबसे सस्ती डाक सेवा है।भारतीय डाक विभाग की यह सेवा बेहद कामयाब  रही।

                भारत के लिए वृहद डाक प्रणाली शुरू हो जाने पर डाक बहुत दूर-दूर तक जाने लगी। पोस्टकार्ड पर लिखा संदेश बिना किसी अतिरिक्त डाक टिकट के देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचने  में आसान रही। जहां नजदीक में कोई डाकखाना भी नहीं होता था, वहां भी पोस्टकार्ड डाकिया पहंुचाते रहे। इसके बाद अप्रैल 1880 में ऐसे पोस्टकार्ड शुरु हुए, जो केवल सरकारी इस्तेमाल के लिए थे। जवाबी पोस्टकार्ड 1890 में शुरु हुए। पोस्टकार्ड की यह सुविधा आज भी  देश में जारी है। देश-दुनिया में देखें तो  1861 में फिलेडलफिया में जन पी चार्लटन ने एक गैर-सरकारी पोस्टकार्ड सेवा की शुरुआत की थी। इसके लिए उन्होंने कपीराइट भी हासिल किया था। 

                जिसे बाद में उन्होंने एच.एल. लिपमैन को हस्तानांतरित कर दिया था। उस पोस्टकार्ड के चारों ओर छोटी सी पट्टी की सजावट थी और उस पोस्टकार्ड पर लिखा था  लिपमैन्ज पोस्टल कार्ड। यह पोस्टकार्ड बाजार में 1873 तक चले। इसके बाद पहला सरकारी पोस्ट कार्ड शुरू हुआ। अमरीका ने 1873 में पहले से मुहर लगे पोस्ट कार्ड जारी किए। अमरीका की डाक सेवा में केवल शासकीय स्तर पर पोस्टकार्ड छापने की अनुमति रही। यह स्थिति 19 मई, 1898 तक रही। अमरीकी संसद ने प्राइवेट मेलिंग कार्ड एक्ट पास कर इस सेवा को सर्वसुलभ बनाया। जिसमें प्राइवेट फर्मों को भी पोस्टकार्ड बनाने-छापने की अनुमति दी गयी। प्राइवेट मेलिंग कार्डों की डाक लागत एक सेंट थी, जबकि पोस्टकार्ड की दो सेंट थी। जो पोस्टकार्ड अमरीकी डाक सेवा की व्यवस्थाओं के तहत छपे नहीं होते थे, उन पर प्राइवेट मेलिंग पोस्टकार्ड अंकित करना या छापना जरुरी होता था। 

                  पोस्टकार्ड की उल्टी तरफ सिर्फ सरकार को पोस्टकार्ड शब्द छापने की अनुमति थी। गैर-सरकारी कार्डों पर सवेनेर कार्ड, करेस्पांडेंस कार्ड और मेल कार्ड छपा होता था। डाक विभाग का अंतर्देशीय पत्र कार्ड पोस्टकार्ड से अलग होता है। इसमें संदेश खुले में नहीं लिखा जाता आैर न इस संदेश को कोई अन्य पढ़ सकता है क्योंकि संदेश को पढ़ने के लिए इसके फ्लैप को खोलना पड़ता है, जबकि पोस्टकार्ड के मामले में ऐसा नहीं होता, जिसके हाथ से भी पोस्टकार्ड गुजरे, वह संदेश पढ़ सकता है। तकनीकी तौर पर अंतर्देशीय पत्र कार्ड एक निश्चित आकार के कागज पर लिखा संदेश होता है। इसे मोडकर बंद किया जाता है। अंतर्देशीय पत्र कार्ड भारत के अंदर ही प्रेषण के लिए होता है। विदेशों में संदेश भेजने के लिए अधिक लागत का विशेष अंतर्देशीय पत्र कार्ड होता है। 

             इसे एयरोग्राम कहा जाता है।पोस्टकार्ड का संग्रह भी किया जाता है। ऐशलैंड ओहियो के प्रोफेसर रैंडल रोडेस ने 1945 में डील्टोलजी शब्द की रचना की, जिसे बाद में चित्र पोस्ट कार्डों के अध्ययन की विद्या के रूप में दुनिया में जाना गया। दुनिया भर में डील्टोलजी को डाक टिकट संग्रहण और सिक्का बैंक नोट संग्रहण के बाद तीसरी सबसे बड़ी हाबी माना जाता है। पोस्टकार्ड इसलिए लोकप्रिय हुये क्योंकि लगभग हर समय के चित्र पोस्टकार्ड पर छपते रहते हैं। पोस्ट कार्डों के जरिए इतिहास की भी जानकारी हासिल की जा सकती है। भारतीय पोस्टकार्ड पर प्रसिद्ध इमारतों, महत्वपूर्ण व्यक्तियों, विविघ कला स्वरुपों और इस तरह के अनेकानेक कई विषय मिल जाते हैं।

                   डाक टिकट संग्रह के मुकाबले किसी पोस्टकार्ड के प्रकाशन और स्थान का समय पता करना असंभव कार्य होता है, क्योंकि पोस्टकार्ड आमतौर पर बहुत सामान्य तौर तरीके से छापे जाते हैं। इसलिए कई संग्रहकर्ता केवल ऐसे कार्डों का ही संग्रह करते हैं, जो किसी विशिष्ट कलाकार, प्रकाशन या समय अथवा स्थान से संबंधित हों। इस डाक कार्ड विद्या का सबसे अधिक लोकप्रिय पक्ष शहरों व स्थानों से संबंधित रहता है। इनमें किसी शहर या क्षेत्र के वास्तविक चित्र होते हैं।

            अधिकतर संग्रहकर्ता केवल ऐसे शहर के पोस्ट कार्ड इकट्ठे करते हैं। जहां वे रहते हैं या जहां वे पले-बढ़े हैं। पोस्टकार्ड संग्रहण एवं संरक्षण के लिए आवश्यक है कि कुछ जरूरी बातों को ध्यान में रखा जाये। पोस्टकार्डों के सबसे बड़े शत्रु -दुश्मन आग, नमी, धूल- मिट्टी, धूप और कीड़े होते हैं। सबसे अच्छा यही होगा है कि अपने संग्रह को किसी बाक्स में रखें। यह बाक्स ठंडा और सूखा होना चाहिए । पॉलीथिन या प्लास्टिक वाले एलबम का उपयोग कतई नहीं करना चाहिए।

           इससे पुराने कागज को कुछ समय बाद रासायनिक तत्व से नुकसान पहुंच सकता है। प्रदर्शनी के उद्देश्य से पोस्टकार्डों का अलग-अलग विवरण दर्ज करना चाहिए। ध्यान रखें कि पोस्टकार्ड पर पेंसिल का इस्तेमाल न हो। प्रदर्शनी के बोर्ड पर पोस्टकार्ड को चिपकाने के लिए टेप या इस तरह की किसी चीज उपयोग-इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।जब भी पुराने पोस्टकार्डों का प्रदर्शन किया जाए तो इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि पोस्टकार्ड सीधे धूप के सामने न हों।


            

Sunday, 29 January 2017

महात्‍मा गांधी की समाधि में 30 अमृत वचन


           दस हजार से अधिक देशी और विदेशी पर्यटक हर रोज महात्‍मा गांधी की समाधि पर पुष्‍पांजलि अर्पित के लिए राष्‍ट्रीय राजधानी स्‍िथत उनकी समाधि पर आते हैं।

            पर्यटकों को गांधीजी के जीवन और कार्यों के बारे में जानकारी देने के लिए समाधि के निकट लगे काले पत्‍थर के अलावा और कोई स्रोत समाधि पर उपलब्‍ध नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिए और पर्यटकों का आकर्षण बढ़ाने के लिए शहरी विकास मंत्रालय के अंतर्गत राजघाट समाधि समिति ने पिछले दो वर्षों में अनेक उपाय किए हैं, जिनका उद्घाटन कल राष्‍ट्रपिता की 69वीं पुण्‍य तिथि के अवसर पर किया जायेगा। इससे पहले 15 वर्ष पूर्व राजघाट पर सुधार कार्य संचालित किए गए थे। 

       पहली बार 157 शब्‍दों में राष्‍ट्रपिता के जीवन का विवरण और 131 शब्‍दों में गांधी समाधि का विवरण हिन्‍दी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में राजघाट के तीनों द्वारों पर प्रदर्शित किया गया है। संगमरमर पर 30 अमृत वचन उत्‍कीर्ण कराए गए हैं, जिन्‍हें ग्रेनाइट के पत्‍थर की पीठिकाओं पर समाधि परिसर में प्रदर्शित किया जायेगा। राजघाट परिसर में सभी मौजूदा परम्‍परागत लाइटों के स्‍थान पर ऊर्जा सक्षम और पर्यावरण अनुकूल एलईडी लाइटें लगाई गई हैं। पुराने खंभों के स्‍थान पर सुरूचिपूर्ण ढंग से सजाए गए 104 नए पोल लगाए गए हैं। 


                एलईडी लाइटों के लगने से हर वर्ष 60 हजार से अधिक ऊर्जा की बचत होगी। सुरक्षा बढ़ाने और पर्यटकों की बेहतर निगरानी के लिए 27 सीसीटीवी कैमरों के साथ एक सेंट्रल कंट्रोल रूम बनाया गया है। 
            इन सभी उपायों का उदघाटन करने के अलावा 30 जनवरी को शहरी विकास मंत्री एम वैंकैया नायडू राजघाट समाधि पत्रिका के विशेषांक का विमोचन भी करेंगे, जो गांधीजी द्वारा चलाए गए चंपारण सत्‍याग्रह की 100वीं वर्षगांठ से संबद्ध है।

Friday, 27 January 2017

सुरक्षा से खिलवाड़ न हो

            भोजन-पानी, घर-घरौंदा,कपड़ा लत्ता की आवश्यकतायें पूरी होने के साथ ही सुरक्षा अहम है। सुरक्षा चाहे देश की हो या समाज या फिर व्यक्ति की हो, खास मायने रखती है। 

          सुरक्षा को लेकर देश-दुनिया में कानून भी हैं लेकिन कानून के साथ-साथ सुरक्षा को लेकर खुद भी सावधान-सतर्क रहना चाहिए क्योंकि हर जगह-स्थान पर कानून साथ खड़ा नहीं रहता। खुद सावधान-सतर्क रहेंगे तो कहीं अधिक सुरक्षित रहेंगे। अब देखें तो देश में आैसत हर घंटे सड़क हादसों में चौदह-पन्द्रह व्यक्तियों की मौत हो जाती है। ऐसा नहीं कि इन आप्राकृतिक घटनाओं-दुर्घटनाओं को रोका नहीं जा सकता लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि शासकीय सेवाओं-व्यवस्थाओं के साथ-साथ खुद भी सावधान-सतर्क रहें। हालांकि समय के साथ मोटर कानून में भी बदलाव-संशोधन होना चाहिए क्योंकि सख्त एवं व्यवहारिक कानून न होने से उसे क्रियान्वित या लागू करने में दिक्कतें होती है।

         जिससे समाज या व्यक्ति को सीधा लाभ-फायदा नहीं मिल पाता। अब देखें तो पायेंगे कि मोटर व्हीकल एक्ट अभी भी बाबा-आदम जमाने अर्थात ब्रिाटिशकालीन चला रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो सड़क हादसों में मामूली जुर्माना होकर घटना-दुर्घटना का मामला रफा-दफा हो जाता है। विशेषज्ञों की मानें तो सालाना करीब  पांच लाख व्यक्तियों की मौत विभिन्न कारणों से हो जाती है। इनमें दो लाख व्यक्तियों की मौत केवल सड़क हादसों से होती है। इससे व्यक्ति की जान की क्षति तो होती ही है, माल की भी क्षति होती है। सड़क हादसों से दो लाख करोड़ धनराशि की आर्थिक क्षति होती है। 

             जान-माल की इस क्षति को रोका जा सकता है।कम से कम न्यूनतम तो किया ही जा सकता है। हालांकि सड़क परिवहन एवं सुरक्षा विधेयक-2014 लाने की कोशिश चल रही है। सड़क हादसों को रोकने व न्यूनतम करने के लिए आवश्यक है कि सख्त व व्यवहारिक कानून हो, जनता जागरुक हो तो वहीं सड़क नेटवर्क बेहतर डिजाइन का हो। सड़क नेटवर्क बेहतर होना चाहिए क्योंकि सड़क नेटवर्क में अपेक्षित विस्तार न होने या वृद्धि न होने से वाहन चालकों के सामने दिक्कतें आती हैं। 

           सड़क दुर्घटनाओं का एक बड़ा कारण सड़क नेटवर्क का बेहतर न होना भी है तो वहीं सड़कों का डिजाइन भी दुर्घटनाओं के लिए कम जिम्मेदार नहीं। खुद को भी दुर्घटनाओं से बचने के लिए सचेष्ट रहना चाहिये क्योंकि कई बार छोटा सा कारण भी दुर्घटना का कारण बन जाता है। कर्तव्य निवर्हन पर ध्यान देंगे तो काफी कुछ सुधरा दिखेगा क्योंकि कर्तव्य निवर्हन से व्यवस्थायें सुचारु हो जाती हैं। कर्तव्य निवर्हन से अधिकार खुद-ब-खुद हासिल हो जाते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो वाहन की यांत्रिक स्थिति ठीक न होने के कारण तीन प्रतिशत दुर्घटनायें होती हैं। 

