आदिवासी 'कल्याण" की हो सार्थक कोशिश
'खुशहाल भारत" की परिकल्पना तभी सार्थक दिखेगी, जब समाज के आखिरी व्यक्ति-इंसान के चेहरे पर मुस्कान हो। विकसित राष्ट्र या विकास यात्रा में हाईवे व फ्लाईओवर्स का संजाल तथा कंक्रीट की गगनचुंबी इमारतों की लम्बी-चौड़ी श्रंखला खड़ी कर देना भर पर्याप्त नहीं होगा।
विकसित राष्ट्र की गाथा-रचना के लिए आवश्यक होगा कि गरीब-दलित व आदिवासियों के झोपड़ों-घरौंदों में विकास की रोशनी पहंुचे। विकास की सार्थकता तभी होगी, जब गरीब-दलित व आदिवासियों को अपेक्षित स्वास्थ्य सेवायें, बेहतर शिक्षा व रोजी-रोजगार सहित आहार-विहार एवं पौष्टिक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित हो। देश के छह लाख से अधिक गांव-मजरों की एक बड़ी आबादी अभी मूलभूत सेवाओं-सुविधाओं से न केवल वंचित है बल्कि कहीं-कहीं तो अभी तक पीने का साफ सुथरा पानी आबादी को नसीब नहीं। देश की आबादी का करीब दस प्रतिशत हिस्सा शहरी इलाकों से सुदूर आदिवासी इलाकों में बसता है।
आदिवासी इलाकों में बारह से पन्द्रह करोड़ की आबादी आंकलित की जाती है। संभव है कि आदिवासी क्षेत्रों की आबादी इससे भी कहीं अधिक हो। आवश्यक है कि देश की आदिवासी आबादी को विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जाये क्योंकि तभी सामाजिक समरसता व सामाजिक न्याय की परिकल्पना सार्थक आयाम ले सकेगी आैर एक विकसित राष्ट्र होने का दम भरने के खोखलेपन से बच सकेंगे। ऐसा नहीं है कि केन्द्र व प्रांत सरकारें गरीब-दलित व आदिवासियों के कल्याणार्थ योजनायें नहीं बनाती लेकिन योजनाओं का असल लाभ उनकी चौखट तक नहीं पहंुच पाता।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य ग्रामीण मिशन के तहत अरबों की धनराशि खर्च हो गयी लेकिन कई राज्यों में योजना की गम्भीर दशा-दिशा दिखी। विशेषज्ञों की मानें तो कहीं-कहीं तो योजनाओं की नींव तक नहीं पड़ सकी। जांच-पड़ताल व दोषियों को सजा तक योजनाओं की गड़बड़ियों को विराम नहीं दे देना चाहिए। आखिर योजनाओं के अमल में गड़बड़ी होने ही क्यों पाये। जांच-पड़ताल होने पर दोषी को भले ही सजा मिल जाती हो लेकिन गरीब-दलित व आदिवासी आबादी को योजनाओं का लाभ तो नहीं मिल सका। नीति-नियंताओं, शासक-प्रशासकों को जनता जनार्दन के कल्याणार्थ फुलप्रुफ ब्लूप्रिंट तैयार करना चाहिए जिससे गड़बड़ी की संभावनाओं की कहीं कोई गुंजाइश ही न रहे। इसके लिए आवश्यक है कि नीति-नियंताओं व शासक-प्रशासकों में इच्छाशक्ति होनी चाहिए।
हालात यह हैं कि शासकीय व्यवस्थाओं से कहीं अधिक इच्छाशक्ति एनजीओ (गैर सरकारी संगठन ) व निजी क्षेत्र में दिख रही है। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने महाराष्ट्र के आदिवासी जनपद गढ़चिरौली के शोधग्राम में शासकीय विभागों, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद एवं स्वैच्छिक संस्थाओं के विशेषज्ञों के साथ अनुभव साझा किये कि कैसे आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर तौर तरीके से पहंुचाया जाये जिससे आदिवासी अपेक्षित लाभ महसूस कर सकें। इससे साफ है कि शासकीय व्यवस्थाओं का आदिवासी तबके तक पंहुचना आसान नहीं दिख रहा क्योंकि तभी तो स्वैच्छिक संस्थाओं के विशेषज्ञों से राय-मशवरा व परामर्श करना पड़ा। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय जनजातीय स्वास्थ्य सेवा को अपेक्षाकृत अधिक क्रियाशील बनाने की कोशिश में दिख रहा है।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की मानें तो कोशिश है कि आदिवासी स्वास्थ्य सेवा जमीनी स्तर पर उतरे। कोशिश है कि आदिवासी इलाकों में मलेरिया नियंत्रण, मातृ मृत्यु दर पर नियंत्रण, मानव संसाधन की कमी के समाधान किया जाये। विशेषज्ञों की मानें तो शासकीय व्यवस्थाओं से कहीं अधिक क्रियाशीलता या सक्रियता स्वैच्छिक संस्थाओं व उनके विशेषज्ञों की दिख रही है। देखें तो अरुणाचल प्रदेश में पीपीपी माडल पर करुणा ट्रस्ट ग्रामीण सेवा उपलब्ध करा रहा है तो ओडिसा में मित्रा मलेरिया के नियंत्रण रणनीति पर क्रियाशील है।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में फुलवारी व सर्च संस्थायें सेवायें उपलब्ध करा रहे हैं। गौरतलब है कि बड़ी संख्या में आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का अकाल है। आदिवासी संक्रमण से लेकर अन्य रोगों का दारुण दु:ख-कष्ट झेलने को विवश होते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने संयुक्त तौर से एक पहल प्रारम्भ की है। इसके तहत आदिवासी स्वास्थ्य विशेषज्ञ समूह गठित किये गये हैं। इन समूह का उत्तरदायित्व है कि आदिवासी आबादी की स्वास्थ्य सेवाओं की समीक्षा करें, सुधार एवं बेहतर बनाने के सुझाव दें, राज्यों को रणनीतिक सुझाव एवं दिशा निर्देश दें, आदिवासी आबादी की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए एक राष्ट्रीय ढ़ांचा विकसित करें।
अब सवाल उठता है कि शासकीय स्तर पर तैयार आदिवासी स्वास्थ्य विशेषज्ञ समूह कितनी इमानदारी से इस कार्य को अंजाम देता है क्योंकि आदिवासी स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता से लेकर आवश्यकता की समीक्षा करना आसान नहीं है क्योंकि अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे भी आदिवासी इलाके हैं, जहां पहंुच आसान नहीं है। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि केन्द्र सरकार का यह प्रयास या कोशिश धरातल पर कितनी सार्थक होगी।
हालांकि भारत सरकार देश की स्वास्थ्य सेवाओं को अपेक्षाकृत बेहतर बनाने में कहीं भी आर्थिक संकट को आड़े नहीं देना चाहती लेकिन योजनाओं के अमल में कहीं न कहीं लाचार दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली आर्थिक मामलों की संसदीय समिति ने दवा नियामक प्रणाली के लिए 1750 करोड़ स्वीकृत किये। इससे प्रणाली को सशक्त व बेहतर बनाने का कार्य किया जाना है। इसमें नौ सौ करोड़ केन्द्रीय संस्थान खर्च करेंगे जबकि आठ सौ पचास करोड़ प्रांतीय सरकारों को उपलब्ध होंगे।
भारत सरकार प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत देश में तीन अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) खुलेंगे। यह संस्थान महाराष्ट्र के नागपुर, आंध्र प्रदेश के मंगलागिरी व पश्चिम बंगाल के कल्याणी में खुलेंगे। इनमें करीब 960 बिस्तर की क्षमताओं वाली स्वास्थ्य सेवाओं-सुविधाओं की उपलब्ध होंगी। इन पर कुल 4949 करोड़ की धनराशि खर्च होगी।
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