Sunday, 22 January 2017

इच्छाशक्ति से ही महिला सशक्तिकरण

  
           'महिलाओं" को सत्ता शक्ति की आक्सीजन से लबरेज करेंगे। जी हां, भारत सरकार की रीति-नीति तो यही बयां कर रही है कि महिलाओं को 'राजनीतिक सशक्तिकरण" की  आक्सीजन दी जायेगी। राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए महिलाओं को एक बार फिर आरक्षण में इजाफा का लाभ मिलेगा।

           पंचायतों में अभी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का लाभ हासिल है। पंचायती राज व्यवस्था में 33 प्रतिशत के इस आरक्षण को अब बढ़ा कर पचास प्रतिशत करने की तैयारी है। भारत सरकार की मानें तो महिलाओं को पंचायती राज व्यवस्था में 33 प्रतिशत आरक्षण में वृद्धि कर पचास प्रतिशत करने संशोधन लाने की तैयारी है। आरक्षण में इजाफा का यह संशोधन (प्रस्ताव) संसद के बजट सत्र अर्थात शीघ्र लाने की कोशिश है। ऐसा नहीं है कि अभी महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण का लाभ हासिल नहीं है लेकिन संविधान संशोधन के बाद इसे देश के सभी राज्यों में अनिवार्य तौर पर लागू किया जायेगा।

             इस आशय के संकेत खुद भारत सरकार के ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्रालय ने दिये हैं। इस संशोधन को सर्वमान्य बनाने के लिए भारत सरकार राजनीतिक दलों का समर्थन जुटाने की कोशिश में है क्योंकि राजनीतिक दलों के समर्थन के बिना संंशोधन को सर्वमान्य बनाना असंभव होगा। ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्रालय की मानें तो संविधान संशोधन को प्रभावशाली तौर तरीके से लागू किया जाये तो निश्चय ही समाज में व्यापक स्तर पर बदलाव-परिवर्तन को महसूस किया जा सकेगा। संविधान संशोधन करना हो या कोई नया कानून बनाना हो तो सरकार रणनीतिक दांव-पेंच से अपनी इच्छाओं को अमल में ला सकती है। इसमें कहीं कोई संदेह-शक की गुंजाइश कम ही रहती है। 

             विशेषज्ञों की मानें तो अधिनियम को प्रभावशाली तरीके से लागू किया जाये तो निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। निश्चय ही ऐसी स्थिति में जनजातीय आबादी, ग्राम पंचायत स्तर व छोटी ग्राम सभाओं के मसले... समस्यायें आदि आसानी से सामने आ सकेंगे। निस्तारण की प्रक्रिया भी आसान होगी। महिलाओं को सत्ता में आरक्षण का यह प्रतिशत बढ़ाने से लेकर नियमों, पंचायती राज अधिनियम, अनुपालन, ग्राम सभाओं की कार्य संस्कृति, ग्राम सभाओं की अधिकारिता, ग्राम सभाओं की संरचनाओं सहित अनेक मसलों पर नीति नियंताओं के बीच मंथन-विचार विमर्श दिखने लगा। 

            समाज के सर्वांगीण विकास.... सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के लिए आवश्यक है कि विकास की नीतियां बनें तो वहीं आवश्यक हैं कि अधिनियम-कानून भी बनें। अधिनियम-कानून बनने से भी कहीं अधिक आवश्यक है कि उसका अनुपालन-क्रियान्वयन सुनिश्चित हो क्योंकि अनुपालन सुनिश्चित न होने से कानून का कोई मतलब नहीं रह जाता। अब चाहे स्थानीय निकायों को स्वायत्तशासी बनाने की बात हो या सत्ता को स्थानीय स्तर पर प्रभावी बनाने की बात हो। संविधान के 73 एवं 74 वे संशोधन में निचली सरकार को सही मायने में सरकार बनाने की ताकत दी गयी लेकिन हकीकत में देखें तो संविधान का यह अतिमहत्वपूर्ण संशोधन फाइलों से बाहर नहीं निकल सका। 

              कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश सहित देश के दक्षिण के राज्यों को छोड़ दिया जाये तो संविधान का 73 व 74 वां संशोधन देश के अधिसंख्य राज्यों में हाशिये पर चला गया। लोकसभा व विधानसभा क्षेत्रों को छोड़ दिया जाये तो सही मायने में महिलाओं को आरक्षण का लाभ नहीं मिल सका। अब चाहे बात स्थानीय निकाय में नगर निगम की हो या पंचायत क्षेत्र की हो.... आरक्षण से महिलाओं को भले जनप्रतिनिधि का दर्जा हासिल हो गया हो लेकिन हकीकत में महिलाओं का एक बड़ा तबका 'रबर स्टैम्प" से अधिक कुछ भी नहीं दिख रहा। ग्राम पंचायत हों या नगर निगम हों या फिर नगर पालिका क्षेत्र हों.... महिलाओं को आरक्षण का लाभ तो मिलता है लेकिन अधिसंख्य फैसले उनके पति या अन्य पुरुष परिजन लेते हैं। ग्राम पंचायत में महिलाओं के अधिकार क्षेत्र में पुरुष वर्चस्व कायम रहता है। 

            लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ही सत्ता का हुक्मरान माना गया है लेकिन आरक्षण की इस व्यवस्था ने महिलाओं को राजनीतिक सशक्तिकरण तो दिया लेकिन पुरुष वर्चस्व ने नारी सशक्तिकरण में स्पीड ब्रोकर-बैरियर लगा दिये जिससे अधिकार सम्पन्न होने के बावजूद महिलायें दोयम दर्जे की दशा-दिशा में खड़ी दिखती हैं। गौरतलब है कि देश का संविधान ब्रिाटेन की संसदीय व्यवस्थाओं-प्रणाली पर आधारित है लेकिन ब्रिाटेन व भारत की संसदीय परम्पराओं में एक बहुत बड़ा फर्क-बहुत बड़ा अन्तर है कि ब्रिाटेन में संसद सर्वोच्च है लेकिन देश में संविधान सर्वोच्च स्थान रखता है। संविधान संशोधन ने ही भूरिया समिति की रिपोर्ट के आधार पर पंचायती राज (अनुसूूचित क्षेत्रों का विस्तार) अधिनियम-1996 में लागू किया था।

             भूरिया समिति की रिपोर्ट 1995 में पेश की गयी थी। इसे एक वर्ष के बाद लागू किया गया था। विशेषज्ञों की मानें तो पंचायती राज व्यवस्था में गांव-गिरांव, तालुका व जिला सहित सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र आता है। देश में लम्बे समय से पंचायती राज की व्यवस्था अस्तित्व में रही। देश आजाद होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल में संवैधानिक तौर तरीके से राजस्थान के नागौर जिला में 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गयी थी। विशेषज्ञों की मानें तो संविधान के अनुच्छेद 40 में प्रांतीय सरकारों को पंचायती व्यवस्था को अमल में लाने की पहल की गयी थी। करीब ढ़ाई दशक पहले वर्ष 1993 में संविधान में 73 वां संशोधन किया गया। इस 73 वां संविधान संशोधन अधिनियम में निचली सरकारों को ताकत दी गयी। संविधान के इसी संशोधन से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया। 

             महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सपने-स्वप्न को सार्थक आयाम देने की दिशा में कोशिश की गयी। संविधान संशोधन में व्यवस्था दी गयी कि प्रत्येक पांच वर्ष में पंचायतों के नियमित चुनाव-निर्वाचन होंगे। अनुसूचित जाति एवं जनजाति को आबादी के आधार पर सीटों का आरक्षण मिलेगा। महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण होगा। पंचायत की निधियों में सुधार के उपाय अमल में लाये जायेंगे। राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर पंचायतों को आर्थिक संसाधन उपलब्ध होंगे। पंचायतों को स्वशासन संस्थाओं के तौर पर कार्य करने के लिए आवश्यक शक्तियां दी जायेंगी।