                खराब सड़क के कारण बारह प्रतिशत दुर्घटनायें होती हैं। इसी तरह से चालक की गलती-लापरवाही से सत्तर प्रतिशत दुर्घटनायें होती हैं। खराब मौसम के कारण सात प्रतिशत दुर्घटनायें होती हैं। देश में सड़कों का संजाल करीब चौंतीस लाख किलोमीटर लम्बा है जबकि वाहनों की संख्या साढ़े नौ करोड़ है। आजादी के समय देश में सड़कों की लम्बाई 3.98 हजार किलोमीटर थी जबकि वाहनों की संख्या तीन लाख थी। अब देखें तो सड़कों पर वाहनों का दबाव काफी बढ़ा लेकिन सड़क नेटवर्क में उस रफ्तार से सुधार-बदलाव नहीं हो सका। 

             इस पर स्थानीय निकायों  से लेकर केन्द्रीय शासन-सत्ता में बैठे नीति-नियंताओं को गम्भीरता से विचार-विमर्श करना चाहिए क्योंकि यह जान एवं माल की सुरक्षा से ताल्लुक रखने वाला गम्भीर विषय है क्योंकि क्षति तो क्षति होती है।अब क्षति चाहे व्यक्ति की हो या फिर आर्थिक हो लेकिन व्यक्ति की क्षति कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि व्यक्ति की क्षति की पूर्ति करना असंभव व नामुमकिन होता है। व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारियां-उत्तरदायित्व व कर्तव्य सहित बहुत कुछ उसमें निहीत होता है।

Sunday, 22 January 2017

इच्छाशक्ति से ही महिला सशक्तिकरण

  
           'महिलाओं" को सत्ता शक्ति की आक्सीजन से लबरेज करेंगे। जी हां, भारत सरकार की रीति-नीति तो यही बयां कर रही है कि महिलाओं को 'राजनीतिक सशक्तिकरण" की  आक्सीजन दी जायेगी। राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए महिलाओं को एक बार फिर आरक्षण में इजाफा का लाभ मिलेगा।

           पंचायतों में अभी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का लाभ हासिल है। पंचायती राज व्यवस्था में 33 प्रतिशत के इस आरक्षण को अब बढ़ा कर पचास प्रतिशत करने की तैयारी है। भारत सरकार की मानें तो महिलाओं को पंचायती राज व्यवस्था में 33 प्रतिशत आरक्षण में वृद्धि कर पचास प्रतिशत करने संशोधन लाने की तैयारी है। आरक्षण में इजाफा का यह संशोधन (प्रस्ताव) संसद के बजट सत्र अर्थात शीघ्र लाने की कोशिश है। ऐसा नहीं है कि अभी महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण का लाभ हासिल नहीं है लेकिन संविधान संशोधन के बाद इसे देश के सभी राज्यों में अनिवार्य तौर पर लागू किया जायेगा।

             इस आशय के संकेत खुद भारत सरकार के ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्रालय ने दिये हैं। इस संशोधन को सर्वमान्य बनाने के लिए भारत सरकार राजनीतिक दलों का समर्थन जुटाने की कोशिश में है क्योंकि राजनीतिक दलों के समर्थन के बिना संंशोधन को सर्वमान्य बनाना असंभव होगा। ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्रालय की मानें तो संविधान संशोधन को प्रभावशाली तौर तरीके से लागू किया जाये तो निश्चय ही समाज में व्यापक स्तर पर बदलाव-परिवर्तन को महसूस किया जा सकेगा। संविधान संशोधन करना हो या कोई नया कानून बनाना हो तो सरकार रणनीतिक दांव-पेंच से अपनी इच्छाओं को अमल में ला सकती है। इसमें कहीं कोई संदेह-शक की गुंजाइश कम ही रहती है। 

             विशेषज्ञों की मानें तो अधिनियम को प्रभावशाली तरीके से लागू किया जाये तो निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। निश्चय ही ऐसी स्थिति में जनजातीय आबादी, ग्राम पंचायत स्तर व छोटी ग्राम सभाओं के मसले... समस्यायें आदि आसानी से सामने आ सकेंगे। निस्तारण की प्रक्रिया भी आसान होगी। महिलाओं को सत्ता में आरक्षण का यह प्रतिशत बढ़ाने से लेकर नियमों, पंचायती राज अधिनियम, अनुपालन, ग्राम सभाओं की कार्य संस्कृति, ग्राम सभाओं की अधिकारिता, ग्राम सभाओं की संरचनाओं सहित अनेक मसलों पर नीति नियंताओं के बीच मंथन-विचार विमर्श दिखने लगा। 

            समाज के सर्वांगीण विकास.... सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के लिए आवश्यक है कि विकास की नीतियां बनें तो वहीं आवश्यक हैं कि अधिनियम-कानून भी बनें। अधिनियम-कानून बनने से भी कहीं अधिक आवश्यक है कि उसका अनुपालन-क्रियान्वयन सुनिश्चित हो क्योंकि अनुपालन सुनिश्चित न होने से कानून का कोई मतलब नहीं रह जाता। अब चाहे स्थानीय निकायों को स्वायत्तशासी बनाने की बात हो या सत्ता को स्थानीय स्तर पर प्रभावी बनाने की बात हो। संविधान के 73 एवं 74 वे संशोधन में निचली सरकार को सही मायने में सरकार बनाने की ताकत दी गयी लेकिन हकीकत में देखें तो संविधान का यह अतिमहत्वपूर्ण संशोधन फाइलों से बाहर नहीं निकल सका। 

              कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश सहित देश के दक्षिण के राज्यों को छोड़ दिया जाये तो संविधान का 73 व 74 वां संशोधन देश के अधिसंख्य राज्यों में हाशिये पर चला गया। लोकसभा व विधानसभा क्षेत्रों को छोड़ दिया जाये तो सही मायने में महिलाओं को आरक्षण का लाभ नहीं मिल सका। अब चाहे बात स्थानीय निकाय में नगर निगम की हो या पंचायत क्षेत्र की हो.... आरक्षण से महिलाओं को भले जनप्रतिनिधि का दर्जा हासिल हो गया हो लेकिन हकीकत में महिलाओं का एक बड़ा तबका 'रबर स्टैम्प" से अधिक कुछ भी नहीं दिख रहा। ग्राम पंचायत हों या नगर निगम हों या फिर नगर पालिका क्षेत्र हों.... महिलाओं को आरक्षण का लाभ तो मिलता है लेकिन अधिसंख्य फैसले उनके पति या अन्य पुरुष परिजन लेते हैं। ग्राम पंचायत में महिलाओं के अधिकार क्षेत्र में पुरुष वर्चस्व कायम रहता है। 

            लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ही सत्ता का हुक्मरान माना गया है लेकिन आरक्षण की इस व्यवस्था ने महिलाओं को राजनीतिक सशक्तिकरण तो दिया लेकिन पुरुष वर्चस्व ने नारी सशक्तिकरण में स्पीड ब्रोकर-बैरियर लगा दिये जिससे अधिकार सम्पन्न होने के बावजूद महिलायें दोयम दर्जे की दशा-दिशा में खड़ी दिखती हैं। गौरतलब है कि देश का संविधान ब्रिाटेन की संसदीय व्यवस्थाओं-प्रणाली पर आधारित है लेकिन ब्रिाटेन व भारत की संसदीय परम्पराओं में एक बहुत बड़ा फर्क-बहुत बड़ा अन्तर है कि ब्रिाटेन में संसद सर्वोच्च है लेकिन देश में संविधान सर्वोच्च स्थान रखता है। संविधान संशोधन ने ही भूरिया समिति की रिपोर्ट के आधार पर पंचायती राज (अनुसूूचित क्षेत्रों का विस्तार) अधिनियम-1996 में लागू किया था।

             भूरिया समिति की रिपोर्ट 1995 में पेश की गयी थी। इसे एक वर्ष के बाद लागू किया गया था। विशेषज्ञों की मानें तो पंचायती राज व्यवस्था में गांव-गिरांव, तालुका व जिला सहित सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र आता है। देश में लम्बे समय से पंचायती राज की व्यवस्था अस्तित्व में रही। देश आजाद होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल में संवैधानिक तौर तरीके से राजस्थान के नागौर जिला में 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गयी थी। विशेषज्ञों की मानें तो संविधान के अनुच्छेद 40 में प्रांतीय सरकारों को पंचायती व्यवस्था को अमल में लाने की पहल की गयी थी। करीब ढ़ाई दशक पहले वर्ष 1993 में संविधान में 73 वां संशोधन किया गया। इस 73 वां संविधान संशोधन अधिनियम में निचली सरकारों को ताकत दी गयी। संविधान के इसी संशोधन से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया। 

             महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सपने-स्वप्न को सार्थक आयाम देने की दिशा में कोशिश की गयी। संविधान संशोधन में व्यवस्था दी गयी कि प्रत्येक पांच वर्ष में पंचायतों के नियमित चुनाव-निर्वाचन होंगे। अनुसूचित जाति एवं जनजाति को आबादी के आधार पर सीटों का आरक्षण मिलेगा। महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण होगा। पंचायत की निधियों में सुधार के उपाय अमल में लाये जायेंगे। राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर पंचायतों को आर्थिक संसाधन उपलब्ध होंगे। पंचायतों को स्वशासन संस्थाओं के तौर पर कार्य करने के लिए आवश्यक शक्तियां दी जायेंगी।

             इसमें आर्थिक विकास से लेकर सामाजिक न्याय सहित बहुत कुछ सम्मिलित किया गया था। संविधान के 73 वां संशोधन में ग्राम सभाओं को शक्तियां प्रदान की गयीं, उनमें मुख्यत: गणतंत्र दिवस, श्रम दिवस, स्वतंत्रता दिवस व गांधी जयंती पर ग्राम सभाओं की पंचायत-चौपाल-बैठक आयोजित करने की व्यवस्था दी गयी। यह व्यवस्थायें इस लिए तय की गयीं जिससे ग्राम सभाओं के सदस्य अपने अधिकारों व शक्तियों से अवगत हो सकें। भागीदारी सुनिश्चित हो। कोशिश थी कि खासतौर से महिलाओं तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को प्रगतिशील बनाया जाये। 

           कोशिश थी कि ग्राम विकास मंत्रालय की मूलभूत सेवाओं की विकास योजनाओं से लेकर जनता जनार्दन का अपेक्षित विकास हो। वित्तीय कुप्रबंधन पर रिकवरी से लेकर दण्ड देने का अधिकार एवं शक्तियां निचली सरकार को हासिल हों। जनविकास से लेकर उनके रखरखाव की सभी आवश्यक व्यवस्थायें शामिल थीं। इतना ही नहीं गांव गिरांव से लेकर गली-गलियारों के बाशिंदों का कल्याण सुनिश्चित करना आदि-अनादि शामिल किया गया। इसमें बाशिंदों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सामुदायिक सौहाद्र्र-भाईचारा, जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करना-कराना, सामाजिक न्याय की व्यवस्था को कायम करना-कराना, झगड़ों का निपटारा करना-कराना, बच्चों खास तौर से बालिकाओं के कल्याण करना-कराना आदि क्रियाकलाप शामिल थे।

           इसी तरह से संविधान के 74 वां संशोधन में नगर निगमों को स्वायत्तशासी संस्था के तौर पर शक्ति सम्पन्न बनाने का खाका खींचा गया था लेकिन नगर निकायों में ई-गर्वनेंस को छोड़ कर कहीं कोई बदलाव नहीं आये। संविधान संशोधन की करीब-करीब सभी व्यवस्थायें-प्रावधान हाशिये पर चले गये। विशेषज्ञों की मानें तो संविधान के 73 वां एवं 74 वां संशोधन के शत-प्रतिशत लागू होने से प्रांतीय सरकारों की दखलंदाजी खत्म हो जायेगी। लिहाजा कतिपय प्रांतीय सरकारें संशोधन को लागू नहीं करना चाहतीं। अब महिलाओं को आरक्षण 33 प्रतिशत से बढ़ा कर 50 प्रतिशत करने पर मंथन हो रहा है। 

           महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिलना भी चाहिए। शासन सत्ता में महिलाओं की अपेक्षित भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। हक वास्तविक हकदार को मिलना चाहिए लेकिन वास्तविक धरातल पर महिलाओं को आरक्षण का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। गांव-गिरांव में महिलाओं के हक हुकूक पर अधिसंख्य पुरुष वर्चस्व दिखता है। इसका एक बड़ा कारण ग्रामीण इलाकों में महिलाओं का एक बड़ा तबका दबा-कुचला सा है। लिहाजा अधिकार एवं शक्तियां होने के बावजूूद वह खुल कर समाज के सामने नहीं आ पातीं। 

          हालात यह हैं कि मां या पत्नी गांव की प्रधान होती हैं लेकिन शासकीय दफ्तरों से लेकर गांव की चौपाल तक पति, बेटा या देवर, भाई-भतीजा ही दिखता है। महिलाओं को आरक्षण से लेकर बराबरी का दर्जा देने के लिए आवश्यक है कि सर्वसमाज में इच्छाशक्ति हो। नारी कार्य संस्कृति को स्वीकारने की इच्छाशक्ति हो। इच्छाशक्ति बनेगी-बदलेगी तो नारी शक्ति बनेगी।

Friday, 20 January 2017

पानी के बाजारीकरण की खिलाफत

  
       'सीख" कहीं किसी से भी लेने में परहेज नहीं होना चाहिए। सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना नहीं होनी चाहिए क्योंकि आलोचना कार्य-विकास को संतुलित रफ्तार या आयाम देती है तो वहीं आलोचना के लिए आलोचना विकास की रफ्तार-धार को कुंद भी करती है। 

          बात चाहे चीन की हो या फिर सैन फ्रांसिस्को की हो... यदि देश-दुनिया में कहीं कुछ भी बेहतर हो रहा हो तो सीखने-समझने में परहेज नहीं करना चाहिए। चीन की जनता ने पीली नदी को इच्छाशक्ति से साफ सुथरा कर लिया तो सैन फ्रांसिस्को ने पानी की बर्बादी को रोकने की एक सार्थक कोशिश की है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि देश ने अपने परम्पराओं व सोच से मुंह मोड़ लिया, उन परम्पराओं, सोच-विचारधारा को सैन फ्रांसिस्को ने अपनाया। हालात यह हैं कि सैन फ्रांसिस्को ने पानी का बाजारीकरण पूरी  से बंद कर दिया। 

            सैन फ्रांसिस्को शायद दुनिया को पहला शहर बन गया, जहां बोतलबंद पानी की बिक्री पूूरी तरह से रोक दी गयी। यह निर्णय कोई एक दिन में नहीं लिया गया बल्कि नौ माह चली लम्बी बहस के बाद लिया गया कि अब इस शहर में बोतलबंद पानी नहीं बिकेगा। सैन फ्रांसिस्को ने एक स्वर में निर्णय रहा कि शहर के नागरिक अपनी बोतल में शासकीय व्यवस्थाओं से संचालित 'वाटर प्वांइट" से पानी मुफ्त में लेंगे। सर्वजन ने स्वीकार किया कि प्राकृतिक संसाधनों या प्राकृतिक उपहार को न बर्बाद होने देंगे आैर न इसका बाजारीकरण ही होने देंगे। 

               इसी परिप्रेक्ष्य में पानी का बाजारीकरण न होने देने का निर्णय लिया गया। ऐसा नहीं कि देश में सार्थक निर्णय नहीं लिए जा सकते ? आबादी को पीने का पानी उपलब्ध कराने की व्यवस्था स्थानीय निकाय के हवाले रहती है।

              शासकीय व्यवस्थाओं की जलापूर्ति कम खर्चीली व कम लागत वाली होती है। बोतलबंद पानी कहीं अधिक मंहगा होता है। आप यह भी नहीं समझ सकते कि अमुक बोतलबंद पानी मानकों की कसौटी पर खरा है या नहीं ? स्थानीय निकाय जल परीक्षण के लिए बकायदा प्रयोगशाला होती है। भले ही यह प्रयोगशालाएं अत्यधिक सक्रिय न हों लेकिन कुछ तो परिणाम होते ही हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि सहित पूर्वोत्तर के राज्यों में भले ही इस दिशा में कुछ न हो सकता हो लेकिन अधिकार सम्पन्न स्थानीय निकाय क्षेत्रों पानी की बर्बादी व पानी की उपयोगिता सुनिश्चित की जा सकती है।

            ऐसा नहीं कि देश में कुछ नहीं हो रहा। पूर्ववर्ती केन्द्र सरकार की 'नदी जोड़" योजना देश के लिए निश्चय ही 'जल संसाधन" क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हो सकती है, बशर्ते क्रियान्वयन में शत-प्रतिशत ईमानदारी हो। इससे देश में बाढ़ के खतरे भी कम होंगे तो वहीं ग्राउण्ड वाटर रिचार्ज होता रहेगा। जान-माल की क्षति होने से बचा जा सकेगा तो वहीं लाखों-करोड़ों की राहत राशि बचेगी जिसका उपयोग अन्य आव्श्यकताओं की पूर्ति में किया जा सकेगा। 

Thursday, 19 January 2017

आदर्श नहीं मुस्कान लाने की कोशिश  


              'कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो..." जी हां, यह चंद अल्फाज भर नहीं। इसमें इच्छाशक्ति की प्रबलता दिख रही।

              बात चाहे शहरों को स्मार्ट बनाने की हो या गांव को आदर्श रुप-रंग देने की नीति-नियति हो या फिर आंगनवाड़ी केन्द्रों को व्यवस्थाओं की विस्तृतता देने की हो। देश में लाखों आंगनवाड़ी केन्द्र संचालित हैं लेकिन अधिसंख्य आंगनवाड़ी केन्द्र तमाम कोशिशों के बावजूद सार्थक आयाम नहीं ले सके। शिक्षा व पोषकता को रेखांकित करने वाले आंगनवाड़ी केन्द्र खुद को सीमित दायरे से बाहर नहीं ला सके। हालांकि शासन-सत्ता ने इन आंगनवाड़ी केन्द्रों को समृद्ध बनाने की कोशिश की लेकिन अधिसंख्य आंगनवाड़ी केन्द्र संचालकों-व्यवस्थापकों के रोजी-रोटी व कमाने-खाने के धंधे बन गये।

              ऐसा नहीं कि  आंगनबाड़ी के गोरखधंधे से शासन-सत्ता व नीति-नियंता बेखबर हों। शायद, इसीलिए आंगनवाड़ी केन्द्रों को अब गरीब-गुरबा व कमजोर वर्ग का 'शक्तिदाता" बनाने की कोशिश होती दिख रही है। शासकीय व्यवस्थाओं से कहीं अधिक विश्वास निजी संस्थाओं पर दिख रहा है। भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने इस मिशन में वेदांता को सहयोगी बनाने की कोशिश की है। जिससे 'नेक्स्ट जेनेरेशन" को वाकई शक्तिवान बना सके।

            भारत सरकार का महिला एवं बाल विकास मंत्रालय व वेदांता संयुक्त तौर से मलिन बस्तियों से लेकर गरीबों की आबादी में शिक्षा, तकनीकि व स्वास्थ्य की नई इबारत गढ़ेंगे। गरीब को गरीबी से उबारने आैर उसे स्वस्थ्य बनाने के मकसद से सरकार व निजी क्षेत्र ने हाथ मिलाये हैं। फिलहाल 'अगली पीढ़ी" के लिए चार हजार आंगनवाड़ी केन्द्र 'शक्तिदाता" बनेंगे। इस मिशन पर करीब चार सौ करोड़ खर्च होंगे। यह आदर्श आंगनवाड़ी केन्द्र वास्तविक शक्तिदाता के रुप में होंगे। इसमें स्वस्थ्य एवं शिक्षित भारत की परिकल्पना को साकार करने की कोशिश की जायेगी।

           एक ऐसा परिवेश गढ़ने का ताना-बाना बुना जायेगा जिसमें बच्चों की शिक्षा हो, बालिकाओं-महिलााओं का सशक्तिकरण हो, विकास के लिए सामूहिक सहभागिता हो, गरीबी उन्मूलन की व्यवस्थायें हों, कुपोषण को हटाने-मिटाने की व्यवस्थायें हों। आशय यह कि एक समृद्ध राष्ट्र दिखे। शिक्षा केवल कहने के लिए शिक्षा न हो बल्कि शिक्षा का स्तर भी गुणवत्तापूर्ण हो। महिला एवं बाल विकास  मंत्रालय एवं वेदांता के संयुक्त प्रयास से खुलने वाले यह चार हजार आदर्श आंगनवाड़ी केन्द्र फिलहाल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, महाराष्ट्र, ओडिसा, राजस्थान, तेलंगाना आदि प्रांतों में खुलेंगे। बहुआयामी क्षमताओं वाले यह आदर्श आंगनवाड़ी केन्द्र पच्चीस से तीस के क्लस्टर्स में बनेंगे।

             भूमि की व्यवस्था का उत्तरदायित्व स्थानीय निकाय एवं ग्राम पंचायतों का सौंपा गया है। खास बात यह है कि आंगनवाड़ी की मौजूदा व्यवस्थाओं में इंफारमेशन टेक्नॉलॉजी से लेकर कौशल विकास की बेहतर व अपेक्षित व्यवस्थायें होंगी जिससे यह आदर्श आंगनवाड़ी केन्द्र केवल शो पीस बन कर न रह जायें। ई-लर्निंग शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता को बेहतर बनायेगी तो वहीं कौशल विकास रोजी-रोजगार के अवसर विकसित करेगा। रोग प्रतिरक्षण की व्यवस्थायें सुनिश्चित होंगी तो वहीं संवेदनशीलता एवं भावनात्मकता से भी समुदाय को आपस में जोड़ने की कोशिश होगी। स्वास्थ्य की अपेक्षित देखभाल के रूप में भी यह केन्द्र काम करेंगे। विशेषज्ञों की मानें तो कोशिश है कि जीवन को उच्चस्तरीय व कौशल सम्पन्न बनाया जाये जिससे महिला हों या पुरुष भविष्य में किसी पर निर्भर न रहें। शायद इसी लिए आदर्श आंगनवाड़ी केन्द्र में पचास प्रतिशत समय शिक्षा व्यवस्था पर केन्द्रीत होगा तो वहीं पचास प्रतिशत समय कौशल विकास की प्रबलता को दिया जायेगा। अब कौशल विकास को देखें तो अब तक 38.32 लाख लोगों को आवास के साथ ही कौशल विकास प्रशिक्षण दिया जा चुका है।

               हालांकि कौशल विकास की यह योजनायें कोई नयी नहीं है। वर्ष 1997 में शहरी गरीबों के लिए  स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना व राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन प्रारम्भ की गयीं थीं। गौरतलब है कि कौशल विकास की यह योजनायें करीब दो दशक से चली आ रहीं हैं। नीति-नियंताओं की कोशिश होनी चाहिए कि कौशल विकास प्रशिक्षण यथार्थ में हो क्योंकि तभी उसकी सार्थकता होगी, जब व्यक्ति उस प्रशिक्षण  के लाभार्थ रोजी रोजगार हासिल कर सके। परिवार का भरण-पोषण कर सके। शायद यह कोशिश आदर्श आंगनवाड़ी केन्द्र के जरिये हो रही है।

             कौशल विकास प्रशिक्षण पर गौर करें तो पायेंगे कि इसमें मध्य प्रदेश पूरे देश में अग्रणी रहा। मध्य प्रदेश ने 5.06 लाख व्यक्तियों को कौशल विकास का प्रशिक्षण दिया। इसके बाद महाराष्ट्र में 4.86 लाख, उत्तर प्रदेश में 4.51 लाख, कर्नाटक में 4.08 लाख, तमिलनाडु में 3.33 लाख, आंध्र प्रदेश में 3.25 लाख, गुजरात में 2.22 लाख, बिहार में 2.11 लाख, पश्चिम बंगाल में 1.98 लाख, राजस्थान में 1.07 लाख युवाओं को कौशल विकास प्रशिक्षण दिया गया। कौशल विकास प्रशिक्षण पर गौर करें तो देखेंगे कि चाहे गुजरात हो या बिहार, पश्चिम बंगाल व राजस्थान अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक पीछे रहे। शायद, इन सभी कारणों को देखते हुये भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों को निजी क्षेत्र-निजी संस्थाओं से हाथ मिलाने पड़े। 

             नीतियां बनाने व अपेक्षित धनराशि उपलब्ध कराने से ही परिणाम फलीभूत नहीं हो जाते। इसके लिए आवश्यक होगा कि पात्र व्यक्ति को नीति एवं योजनाओं का लाभ अवश्य मिले। इतना ही नहीं नीति व योजनाओं की अपेक्षित जानकारी भी समाज के निचले स्तर तक आसानी से पहंुचे क्योंकि जब दलित, गरीब, किसान व मजदूर के घर का चुल्हा आसानी से जल सकेगा, तभी नीति-नियंताओं की कुशलता साबित हो सकेगी।

                           

Wednesday, 18 January 2017

आस्था व विश्वास को दें सार्थक दिशा


       पानी की एक एक बूंद निर्मल हो...नदी का प्रवाह अविरल हो... आचमन से लेकर स्नान तक जल की उपयोगिता सुनिश्चित हो, सभी चाहते तो यही हैं लेकिन यह सोच-चिंतन-मनन व विमर्श कहीं भी सार्थक होते नहीं दिखता। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि एक पग आंदोलन का स्वरूप नहीं ले सकता आैर बूंद-बूंद से घट नहीं भर सकता।