             इसमें आर्थिक विकास से लेकर सामाजिक न्याय सहित बहुत कुछ सम्मिलित किया गया था। संविधान के 73 वां संशोधन में ग्राम सभाओं को शक्तियां प्रदान की गयीं, उनमें मुख्यत: गणतंत्र दिवस, श्रम दिवस, स्वतंत्रता दिवस व गांधी जयंती पर ग्राम सभाओं की पंचायत-चौपाल-बैठक आयोजित करने की व्यवस्था दी गयी। यह व्यवस्थायें इस लिए तय की गयीं जिससे ग्राम सभाओं के सदस्य अपने अधिकारों व शक्तियों से अवगत हो सकें। भागीदारी सुनिश्चित हो। कोशिश थी कि खासतौर से महिलाओं तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को प्रगतिशील बनाया जाये। 

           कोशिश थी कि ग्राम विकास मंत्रालय की मूलभूत सेवाओं की विकास योजनाओं से लेकर जनता जनार्दन का अपेक्षित विकास हो। वित्तीय कुप्रबंधन पर रिकवरी से लेकर दण्ड देने का अधिकार एवं शक्तियां निचली सरकार को हासिल हों। जनविकास से लेकर उनके रखरखाव की सभी आवश्यक व्यवस्थायें शामिल थीं। इतना ही नहीं गांव गिरांव से लेकर गली-गलियारों के बाशिंदों का कल्याण सुनिश्चित करना आदि-अनादि शामिल किया गया। इसमें बाशिंदों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सामुदायिक सौहाद्र्र-भाईचारा, जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करना-कराना, सामाजिक न्याय की व्यवस्था को कायम करना-कराना, झगड़ों का निपटारा करना-कराना, बच्चों खास तौर से बालिकाओं के कल्याण करना-कराना आदि क्रियाकलाप शामिल थे।

           इसी तरह से संविधान के 74 वां संशोधन में नगर निगमों को स्वायत्तशासी संस्था के तौर पर शक्ति सम्पन्न बनाने का खाका खींचा गया था लेकिन नगर निकायों में ई-गर्वनेंस को छोड़ कर कहीं कोई बदलाव नहीं आये। संविधान संशोधन की करीब-करीब सभी व्यवस्थायें-प्रावधान हाशिये पर चले गये। विशेषज्ञों की मानें तो संविधान के 73 वां एवं 74 वां संशोधन के शत-प्रतिशत लागू होने से प्रांतीय सरकारों की दखलंदाजी खत्म हो जायेगी। लिहाजा कतिपय प्रांतीय सरकारें संशोधन को लागू नहीं करना चाहतीं। अब महिलाओं को आरक्षण 33 प्रतिशत से बढ़ा कर 50 प्रतिशत करने पर मंथन हो रहा है। 

           महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिलना भी चाहिए। शासन सत्ता में महिलाओं की अपेक्षित भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। हक वास्तविक हकदार को मिलना चाहिए लेकिन वास्तविक धरातल पर महिलाओं को आरक्षण का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। गांव-गिरांव में महिलाओं के हक हुकूक पर अधिसंख्य पुरुष वर्चस्व दिखता है। इसका एक बड़ा कारण ग्रामीण इलाकों में महिलाओं का एक बड़ा तबका दबा-कुचला सा है। लिहाजा अधिकार एवं शक्तियां होने के बावजूूद वह खुल कर समाज के सामने नहीं आ पातीं। 

          हालात यह हैं कि मां या पत्नी गांव की प्रधान होती हैं लेकिन शासकीय दफ्तरों से लेकर गांव की चौपाल तक पति, बेटा या देवर, भाई-भतीजा ही दिखता है। महिलाओं को आरक्षण से लेकर बराबरी का दर्जा देने के लिए आवश्यक है कि सर्वसमाज में इच्छाशक्ति हो। नारी कार्य संस्कृति को स्वीकारने की इच्छाशक्ति हो। इच्छाशक्ति बनेगी-बदलेगी तो नारी शक्ति बनेगी।

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