           कोशिश होनी चाहिए... कोशिश भी सार्थक हो... आस्था एंव विश्वास को यदि सार्थक दिशा दे दें तो निश्चय ही नदियों के जल की शुद्धता लाना मुश्किल न होगा। गंगा हो या यमुना या कावेरी हो या फिर देश की कोई भी बड़ी नदी हो, फूल-पत्तियों व पूजन सामग्री से कुछ न कुछ प्रदूषण अवश्य बढ़ता है। इसे रोका जा सकता है। इसके लिए आस्था एवं विश्वास की पुरातन सोच को बदलना होगा। अब गंगा नदी को ही लें तो नाला-नालियों की गंदगी के साथ ही बड़े पैमाने पर फूल-मालाओं के साथ ही पूजन सामग्री गंगा में प्रवाहित की जाती है। गोमुख से गंगासागर तक 2525 किलोमीटर लम्बी गंगधारा में प्रतिदिन हजारों टन फूल-मालाओं के साथ अन्य पूजन सामग्री विसर्जित की जाती है। 

           गंगा की जलधारा में ऋषिकेश, हरिद्वार से लेकर कानपुर, इलाहाबाद व बनारस सहित बिहार व पश्चिम बंगाल के कई शहरों में गंगा में पूजन सामग्री विसर्जित की जाती है। आस्था एवं विश्वास के पूजन-अर्चन को यथावत रखते हुए देवालयों में चढ़े फूल मालाओं को सामाजिक उपयोग के लिए एक आयाम दिया जा सकता है। हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद व बनारस में हर दिन हजारों टन फूल मालायें व अन्य पूजन सामग्री देवालयों को अर्पित की जाती है। 

               कानपुर में गंगा तट सरसैया घाट पर महादेव बाबा आनन्देश्वर का भव्य-दिव्य देवालय है। इसी तरह से इलाहाबाद में गंगा किनारे देव स्थलों की एक लम्बी श्रंखला है। काशी बनारस में गौरी केदारेश्वर व बाबा विश्वनाथ व अन्य देव स्थान हैं। अब केवल बनारस में बाबा विश्वनाथ मंदिर, गौरी केदारेश्वर व अन्य देव स्थानों को ही लें तो हर दिन आैसत बीस टन फूूल मालायें चढ़ाई जाती हैं। इसी तरह से गंगा तट के निकट के अन्य देव स्थलों पर फूल मालायें चढ़ती हैं।

               फूल मालाओं व अन्य पूजन सामग्री को गंगा नदी में विसर्जित करने के बजाय इसका सार्थक उपयोग किया जा सकता है क्योंकि गंगा नदी में विसर्जित पूजन अर्चन सामग्री को प्रवाहित करने से गंगा में कहीं न कहीं प्रदूूषण बढ़ता है। पूजन में अर्पित फूल मालाओं को संग्रहित कर ईकोफ्रैण्डली रंग बनाये जा सकते हैं। गुलाब से लाल व गुलाबी रंग बनाया जा सकता है तो गेंदा से पीला रंग बनाया जा सकता है। इसी तरह से शिवालय पर चढ़ाये जाने वाले बेलपत्ती से हरा रंग बनाया जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो फूल मालाओं से पच्चीस प्रतिशत रंग आसानी से बनाया जा सकता है। 

                  इससे होली व अन्य अवसरों पर रसायनिक रंगों से बचा जा सकता है। होली व अन्य त्योहार ईकोफ्रैण्डली रंगों से सराबोर दिखेंगे। इसके कोई रसायनिक दुष्प्रभाव नहीं होंगे। इतना ही नहीं फूल-मालाओं के कचरा से जैविक खाद बनायी जा सकती है। इसका खेती में अच्छा उपयोग किया जा सकता है। इसमें देवालयों के व्यवस्थापकों व स्थानीय निकायों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होगी। स्थानीय निकायों की भूमिका होनी चाहिए कि देवालयों में पूजन-अर्चन में चढ़ाये गये फूल मालाओं को परिसर या परिसर के बाहर सम्मान सहित संग्रहित किया जाये। 

            संग्रहित करने के बाद उसे इकोफ्रैण्डली रंग बनाने या जैविक खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जाये। यह एक सार्थक कोशिश देश के विभिन्न इलाकों के देवालयों-देवस्थलों पर अमल में आये तो आस्था व विश्वास के साथ सामाजिक उपयोगिता दिखेगी।

Tuesday, 17 January 2017

उर्दू सभी भारतीयों की सांस्कृतिक विरासत है: वेंकैया नायडू


           केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू ने कहा कि जो छात्र भविष्य में पत्रकार बनने की महत्वकांक्षा रखते हैं उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि खबरों और विचारों का मिश्रण ना हो। उन्होंने कहा कि लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रत्येक नवोदित युवा पत्रकार को खुले दिमाग से अधिकतम ज्ञान प्राप्त कर एक घटना को सही तरीके से पेश करना चाहिए।  

          उन्होंने छात्रों से नवीनतम घटनाओं, नई प्रौद्योगिकी और संचार के नए तरीकों के साथ बराबर अपडेट रहने का आग्रह करते हुए कहा कि छात्रों को प्रासंगिक और प्रभावी विषयों को पढ़ने की आदत विकसित करनी चाहिए। उन्होंने आईआईएमसी से सभी भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता पाठ्यक्रम शुरू करने का प्रयास करने का आह्वान किया ताकि देश भर में सभी नागरिकों के संचार जरूरतों को पूरा किया जा सके। मंत्री ने यह बात आज शास्त्री भवन में उर्दू पत्रकारिता में प्रथम पीजी डिप्लोमा पाठ्यक्रम, विकास पत्रकारिता में 67वें डिप्लोमा पाठ्यक्रम का शुभारंभ करने तथा आईआईएमसी पत्रिका "कम्युनिकेटर' का विमोचन करने के अवसर पर कही। 

            संचार में बदलते स्वरूपों के बारे में बात करते हुए मंत्री ने कहा कि सोशल मीडिया ने संचार में समय और स्थान की बाधाओं को तोड़ दिया है। नवोदित पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे सोशल मीडिया पर स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर जनता की राय पर ध्यानपूर्वक नजर रखें। प्रशिक्षण पद्धति पर जोर देते हुए नायडू ने कहा कि वर्तमान परिदृश्य में यह महत्वपूर्ण है कि सीखने, अभ्यास करने तथा नई अवधारणाओं को लागू करने के लिए पाठ्यक्रम के एक भाग के रूप में मामलों का अध्ययन और व्यावहारिक अनुभव को शामिल करना जरूरी है। 

             उर्दू पत्रकारिता में नए पीजी डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू करने पर आईआईएमसी की सराहना करते हुए नायडू ने कहा कि उर्दू पत्रकारिता मीडिया और हमारे देश के संचार व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है जिसने स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मंत्री ने मौलाना आजाद के अखबार अल-हिलाल की प्रशंसा करते हुए कहा कि इसने स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रवाद के समावेशी आदर्शों को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

             भारतीय युवाओं के बीच नकीब-ए-हमदर्द, प्रताप, मिलाप, कौमी आवाज़, जमींदार, हिंदुस्तान जैसे अखबारों द्वारा राष्ट्रवाद के आदर्शों के प्रसार में निभाई गयी महत्वपूर्ण भूमिका पर भी प्रकाश डाला। आईआईएमसी की पत्रिका "कम्युनिकेटर' को फिर से शुरू करने के बारे में मंत्री ने कहा कि पत्रिका शिक्षाविदों, अनुसंधान विद्वानों, और मीडिया विश्लेषको को अपने लेख प्रकाशित करने के लिए एक मंच प्रदान करेगी। 'कम्युनिकेटर' पत्रिका जन संचार की सबसे पुरानी पत्रिकाओं में से एक है जिसका प्रकाशन 1965 में किया गया था। 

            इसे 1965 में त्रैमासिक पत्रिका के रूप में शुरू किया था और बाद में एक वार्षिक प्रकाशन बना दिया गया था। 67 वें विकास पत्रकारिता पाठ्यक्रम का उद्घाटन करते हुए मंत्री ने कहा कि भारत आज दुनिया में ज्ञान केंद्र का पुराना गौरव फिर से हासिल कर रहा है। विकास पत्रकारिता पाठ्यक्रम एक-दूसरे की संस्कृति को समझने का अवसर प्रदान करेगा और आपसी मित्रता को और गहरा करेगा।

जल संसाधन की स्वच्छता बड़ी चुनौती


         इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं। जी हां, हकीकत तो यही है कि सोच-चिंतन-मंथन, कार्य संस्कृति व कार्य के प्रति लगाव-लगन निश्चित हो जाये तो कोई शक-संदेह नहीं कि लक्ष्य हासिल न हो सके। 

               जल संसाधन की उपलब्धता की बात हो या जल संसाधन को प्रदूषण मुक्त करने की कोशिश हो। यह कोशिशें तब तक सार्थक आयाम नहीं ले सकतीं, जब तक इच्छाशक्ति न होगी। केवल नीतियां तय करने, योजनायें बनाने व कानून बनाने से कोई सार्थक परिणाम आने वाले नहीं। करीब तीन दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने मातृतुल्य गंगा को प्रदूषण मुक्त करने-कराने के लिए गंगा एक्शन प्लान दिया था। हालात यह रहे कि इन तीस वर्षों में गंगधारा के जल से कहीं अधिक धनराशि बह गयी लेकिन गंगा को चाहे कानपुर हो या बनारस या पश्चिम बंगाल कहीं भी गंगा को प्रदूषण मुक्त नहीं बना सके।

             विश्व परिदृश्य पर देखे तो पायेंगे चीन की पीली नदी या यलो रिवर कभी दुनिया की सबसे अधिक प्रदूषित नदियों में थी लेकिन शासकीय व्यवस्थाओं के साथ चीन के बाशिंदों की इच्छाशक्ति ने पीली नदी की दशा-दिशा बदल दी। चीन की पीली नदी न केवल प्रदूषण मुक्त हुयी बल्कि एक पिकनिक स्पॉट में तब्दील हुयी।गंगाजल हो उसकी सहोदरी यमुना कलुषित हो गयीं। प्रदूषण खत्म करना तो दूर की बात गंगा व यमुना में अनवरत बढ़ते प्रदूषण को रोक भी नहीं सके। गंगा जल को ही लें चाहे कानपुर हो इलाहाबाद व बनारस कोलीफॉम की तादाद पांच लाख से अधिक पहंुच जाती है। यह गंगाजल आचमन व पीने लायक तो छोड़ दीजिए स्नान करने के लायक भी नहीं। 


            धार्मिक मान्यता है कि मृत्यु शैय्या पर व्यक्ति को गंगा जल का पान अवश्य कराना चाहिए लेकिन अब सवाल उठता है कि गंगधारा तो है लेकिन गंगाजल है कहां ? गंगा नदी को प्रदूूषण से मुुक्त करने-कराने के परिप्रेक्ष्य में अभी हाल में उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि गंगा नदी क्षेत्र में पॉलीथिन उपयोग को पूर्णत: प्रतिबंधित किया जाये। आदेश सिरोधार्य होना चाहिए। उपयोग पर भारी जुर्माना की व्यवस्था भी कर दी गयी। उत्तर प्रदेश सरकार ने पॉलीथिन के निर्माण से लेकर खरीदने-बेंचने तक सभी क्रियाकलाप पर प्रतिबंध लगा दिया। उल्लंघन पर छह माह की सजा व पांच लाख की धनराशि के जुर्माना का प्रावधान कर दिया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने व्यवस्था दी है कि उल्लंघन पर पर्यावरण (सरंक्षण) अधिनियम-1986 की धारा 19 के तहत आवश्यक एवं अपेक्षित कार्यवाही की जायेगी। 

            नीति निर्धारण, कानून व व्यवस्थायें तय करना नीति-नियंताओं के लिए कोई बहुत अधिक मुश्किल न होगा लेकिन अमल एवं क्रियान्वयन मुश्किलों से कम नहीं होता। किसी भी कानून की सार्थकता तभी है, जब उस पर अमल हो। करीब डेढ़ दशक पहले उच्चतम न्यायालय, भारत सरकार व प्रांतीय सरकारों ने आदेश जारी किया था कि बीस माइक्रान से पतले पॉलीथिन का उपयोग-बिक्री व उत्पादन पूर्णत: निषिद्ध कर दिया जाना चाहिए लेकिन इन डेढ़ दशक में कोई सार्थक परिणाम तो नहीं दिखे। इतना ही नहीं उच्च न्यायालय के यह भी आदेश हैं कि गंगा नदी क्षेत्र के दो सौ मीटर में मल-मूत्र का परित्याग प्रतिबंधित किया जाये लेकिन हकीकत तो यह है कि करोड़ों लीटर मल-मूत्र व अन्य गंदगी सीधे गंगा की गोद में गिर रही है। ऐसा भी नहीं है कि गंगा यमुना की मलिनता को खत्म करने के प्रयास नहीं हो रहे हैं। प्रयास भी हो रहे हैं, नीतियां भी बन रहीं हैं लेकिन सार्थक परिणाम नहीं आ रहे। 

                  भारत सरकार ने एक बार फिर 'नमामि गंगे" के सूक्तिवाक्य से गंगाजल की निर्मलता की कोशिश की है। इसके लिए केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनरोद्धार मंत्रालय ने मानव संसाधन मंत्रालय से सहयोग की अपेक्षा कर हाथ मिलाये हैं। सहयोग की यह दीर्घकालीन योजना है। निश्चय ही इस नीति-व्यवस्था के सार्थक परिणाम आयेंगे, भले ही इन परिणामों के आने में कुछ वक्त लगे। नमामि गंगे की इस नीति-मंथन में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, शैक्षणिक संस्थानों सहित गांव-गिरांव के सामान्य जन से लेकर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को जोड़ने की कोशिश है। इसमें सबसे महत्वपूूर्ण योगदान-सहयोग मानव संसाधन मंत्रालय ही कर सकेगा।

             भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान गंगा स्वच्छता में तकनीकि सहयोग करेगा तो वहीं शैक्षणिक संस्थान बाशिंदों को जागरुक करेंगे। नदियों में गंदगी न फेंके... गंदगी न जाने दें... इसके नफा नुकसान समझने-समझाने का दौर चलेगा। पर्यावरण संरक्षण से लेकर कूड़ा प्रबंधन तक बहुत कुछ नमामि गंगे में शामिल है। नमामि गंगे में मुख्यत: गंगा के जल को आचमन योग्य बनाने की कोशिश है। जल निर्मलता के इस अभियान में गंगा की सहयाद्री नदियों को भी शामिल किया गया है। इसमें राम गंगा, कालिन्द्री-काली व यमुना सहित दर्जनों सहनदियां शामिल हैं। इन सबमें सबसे बड़ी चुनौती गंगा जलधारा को निर्मल बनाने की है क्योंकि गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक करीब 2525 किलोमीटर लम्बी गंगा में आैसत प्रति वर्ष बीस करोड़ बाशिंदे व श्रद्धालु डुबकी लगाते हैं। कुंभ में डुबकी लगाने वालों की यह संख्या काफी बढ़ जाती है। चुनौती गंगा में गिरने वाले बड़े नालों के साथ छोटे नालों की गंदगी है। कारण छोटे नालों की संख्या काफी बड़ी तादाद में है। नमामि गंगे में छोटे-बड़े सभी नालों की गंदगी को शत-प्रतिशत शोधित करने की है। अब गंगधारा में जल की उपलब्धता भी एक बड़ा संकट है क्योंकि जब गंगा में जल ही नहीं होगा तो निर्मलता व अविरलता कैसे व कहां से लायेंगे। 

            एक डेढ़ दशक पहले नदी जोड़ कार्ययोजना बनी थी लेकिन कार्ययोजना फलीभूत नहीं हो सकी। लिहाजा गंगा सहित अन्य नदियों में जल उपलब्धता का जबर्दस्त संकट है। नरोरा बांध से गंगा में गंगा नदी में सामान्य जल प्रवाह के लिए कम से कम एक लाख क्यूसेक जल छोड़ने की आवश्यकता होती है लेकिन आैसतन दस हजार क्यूसेक जल ही छोड़ा जाता है। नरोरा बांध से छोड़ा गया यह जल कानपुर तक आते-आते बहुत क्षीण तादाद में नदी के प्रवाह में होता है क्योंकि नरोरा से कानपुर के बीच सहायक छोटी नदियों की जल आवश्यकता में जल चला जाता है। यह तो गंगा की सहोदरी यमुना का योगदान है, जो संगम (इलाहाबाद) में विलय होकर गंगा को प्रवाहमान करती हैं अन्यथा काशी व पटना में कहीं भी गंगधारा के अपेक्षित दर्शन भी न हो सकेंगे। 

            नदियों के जल प्रवाह में वृद्धि करने व देश के बाढ़ प्रभाव को न्यूनतम करने के लक्ष्य को पूर्व में केन्द्र सरकार ने नदी जोड़ो कार्ययोजना तैयार की थी लेकिन शायद अपरिहार्य कारणों से जल संसाधन की यह बहुआयामी कार्ययोजना आयाम नहीं ले सकी थी। अब पुन: एक बार फिर नदी जोड़ कार्ययोजना की सक्रियता दिख रही है। यदि नदी जोड़ कार्ययोजना फलीभूत होती है तो निश्चय जल संसाधन को अपेक्षित दशा व दिशा मिलेगी। कारण बाढ़ के समय नदी का अतिरिक्त जल अन्य सहयोगी नदियों में प्रवाहित होकर सामान्य स्थिति बनाने में सहायक होगा तो वहीं जल संकट की त्रासदी से गुजर रहीं नदियों को दिशा भी मिलेगी आैर दशा में भी अपेक्षित सुधार आयेगा। जल संसाधन की यह एक आपसी सहयोग की कार्ययोजना है। इसमें केन-बेतवा लिंक परियोजना, दमन गंगा-पिंजल लिंक परियोजना एवं पार तापी नर्मदा परियोजना मुख्यत: शामिल हैं। विशेषज्ञों की मानें तो इसके प्रथम चरण में करीब 6.35 लाख हेक्टेयर भूमि को सिचाई के लिए जल-पानी की उपलब्धता सुनिश्चित हो जायेगी। इस परियोजना पर करीब 9393 करोड़ धनराशि खर्च होने का अनुमान है। इससे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व बुंदेलखण्ड की आबादी को पीने का करीब 49 एमसीएम पेयजल की उपलब्धता होगी। नदी जोड़ परियोजना के क्रियान्वयन से नदियों में जल प्रवाह अर्थात जल उपलब्धता का भी संकट नहीं रहेगा।

            जिससे जल प्रदूषण पर भी अंकुश-नियंत्रण संभव है। कारण जल प्रवाह काफी कुछ प्रदूषण को खुद-ब-खुद बहा ले जायेगा। गौरतलब है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे की काशी यात्रा पर गंगधारा को निर्मल बनाने अर्थात साफ सुथरा करने के लिए 'वाटर हार्वेस्टर" मशीन का उपयोग करना पड़ा। वाटर हार्वेस्टर की क्षमता एक बार में पांच टन कचरा साफ करने अर्थात जलधारा से निकालने की है। यह मशीन जलधारा में तैरते कूड़ा कचरा व गंदगी सहित मानव व पशु शव आदि को भी उठाने-निकालने की क्षमता रखती है। जलधारा की स्वच्छता में यह मशीन काफी कारगर साबित-सिद्ध हुयी। इसकी अनुमानित लागत दो करोड़ के आसपास है। 

          अभी तक गंगा की साफ सफाई में ही इस तरह की मशीन का उपयोग नहीं किया गया बल्कि गोमती की साफ सफाई में यह मशीन उपयोग में है। आशय यह है कि नदी जोड़ परियोजना क्रियान्वित होने से इस तरह की मशीनों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। जल प्रवाह प्रदूषण कम करेगा तो वहीं जल में आक्सीजन का स्तर भी स्वत: स्फूूर्त बढ़ेगा जिससे जल जीवन की अपेक्षित रफ्तार मिल सकेगी।

                           

Monday, 16 January 2017

भारत को दुनिया का पर्यटन हब बनाने की कोशिश


      'अतुल्य भारत" केवल शब्द भर नहीं बल्कि इसमें भारतीय संस्कृति, संस्कार व देश का वैशिष्टय एवं भव्यता की आभा अवलोकित होती है।

           'अतुल्य भारत" के परिप्रेक्ष्य में भारत को विश्व का 'पर्यटन हब" बनाने की कोशिशें आयाम लेते दिख रहीं हैं क्योंकि चाहे विश्वविख्यात धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगरी 'काशी" हो या शिपिंग मंत्रालय के लाइट हाउस हों... सभी को नया आयाम-नया इन्द्रधनुषी रंग देने की कोशिशें हो रही हैं। भारत सरकार की कोशिश है कि शिपिंग मंत्रालय के प्रकाश स्तम्भ (लाइट हाउस) की श्रंखला को पर्यटन स्थल-केन्द्र के रुप-रंग में तब्दील करें। पर्यटन दिवस पर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुनिया के विशिष्टजनों को भारत भ्रमण के लिए आमंत्रित किया था। 

           प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फेसबुक संस्थापक मार्क जुकरबर्ग को भारत आने का न्योता दिया था। फेसबुक संस्थापक जुकरबर्ग शायद इसी परिप्रेक्ष्य में भारत आये भी आैर आगरा के ताजमहल  का दीदार किया। ताजमहल के सौन्दर्य से इतना अधिक प्रभावित हुये कि उन्होंने यहां तक कहा कि शीघ्र ही पत्नी को साथ लेकर ताजमहल देखने आयेंगे। केन्द्रीय पर्यटन मंत्री डा. महेश शर्मा का कथन है कि भारत को विश्व का पर्यटन हब बनायेंगे। भारत के विशिष्ट स्थलों, धरोहरों व सौन्दर्य से लबरेज वास्तुशिल्प की कलाकृतियों की वास्तविकता को बरकरार रखते हुये इन्द्रधनुषी आयाम देने की कोशिश हो रही है। 

           इसके लिए भारत व कंबोडिया ने पर्यटन विकास पर 'हम साथ साथ" के सिद्धांत पर सहमति दी है। इससे भारत व कंबोडिया के पर्यटन स्थलों के विकास एवं प्रबंधन से लेकर सांस्कृतिक मेलों-प्रदर्शनियों के आदान-प्रदान के अवसर भी खुलेंगे। पर्यटन क्षेत्र को सेवाओं-सुविधाओं से परिपूर्ण बनाने की दिशा में भारत सरकार रीति-नीति का भी निर्धारण कर रही है। पर्यटन को चाहे चिकित्सा एवं स्वास्थ्य से जोड़ने की बात हो या फिर सुरक्षा एवं स्वच्छंदता की राह हो, भारत सरकार का संस्कृति एवं पर्यटन मंत्रालय सार्थक आयाम-परिणाम देने वाली रीति-नीति पर मंथन कर रहा है। 

             इसी परिप्रेक्ष्य में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य पर्यटन बोर्ड को अस्तित्व में लाया गया।   शासकीय रीति-नीति में पर्यटकों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता में है क्योंकि पर्यटन को बढ़ावा तभी मिलेगा, जब पर्यटक सुरक्षित होंगे। खास तौर से महिला पर्यटकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना-कराना सरकार के लिए एक बड़ी चुुनौती है। पर्यटक सुरक्षित होंगे तो व्यवसाय से लेकर रोजगार के अवसर बनते-विकसित होते रहेंगे। स्वास्थ्य एवं सुरक्षा को ध्यान में रख कर भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने अतुल्य भारत हेल्पलाइन चालू की है।

             'अतुल्य भारत" हेल्पलाइन के टोल फ्री नम्बर 1800111363 एवं 1363 पर्यटकों को सुविधा-सहूलियत के लिए जारी किये गये हैं। अब सरकार के सामने इसकी उपयोगिता एवं सार्थकता की चुनौती है। अब चाहे  स्वास्थ्य की बात हो या सुरक्षा की बात हो हेल्पलाइन समय पर पर्यटकों को पर्याप्त सुरक्षा व स्वास्थ्य सेवायें समय पर उपलब्ध हो सकें, यह एक बड़ी चुनौती है। फिलहाल मंत्रालय ने हेल्पलाइन पर हिन्दी व अंग्रेजी भाषा की सुविधा दी है लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो शीघ्र ही मंत्रालय एक दर्जन अंतरराष्ट्रीय भाषाओं से हेल्पलाइन को जोड़ेगा। 

            यह अंतरराष्ट्रीय भाषायें दुनिया के पर्यटकों की दिक्कत व परेशानी समझने व उनके निदान में सहायक व मददगार साबित होंगी। पर्यटक सुरक्षा व्यवस्था को ध्यान में रख कर मंत्रालय ने पर्यटक पुलिस का गठन किया है। पर्यटन क्षेत्र में पर्यटक सुरक्षा व उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखना केन्द्र व प्रांतीय सरकारों के लिए एक बड़ी व गम्भीर चुनौती से कम नहीं क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी हो या उडीसा से उत्तराखण्ड हो.... कहीं लालित्य, सौन्दर्य व माधुुर्य से परिवेश लबरेज दिखता है तो प्राकृतिक सौन्दर्य अपनी आभा से परिवेश को आलोकित करता है। देश के इन सभी पर्यटन स्थलों पर पर्यटकों को पर्याप्त सुरक्षा व स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध करना-कराना नीति-नियंताओं के लिए आसान नहीं होगा। 

            वन अभ्यारणों के भ्रमण की बात हो या गोवा में समुद्र तटीय आनन्द लेने की बात हो, पर्यटक सुरक्षा कदम-कदम पर उपलब्ध करना-कराना अत्यन्त मुश्किल कार्य है। सरकार के सामने एक ओर पर्यटक सुरक्षा व स्वास्थ्य सेवायें एक गम्भीर चुनौती के रुप में है तो वहीं पर्यटन विकास की लम्बी योजनायें आकार लेती दिख रही हैं। शिपिंग मंत्रालय एवं प्रकाशस्तम्भ एवंं प्रकाशपोत महानिदेशालय देश में पौन सैकड़ा से अधिक करीब 78 प्रकाशस्तम्भ (लाइट हाउस) को पर्यटन केन्द्र या पर्यटन स्थल के रुप में विकसित करने की योजना पर कार्य कर रहा है। फिलहाल गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल, लक्षद्वीप, तमिलनाडु, पुंडुचेरी, आंध्र प्रदेश, ओडिसा, अण्डमान निकोबार एवं पश्चिम बंगाल शामिल हैं। 

             प्रकाशस्तम्भ को पर्यटन स्थल या केन्द्र के रुप मे विकसित करने से आसपास के इलाकों का भी विकास होगा। पर्यटकों को आकर्षित करने की इस योजना के तहत होटल-मॉल्स, रिजॉर्टस, समुद्री संग्रहालय, विरासत संग्रहालय, साहसिक खेल सुविधायें, यादगार वस्तुओं की बिक्री व प्रदर्शनी, लेजर शो, स्पा एवं कायाकल्प केन्द्र, रंगभूमि-थियेटर व अन्य पर्यटन आकर्षण की कलाकृतियां सहित बहुत कुछ विकसित होंगे। विशेषज्ञों की मानें तो गोवा के अगुवाड़ा, ओडिसा के चन्द्रभागा, महाबलीपुरम, कन्याकुमारी, तमिलनाडु के मुत्तोम, केरल में कडालुर प्वाइंट, महाराष्ट्र के कई इलाकों में परियोजनाओं पर तेजी से कार्य चल भी रहा है। गौरतलब है कि प्रकाशस्तम्भों का उपयोग सदियों से जहाज चलाने वालों के आवागमन के संकेत दीपों के रुप में रहा। व्यापक बदलाव के क्रम में अब इनकी उपयोगिता देखी जा रही है। प्रबंधन व नीति-नियंता दुनिया के प्रकाशस्तम्भ व उसके आसपास सुन्दर व शांत वातावरण व समृद्ध समुद्री विरासत की बदौलत पर्यटकों को आकर्षित करने में कामयाब रहे।

             प्रकाशस्तम्भ क्षेत्र में पर्यटन की अपार संभावनाओं को देखते हुये देश के शिपिंग मंत्रालय ने प्रकाशस्तम्भों को पर्यटन केन्द्र में तब्दील करने की नीति अपनायी है। विशेषज्ञों की मानें तो देश की करीब 7517 किलोमीटर लम्बी विशाल तयीय रेखा पर 189 प्रकाशस्तम्भ संचालित हैं। बंगाल की खाड़ी में स्थित अण्डमान एवं निकोबार द्वीप तथा अरब सागर स्थित लक्षद्वीप इनमें शामिल हैं। देश के समृद्ध समुद्री विरासत से युक्त प्रत्येक प्रकाशस्तम्भ की अपनी विशिष्ट गाथा है। जहाज चलाने वालों के लिए इनकी विशिष्टता अलग ही है। विशेषज्ञों की मानें तो इन प्रकाशस्तम्भ में पर्यटन की अपार संभावनायें हैं। देश को इनका लाभ लेना चाहिए। तमिलनाडु में चेन्नई एवं महाबलीपुरम, केरल में अलेप्पी एवं कन्नानूर प्रकाशस्तम्भ को पर्यटन केन्द्र के रुप में विकसित किया जा चुका है। देश-दुनिया के लाखों पर्यटकों की आवाजाही से चकाचौंध दिखती है।

           केन्द्र व प्रांत सरकारों को चाहिए पर्यटकों की सेवाओं-सुविधाओं का विशेष ख्याल रखें क्योंकि इससे क्षेत्र का विकास होगा तो वहीं रोजगार के अपार अवसर भी विकसित होंगे। 'अतिथि देवो भव:" की भावना सभी में होनी चाहिए। चाहे वह देश का सामान्य नागरिक हो या शासकीय व्यवस्थाओं से ताल्लुक रखने वाला नौकरशाह हो। राष्ट्र बढ़ेगा तो आप भी आगे बढ़ेंगे।

Sunday, 15 January 2017

कबाड़ अब कबाड़ नहीं रहा


            अब कूड़ा-करकट को कूड़ा नहीं समझना चाहिए क्योंकि कूड़ा का भी अपेक्षित उपयोग करें तो कूड़ा भी दौलत उगलेगा। बस समझदारी की जरुरत है क्योंकि देश-दुनिया में खोज-शोध के नित नये आयाम गढ़े जा रहे हैं। समझदारी है तो कूड़ा करकट व गंदगी से भी कुछ न कुछ हासिल किया जा सकता है।

          कूड़ा-करकट व गंदगी से कुछ बिनने वालों को देख कर भले ही नाक-भौं सिकोड़ने वालों को कुछ न दिखता हो लेकिन बिनने वालों की जिन्दगी तो उसी कूड़ा करकट व गंदगी से ही चलती है। कूड़ा से चाहे खाद बनाने की बात हो या फिर कूड़ा से बिजली बनाने की बात हो, कहीं न कहीं कूड़ा अपनी उपयोगिता को सार्थक साबित कर रहा है। अब कूड़ा चाहे घरेलू हो या मेडिकल कचरा हो या फिर इलेक्ट्रानिक कचरा हो। कूड़ा को जैविक व अजैविक श्रेणी में छांट-बांट कर अलग-अलग करने के बाद उसकी उपयोगिता को बढ़ाया जा सकता है। जैविक कूड़ा-कचरा से खाद का उत्पादन किया जा सकता है तो अजैविक कूड़ा का उपयोग र्इंट व टाइल्स बनाने में किया जा सकता है। 

           मेडिकल कचरा से भी उपयोगी तत्व निकाले जा सकते हैं। इलेक्ट्रानिक कूड़ा-कचरा भी कम उपयोगी नहीं क्योंकि इसमें स्टील व तांबा जैसी कीमती धातुओं की उपस्थिति बहुतायत में होती है। इलेक्ट्रानिक कचरा में फ्रीज, टीवी, मोबाइल, टैबलेट व लैपटॉप आदि बेकार हो जाने के बाद फेंक दिये जाते हैं। इनमें स्टील व तांबा जैसी कीमती धातुयें होती हैं। हालांकि इसको छांट-बीन कर अलग किया जा सकता है। स्टील व तांबा जैसी धातुओं को रिसाइकिल कर नये सिरे से उपयोगी बनाया जा सकता है।

           विदेश की एक कम्पनी आउरुबिस डेढ़ सौ टन इलेक्ट्रानिक कचरा का दैनिक उपयोग करती है। इससे उसे तांबा व स्टील सहित कई अन्य बहुमूल्य धातुयें मिलती हैं। जिसका रिसाइकिलिंग के लिए उपयोग किया जाता है। यूरोप की इस कम्पनी में सालाना करीब 41 हजार टन तांबा का उत्पादन होता है। कबाड़ से निकले इस तांबा का रिसाइकिलिंग कर इलेक्ट्रानिक उत्पाद बनाने के अलावा कई अन्य  क्षेत्र में इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि तांबा की खानें मुख्य तौर से चिली, ब्रााजील व कनाड़ा आदि में पायी जाती है लेकिन यूरोप की यह कम्पनी देश-दुनिया में तांबा की मांग को काफी हद तक पूरा करती है। 

          इसी तरह से प्लास्टिक के कबाड़ को भी रिसाइकिलिंग कर पाइप या अन्य उत्पाद बनाने के काम में लाया जा सकता है। हालांकि देश में अभी रिसाइकिलिंग का प्रचलन काफी कम दिखता है जबकि दुनिया के कई देश रिसाइकिलिंग में काफी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बात चाहे खराब व गंदे पानी की हो या फिर इलेक्ट्रानिक कबाड़ सहित किसी अन्य बेकार वस्तु की हो। रिसाइकिलिंग से धातुओं व अन्य खनिज के भण्डारण को लम्बे समय तक उपयोग में ला सकते हैं। 

शासकीय तंत्र व शासन-सत्ता के नीति-नियंताओं को खनिज भण्डारण की उपलब्धता को देख कर या ध्यान में रख कर नीतियां बनानी चाहिए जिससे खनिज भण्डारण का अधिकतम उपयोग भी हो सके आैर समाज की आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति भी सुनिश्चित हो सके।

Friday, 13 January 2017

आदिवासी 'कल्याण" की हो सार्थक कोशिश


       'खुशहाल भारत" की परिकल्पना तभी सार्थक दिखेगी, जब समाज के आखिरी व्यक्ति-इंसान के चेहरे पर मुस्कान हो। विकसित राष्ट्र या विकास यात्रा में हाईवे व फ्लाईओवर्स का संजाल तथा कंक्रीट की गगनचुंबी इमारतों की लम्बी-चौड़ी श्रंखला खड़ी कर देना भर पर्याप्त नहीं होगा। 

      विकसित राष्ट्र की गाथा-रचना के लिए आवश्यक होगा कि गरीब-दलित व आदिवासियों के झोपड़ों-घरौंदों में विकास की रोशनी पहंुचे। विकास की सार्थकता तभी होगी, जब गरीब-दलित व आदिवासियों को अपेक्षित स्वास्थ्य सेवायें, बेहतर शिक्षा व रोजी-रोजगार सहित आहार-विहार एवं पौष्टिक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित हो। देश के छह लाख से अधिक गांव-मजरों की एक बड़ी आबादी अभी मूलभूत सेवाओं-सुविधाओं से न केवल वंचित है बल्कि कहीं-कहीं तो अभी तक पीने का साफ सुथरा पानी आबादी को नसीब नहीं। देश की आबादी का करीब दस प्रतिशत हिस्सा शहरी इलाकों से सुदूर आदिवासी इलाकों में बसता है।

            आदिवासी इलाकों में बारह से पन्द्रह करोड़ की आबादी आंकलित की जाती है। संभव है कि आदिवासी क्षेत्रों की आबादी इससे भी कहीं अधिक हो। आवश्यक है कि देश की आदिवासी आबादी को विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जाये क्योंकि तभी सामाजिक समरसता व सामाजिक न्याय की परिकल्पना सार्थक आयाम ले सकेगी आैर एक विकसित राष्ट्र होने का दम भरने के खोखलेपन से बच सकेंगे। ऐसा नहीं है कि केन्द्र व प्रांत सरकारें गरीब-दलित व आदिवासियों के कल्याणार्थ योजनायें नहीं बनाती लेकिन योजनाओं का असल लाभ उनकी चौखट तक नहीं पहंुच पाता। 

           राष्ट्रीय स्वास्थ्य ग्रामीण मिशन के तहत अरबों की धनराशि खर्च हो गयी लेकिन  कई राज्यों में योजना की गम्भीर दशा-दिशा दिखी। विशेषज्ञों की मानें तो कहीं-कहीं तो योजनाओं की नींव तक नहीं पड़ सकी। जांच-पड़ताल व दोषियों को सजा तक योजनाओं की गड़बड़ियों को विराम नहीं दे देना चाहिए। आखिर योजनाओं के अमल में गड़बड़ी होने ही क्यों पाये। जांच-पड़ताल होने पर दोषी को भले ही सजा मिल जाती हो लेकिन गरीब-दलित व आदिवासी आबादी को योजनाओं का लाभ तो नहीं मिल सका। नीति-नियंताओं, शासक-प्रशासकों को जनता जनार्दन के कल्याणार्थ फुलप्रुफ ब्लूप्रिंट तैयार करना चाहिए जिससे गड़बड़ी की संभावनाओं की कहीं कोई गुंजाइश ही न रहे। इसके लिए आवश्यक है कि नीति-नियंताओं व शासक-प्रशासकों में इच्छाशक्ति होनी चाहिए।

             हालात यह हैं कि शासकीय व्यवस्थाओं से कहीं अधिक इच्छाशक्ति एनजीओ (गैर सरकारी संगठन ) व निजी क्षेत्र में दिख रही है। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने महाराष्ट्र के आदिवासी जनपद गढ़चिरौली के शोधग्राम में शासकीय विभागों, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद एवं स्वैच्छिक संस्थाओं के विशेषज्ञों के साथ अनुभव साझा किये कि कैसे आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर तौर तरीके से पहंुचाया जाये जिससे आदिवासी अपेक्षित लाभ महसूस कर सकें। इससे साफ है कि शासकीय व्यवस्थाओं का आदिवासी तबके तक पंहुचना आसान नहीं दिख रहा क्योंकि तभी तो स्वैच्छिक संस्थाओं के विशेषज्ञों से राय-मशवरा व परामर्श करना पड़ा। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय जनजातीय स्वास्थ्य सेवा को अपेक्षाकृत अधिक क्रियाशील बनाने की कोशिश में दिख रहा है।

            भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की मानें तो कोशिश है कि आदिवासी स्वास्थ्य सेवा जमीनी स्तर पर उतरे। कोशिश है कि आदिवासी इलाकों में मलेरिया नियंत्रण, मातृ मृत्यु दर पर नियंत्रण, मानव संसाधन की कमी के समाधान किया जाये। विशेषज्ञों की मानें तो शासकीय व्यवस्थाओं से कहीं अधिक क्रियाशीलता या सक्रियता स्वैच्छिक संस्थाओं व उनके विशेषज्ञों की दिख रही है। देखें तो अरुणाचल प्रदेश में पीपीपी माडल पर करुणा ट्रस्ट ग्रामीण सेवा उपलब्ध करा रहा है तो ओडिसा में मित्रा मलेरिया के नियंत्रण रणनीति पर क्रियाशील है। 

          छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में फुलवारी व सर्च संस्थायें सेवायें उपलब्ध करा रहे हैं। गौरतलब है कि बड़ी संख्या में आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का अकाल है। आदिवासी संक्रमण से लेकर अन्य रोगों का दारुण दु:ख-कष्ट झेलने को विवश होते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने संयुक्त तौर से एक पहल प्रारम्भ की है। इसके तहत आदिवासी स्वास्थ्य विशेषज्ञ समूह गठित किये गये हैं। इन समूह का उत्तरदायित्व है कि आदिवासी आबादी की स्वास्थ्य सेवाओं की समीक्षा करें,  सुधार एवं बेहतर बनाने के सुझाव दें, राज्यों को रणनीतिक सुझाव एवं दिशा निर्देश दें, आदिवासी आबादी की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए एक राष्ट्रीय ढ़ांचा विकसित करें। 

       अब सवाल उठता है कि शासकीय स्तर पर तैयार आदिवासी स्वास्थ्य विशेषज्ञ समूह कितनी इमानदारी से इस कार्य को अंजाम देता है क्योंकि आदिवासी स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता से लेकर आवश्यकता की समीक्षा करना आसान नहीं है क्योंकि अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे भी आदिवासी इलाके हैं, जहां पहंुच आसान नहीं है। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि केन्द्र सरकार का यह प्रयास या कोशिश धरातल पर कितनी सार्थक होगी।

          हालांकि भारत सरकार देश की स्वास्थ्य सेवाओं को अपेक्षाकृत बेहतर बनाने में कहीं भी आर्थिक संकट को आड़े नहीं देना चाहती लेकिन योजनाओं के अमल में कहीं न कहीं लाचार दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली आर्थिक मामलों की संसदीय समिति ने दवा नियामक प्रणाली के लिए 1750 करोड़ स्वीकृत किये। इससे प्रणाली को सशक्त व बेहतर बनाने का कार्य किया जाना है। इसमें नौ सौ करोड़ केन्द्रीय संस्थान खर्च करेंगे जबकि आठ सौ पचास करोड़ प्रांतीय सरकारों को उपलब्ध होंगे। 

          भारत सरकार प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत देश में तीन अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) खुलेंगे। यह संस्थान महाराष्ट्र के नागपुर, आंध्र प्रदेश के मंगलागिरी व पश्चिम बंगाल के कल्याणी में खुलेंगे। इनमें करीब 960 बिस्तर की क्षमताओं वाली स्वास्थ्य सेवाओं-सुविधाओं की उपलब्ध होंगी। इन पर कुल 4949 करोड़ की धनराशि खर्च होगी।
                          

Thursday, 12 January 2017

बालिकाओं का खिलंदड़पन बचायें

                 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ"  को आंदोलन बनाने की आखिर आवश्यकता क्यों पड़ी ? जी हां, देश का सर्वसमाज... कोई भी माता-पिता... कोई भी अभिभावक बेटियों को वात्सल्य, स्नेह, प्रेम-प्यार व अपनापन से लबरेज रखता है लेकिन कहीं न कहीं उसके अंर्तमन में  शंकायें-चिंतायें घेरती है जिससे सर्वसमाज बेटियों की सुरक्षा-सरंक्षा से लेकर उसके बेहतर भविष्य को लेकर चिंतित रहता है। बात चाहे दहेज उत्पीड़न की हो या सामाजिक सुरक्षा-संरक्षा की हो या फिर आर्थिक सुरक्षा-संरक्षा की हो।

          शासन-सत्ता से लेकर सर्वसमाज को बालिका सुरक्षा-संरक्षा का ताना-बाना खड़ा करना चाहिए। इसके लिए कानून से कहीं अधिक नैतिक बल एवं आत्मविश्वास का बलवती होना आवश्यक है क्योंकि कानून तो बहुतायत में बनते-बिगड़ते हैं लेकिन नैतिक बल व आत्मबल सामाजिक दिशा बदलने का एक सशक्त संबल रखता है। बालिकाओं को सुरक्षा-संरक्षा देने में महिलाओं को ही मुख्य तौर से आगे आना चाहिए क्योंकि महिलाओं के संरक्षण में ही बालिका पलती, बढ़ती व पढ़ती है।

            बालिकाओं की शिक्षा-दीक्षा व संस्कार में भी भेदभाव नहीं होना चाहिए। सर्वसमाज खास तौर से महिलाओं को अपनी इस सोच में बदलाव-परिवर्तन लाना चाहिए कि बेटी तो पराया धन है... उसे तो पराये घर जाना है...। बेटी घर की मान-मर्यादा भी तो है। इसका भी तो ख्याल रखना चाहिए। सोच बदलेंगे तो बेटी पढ़ेगी भी आैर बेटी बढ़ेगी भी। बेटियां बोझ नहीं होतीं... बेटियां तो घर परिवार की इज्जत-मान-मर्यादा होती है। भारत सरकार ने 'बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ" आंदोलन का शंखनाद किया। जाहिर सी बात है कि बालक-बालिकाओं के असंतुलन से सर्वसमाज ही नहीं देश की सरकार भी चिंतित है वर्ना कोई वजह नहीं थी कि इस आंदोलन को आयाम दिया जाये।

                साफ जाहिर है कि बालक-बालिकाओं का यह असंतुलन खत्म नहीं किया गया तो सामाजिक असंतुलन बिगड़ेगा। भारत सरकार ने देश के सामने सवाल यूं ही नहीं खड़ा कर दिया कि 'बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे"....  यह कड़ुवा सच है। इस पर सर्वसमाज को गम्भीरता से चिंतन-मनन-विचार-विमर्श करना चाहिए। आधी आबादी के लिए गम्भीर होना पड़ेगा। कहीं ऐसा न हो कि कल आपको यह न सोचना पड़े कि बेटे के लिए बहू कहां से लायेंगे ? इस लिए बेटियों को सुरक्षा-संरक्षा दीजिए। चाहे बेटी आपकी हो या फिर बेटी आपके पड़ोसी की हो। सोच रखिये कि बेटी-बेटी है। बेटियों के लिए सामाजिक सुरक्षा का आवरण बनना चाहिए। 

            भारत सरकार व सर्वसमाज 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" पर संयुक्त कदमताल करेगा तो कोई वजह नहीं है कि बालक-बालिकाओं का यह असंतुलन खत्म न हो। फिर अगर देखेंगे तो अपने ही देश के दक्षिण भारतीय प्रांतों में बालकों के अनुपात में बालिकाओं की संख्या कहीं अधिक है। भारत सरकार ने 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" योजना प्रारंभ में देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के सौ चुनिंदा जिलों में राष्ट्रीय अभियान के तौर पर लेने का फैसला लिया है। खास तौर से जहां बालक-बालिकाओं का अनुपात बेहद कम है। खास बात यह है कि 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" योजना का शुभारंभ हरियाणा से इसलिए किया गया क्योंकि हरियाणा में बालक-बालिका अनुपात देश में सबसे कम यानी अत्यंत खराब स्थिति में है।

              'कन्या भ्रूण हत्या" जैसी घटनायें बदस्तूर जारी हैं। इस जघन्य अपराध-पाप के लिये कोई और नहीं, बल्कि इन अजन्मी बेटियों के नासमझ माता-पिता या यूं कहें कि इनके अपने ही जिम्मेदार हैं। कहीं शिक्षित तो  झोला छाप डाक्टर घरेलू तरीकों से अजन्मी बच्चियों की जान ले रहे हैं। कानून के बावजूद गांव, देहात से लेकर मेगाटाउन्स में कहीं खुले आम तो कहीं लुके-छिपे कन्या भ्रूण हत्या हो रही है। गौर करें तो कोई आैर वजह नहीं है कि बालिकाओं का अनुपात विराम लेता। देश का इतिहास गवाह है कि देश की इसी धरती पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, किरण बेदी, महादेवी वर्मा, ऐश्वर्या राय बच्चन, किरण शा मजुमदार, सानिया मिर्जा, सानिया नेहवाल, चंदा कोचर और लता मंगेशकर जैसी भारतीय समाज को गर्व से भर देने वाली महिलाओं ने जन्म लिया। 

             इसके  बावजूद यह स्थिति बेहद दुखद... इस बात को शायद लोग भूल जाते हैं कि बेटियां भी अपने माता-पिता का नाम रोशन करती हैं और वक्त आने पर, खासकर बुढ़ापे में उनका सहारा भी बन सकती हैं। भारत सरकार, गैर सरकारी संगठन इस घृणित सामाजिक रवैया को रोकने  की कोशिशों के बावजूद कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। भारत सरकार ने देश के माथे पर लगे इस बदनुमा दाग को धोने-साफ करने का निर्णय लिया है। इसी के तहत 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ"  को एक आंदोलन....एक  अभियान के रूप में लेने की घोषणा भारत सरकार ने की है। 'बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ" योजना निश्चय ही देश के सामाजिक परिवेश में एक आयाम लेगी।
        
             इस योजना का मुख्य लक्ष्य 'बालक-बालिका" अनुपात को बढ़ाना है। बालक-बालिका अनुपात से यह पता चलता है कि किसी भी राज्य या शहर अथवा देश में हर 1000 बालकों के अनुपात में कितनी बालिकाएं हैं। एक दुखद सच यह है कि कन्या भ्रूण हत्या की घटनाओं के कारण भारत में यह अनुपात लगातार नीचे जा रहा है। वर्ष 1991 में 1000 बालकों पर 945 बालिकाएं थीं, लेकिन वर्ष 2011 में 1000 बालकों पर 918 बालिकाएं थीं।  आंकड़ों की मानें तो इस दौरान हरियाणा में सबसे कम  यानि 877 महिलायें जबकि केरल में सर्वाधिक यानि 1000 के पीछे 1084 महिलायें हैं। देखें तो इस स्थिति में सुधार लाने के लिये व बेटियों को उनका हक दिलाने के लिए यह अभियान भारत सरकार ने शुरू किया है।

             जिससेबालिकाओं के साथ भेदभाव खत्म हो।  इतना ही नहीं कन्या भ्रूण हत्या रोकने की दिशा में तेजी व प्रभावी कदम उठा कर भारत सरकार बेहतर आज और सुनहरा कल बनाने की कोशिश में है। अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस पर बेटियों के साथ भेदभाव खत्म करने और समानता का माहौल बनाने की अपील की गयी थी। 'बेटी बचाओ-बेटी बढ़ाओ" योजना भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय एवं स्वास्थ्य मंत्रालय की संयुक्त कोशिश है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार यह योजना लड़कियों और महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करने और उन्हें सुरक्षा पर भी केंद्रित होगी।

               'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" अभियान के तहत मुख्य तौर पर ग्राम पंचायतों में गुड्डा व गुड्डी के बोर्ड लगाये जायेंगे। प्रत्येक माह इस बोर्ड में गांव के बालक-बालिका अनुपात को प्रदर्शित किया जाएगा। जिससे वस्तुस्थिति से गांव के बाशिंदे वाकिफ हो सकें। ग्राम पंचायत क्षेत्र में लड़की का जन्म होने पर उसके परिवार को सरकार तोहफा या उपहार भेजेगी। ग्राम पंचायत साल में कम से कम एक दर्जन लड़कियों का जन्मदिन मनाएगी। जिससे परिवारों का हौसला बढ़ेगा। ग्राम पंचायत क्षेत्र में बाशिंदों को 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" का संकल्प व शपथ दिलायी जायेगी। गांव में बालक-बालिका अनुपात बढ़ता है तो वहां की ग्राम पंचायत को सम्मानित किया जाएगा। 

           इस योजना के तहत बाल विवाह पर अंकुश लगाने की भी कोशिश है क्योंकि बाल विवाह के लिए अब ग्राम प्रधान को जिम्मेदार व उत्तरदायी माना जाएगा। गांव में बाल विवाह होने की दशा में ग्राम प्रधान के खिलाफ कार्रवाई सुनिश्चित कराने की व्यवस्था है। कन्या भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाने के लिए बाशिंदों को जागरुक किया जायेगा। जागरुकता के लिए स्थानीय स्कूलों और कालेजों का सहयोग लिया जाएगा। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय आंगनवाड़ी केन्द्रों के माध्यम से गर्भावस्था के पंजीकरण को प्रोत्साहित करेगा। साथ ही सभी आवश्यक व्यवस्थाओं को सुनिश्चित करेगा।

             मानव संसाधन विकास मंत्रालय बालिकाओं का पंजीकरण सुनिश्चित करायेगा, स्कूलों में बालिकाओं की अनुपस्थिति दर में कमी लाने की कोशिश करेगा, विद्यालयों में बालिकाओं के अनुरूप मानक बनाने की रीति तय करेगा, शिक्षा के अधिकार अधिनियम पर सख्ती से अमल सुनिश्चित कराये जायेंगे, स्कूलों में बालिकाओं के लिए शौचालय का निर्माण सुनिश्चित कराया जायेगा।

                   बालिकाओं के सशक्तिकरण पर आधारित इस  महत्वपूर्ण योजना 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" पर केंद्र सरकार फिलहाल 100 करोड़ रुपये खर्च करेगी। कन्या भ्रूण हत्या करने वालों पर सख्त कार्रवाई की व्यवस्था होनी चाहिए। जिससे ऐसा करने वालों के मन में भय पैदा हो। जाहिर है कि इसके लिए एक कड़ा कानून बनाना होगा। इसी तरह गर्भधारण व बालक-बालिका के  जन्म से पहले जांच करने वाले डाक्टरों पर भी कड़ाई से अकंुश लगना चाहिये।

            स्कूली शिक्षा  की अवधि में बालिकाओं के साथ समानता का व्यवहार व भाव बालकों के मन-मस्तिष्क में पैदा करने की कोशिश भी होनी चाहिये। तभी बालक-बालिका के बीच भेदभाव करने से बच सकेंगे। आर्थिक संकट में भी बालिकाओं को शिक्षित कराने वाले अभिभावकों को सार्वजनिक तौर पर पुरस्कृत व सम्मानित किया जाना चाहिए।  जिससे समाज के लिए वह नजीर बनें। इससे  संकुचित सोच वाले लोग उनसे प्रेरणा ले सकेंगे। इसके साथ ही बहादुरी के कारनामे दिखाने वाली बालिकाओं-लड़कियों को सार्वजनिक तौर पर सम्मानित किया जाना चाहिए। 

            बालिकाओं एवं महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े मसलों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। जिससे बालिकायें स्वस्थ्य रहें। इसके लिए विशेष सरकारी एवं निजी अस्पताल खोले जाने की जरूरत है। इसी तरह नई पीढ़ी का मार्गदर्शन भी अभी से ही करना जरूरी है। इन सब का सकारात्मक असर हमारे समाज पर अवश्य पड़ेगा और आगे चलकर लड़कियों एवं महिलाओं के साथ समानता का भाव लोगों के मन में पैदा होगा।
                                                                                                                

Wednesday, 11 January 2017

गांव को 'स्मार्ट" बनाने की चुनौती


      'इच्छाशक्ति" हो तो कोई भी छोटा-बड़ा कार्य नामुमकिन नहीं। किसी भी विकास योजना या कार्य को अंजाम देने के लिए आवश्यक है कि इच्छाशक्ति हो.... राजनीतिक नफा-नुकसान को नजर अंदाज कर परस्पर सहयोग की भावना हो.... लक्ष्य पानेे की चुनौती स्वीकार करने का साहस हो.... लक्ष्य हासिल करने के लिए हर कसौटी को कसने का मनोयोग हो।

        दिल्ली को वल्र्ड क्लास सिटी बनाने की कोशिशें आैर देश के 98 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद के साथ ही अब गांव-गिरांव का पिछड़ापन दूर करने की परिकल्पना को पंख लगे दिख रहे। केन्द्र सरकार ने गांव-गिरांव को भी स्मार्ट बनाने की परिकल्पना की है। सोच अच्छी है, गांव को भी स्मार्ट बनना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि गांव का अपना सोंधापन भी बरकरार रहे आैर गांव बुनियादी सेवाओं-सुविधाओं से लबरेज हों। केवल कंक्रीट का ढ़ांचा ही विकास का पर्याप्त आधार नहीं होता। इसमें स्वास्थ्य सेवाओं व बैंकिंग सिस्टम से लेकर रोजगार के पर्याप्त अवसरों की उपलब्धता भी सुनिश्चित होनी चाहिए। 

             शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजी-रोजगार के बिना 'स्मार्टनेस" का कहीं कोई मतलब नहीं। गरीब किसान या गरीब मजदूर भूखा पेट होगा तो उस गांव में चमकदार सड़कों का होना व रोशनी की पर्याप्त व्यवस्थाओं का कोई विशेष मतलब नहीं होगा। मौजूदा हालात में 'स्मार्ट गांव" बनाना किसी चुनौती से कम नहीं। जी हां, देश के गांव-गिरांव को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का विचार-मंथन व योजना निश्चय ही एक सराहनीय फैसला है लेकिन परिकल्पना या इस सपने को विधिवत साकार करना एक बड़ी चुनौती है। हालात यह हैं कि देश के अधिसंख्यक गांव-गिरांव आज भी बद से बदहाल दशाओं की गिरफ्त हैं क्योंकि कहीं पीने का पानी नहीं है तो कहीं बिजली नहीं तो कहीं सम्पर्क मार्ग अर्थात सड़क तक नहीं है। 

          देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र में सत्तासीन होते ही गांव-गिरांव की रंग-रंगत बदलने का फैसला किया था। यह खाका 'सांसद आदर्श ग्राम योजना" के तौर पर सामने आया। भले ही भारतीय जनता पार्टी सहित अन्य दलों के सांसदों ने सांसद आदर्श ग्राम योजना को क्रियान्वित होने या अमल में लाने में कुछ देर की हो लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने योजना को बनाने के साथ ही अमल में लाने की कोशिश रंगत लाते हुये दिखा दी। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यह योजना देश के गांवों के समग्र विकास को लेकर है। हकीकत तो यही है कि 'असल भारत तो गांव में ही बसता है"।

            भारत सरकार ने 11 अक्टूबर 2014 को देश.... खास तौर से गांववासियों के लिए सांसद आदर्श ग्राम योजना  लांच की। संसदीय क्षेत्र का कोई भी एक गांव चुनना आैर उसका अपेक्षित विकास करना-कराना सांसद के उत्तरदायित्व में शामिल कर दिया गया। नीति-नियंताओं की सोच रही कि देश के छह लाख से अधिक गांव-गिरांव की पगडंड़ी से लेकर उसके गलियारों की रंगत बदली जाये। 'सांसद आदर्श ग्राम योजना" में फिलहाल ढ़ाई हजार गांव को आदर्श बनाने का लक्ष्य रखा गया है। विशेषज्ञों की मानें तो 'सांसद आदर्श ग्राम योजना" के तहत चयनित गांव को हर हाल में वर्ष 2016 तक पूर्ण व अपेक्षित विकास करने की रीति-नीति तय की गयी थी। वर्ष 2016 तक सांसद को एक गांव को पूर्ण विकसित करने के बाद अपेक्षित विकास के लिए संसदीय क्षेत्र के दो अन्य गांव का चयन कर उनको वर्ष 2019 तक विकसित करना-कराना है। 

       अभी सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत चयनित गांव का पूर्ण विकसित होने का इंतजार ही कर रहे थे कि भारत सरकार ने स्मार्ट सिटी की तर्ज पर गांव-गिरांव को स्मार्ट बनाने का फैसला लिया। फिलहाल स्मार्ट गांव बनाने की इस योजना के पहले चरण में सिर्फ तीन सौ गांव को स्मार्ट बनाने की कोशिश है। भारत सरकार गांव को स्मार्ट बनाने पर फिलहाल करीब पांच हजार दो सौ करोड़ की धनराशि खर्च करेगी। परिकल्पना है कि इस योजना के तहत गांव का सामाजिक, आर्थिक व बुनियादी ढ़ांचागत विकास किया जाये। सांसद आदर्श ग्राम योजना में गांव का पूर्ण विकास करने का लक्ष्य दो वर्ष रखा गया था तो गांव को स्मार्ट बनाने के लिए तीन वर्ष की अवधि तय की गयी है। 

           विशेषज्ञों की मानें तो तीन सौ गांव समूह का अपेक्षित विकास होने के बाद भारत सरकार इस योजना को देश भर में लागू करेगी जिससे गांव-गिरांव का अपेक्षित विकास हो सके आैर गांव के बाशिंदे विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें। विशेषज्ञों की मानें तो स्मार्ट गांव बनाने की चयन प्रक्रिया भी स्मार्ट होगी। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के वैज्ञानिक, वैज्ञानिक तकनीकि से गांव का चयन करेंगे। इन गांव के विकास का उत्तरदायित्व प्रदेश सरकार व जिला प्रशासन के सुपुुर्द होगा। भारत सरकार का एलान है कि गांव के विकास पर खर्च करने के लिए तीस प्रतिशत धनराशि अधिक मुहैया करायी जायेगी। अब गांव के चयन से लेकर उसके अपेक्षित विकास की चुनौती है क्योंकि गांव को स्मार्ट बनाने की योजना भारत सरकार की है तो विकास का उत्तरदायित्व प्रदेश सरकार के कंधों पर रहेगा। ऐसे में इच्छाशक्ति, अहम व राजनीतिक नफा-नुकसान का सोच-विचार कहीं न कहीं आड़े आयेगा। 

           करीब एक दशक पहले केन्द्र सरकार ने शहर की बुनियादी सेवाओं-सुविधाओं के सुधार व गंगा में प्रदूषण जाने से रोकने के लिए जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन योजना दी थी। इस योजना के लिए एक लाख करोड़ से अधिक धनराशि के खर्च का प्रावधान किया गया। खास बात यह रही कि अधिसंख्य प्रोजेक्ट देश के दक्षिण भारतीय प्रदेशों ने झटक लिये। उत्तर भारतीय प्रदेशों में जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन के प्रोजेक्ट अधिसंख्य शहरों में अभी तक पूर्ण नहीं हो सके। स्मार्ट गांव के चयन में ग्राम पंचायतों के गांव का समूह तैयार किया जायेगा। खास तौर से इस योजना में ऐसे गांव का चयन किया जायेगा जिनकी आबादी पच्चीस हजार से पचास हजार के बीच हो। पहाड़ी, रेगिस्तान व आदिवासी क्षेत्रों में आबादी का यह मानक पांच हजार से पन्द्रह हजार के बीच रहेगा।

           स्मार्ट गांव में खास तौर से विकास के क्रम में यह सुनिश्चित किया जायेगा  कि कौशल विकास को आर्थिक गतिविधियों-क्रियाकलाप से जोड़ा जाये, कृषि आधारित उद्योग विकसित हो, डिजिटल शिक्षा की व्यवस्था हो, स्वच्छता हो, पेयजल की पर्याप्त व अपेक्षित व्यवस्था हो, कूड़ा-कचरा प्रबंधन की व्यवस्था हो, नाला-नाली व खरंजा सब व्यवस्थित हों, स्ट्रीट लाइट्स के पर्याप्त प्रबंध हों, चलता फिरता स्वास्थ्य केन्द्र हो, उच्च शिक्षा की व्यवस्था हो, आसपास के गांव को जोड़ने के लिए पर्याप्त सम्पर्क मार्ग-सड़कें हों, नागरिक सुविधा केन्द्र हों, बिजली आपूर्ति के अपेक्षित प्रबंध हों, ई-ग्राम व सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था हो एवं एलपीजी गैस सहित सभी आवश्यक सेवायें-सुविधायें सुनिश्चित हों। अब सुदूरवर्ती गांव में यह सभी सेवायें-सुविधायें विकसित करना या जुटाना कोई आसान तो नहीं। 

          जाहिर सी बात है कि यह नीति नियंताओं से लेकर कार्यदायी संस्थाओं के लिए एक बड़ी चुनौती से कम न होगा। अब देखें तो पायेंगे कि देश आजाद होने के बाद अभी तक शहरी क्षेत्र से लगे हजारों गांव में बिजली की रोशनी तक नहीं पहंुच सकी। आबादी को देखें तो करीब पच्चासी करोड़ आबादी अभी भी गांव-गिरांव में ही निवास करती है।  आबादी के इस बड़े हिस्से को मूलभूत बुनियादी सेवायें-सुविधायें तो मिलनी ही चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि नीति नियंताओं से लेकर कार्यदायी संस्थाओं में अपेक्षित विकास की इच्छाशक्ति हो। तर्क-कुतर्क के बजाय, सोच यह होनी चाहिए कि आखिर कार्य को अंजाम कैसे दिया जाये। यह सोच ही गांव-गिरांव को स्मार्ट बनायेगी। केवल आर्थिक संसाधन उपलब्ध होने से गांव स्मार्ट नहीं हो सकेंगे। इसके लिए सभी का लक्ष्य सिर्फ गांव को स्मार्ट बनाने का होना चाहिए।