Friday, 30 December 2016

अब पोलियो नहीं, टीबी की चुनौती 


      देश के बाशिंदों को खुश होना चाहिए कि अब भारत पोलियो मुक्त हो चुका है। जी हां, करीब एक दशक या इससे अधिक समय से भारत सहित दुनिया के तमाम  देशों में पोलियो संक्रमण के खिलाफ एक जंग छेड़ी गयी। पोलियो संक्रमण के खिलाफ इस जंग में सरकारी तंत्र से लेकर समाजसेवियों व एनजीओ की फौज जुट गयी। वैक्सीनेशन बाक्स लेकर स्वास्थ्य टोलियां घर-घर, गली-मोहल्लों में घूमने लगीं।

 आखिरकार देश ने पोलियो संक्रमण के खिलाफ जंग जीत ली। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने देश के स्वास्थ्य मंत्री को बाकायदा 'पोलियो मुक्त भारत" का प्रमाण पत्र सौंपा था। देश के बाशिंदों को खुश होना चाहिए कि अब उनके बच्चों को इस खतरनाक संक्रमण से कोई खतरा नहीं रहा। हालांकि उनको टीकाकरण की राह तो अपनानी ही होगी। विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 1996 में पोलियो पीड़ितों-प्रभावितों की संख्या पचास हजार सामने आयी थी लेकिन 10 साल से देश में एक भी पोलियो संक्रमित सामने नहीं आया। 10 साल पहले पश्चिम बंगाल में एक बालिका पोलियो संक्रमण से प्रभावित हुयी थी।

           इसके बाद कोई संक्रमित बच्चा सामने नहीं आया। 'पोलियो मुक्त भारत" की खुशफहमी से  देश को सतर्क व सावधान रहना चाहिए क्योंकि पोलियो संक्रमण से देश भले ही मुक्त हो गया हो लेकिन संक्रमण के खतरे अभी खत्म नहीं हुये हैं। देश के सामने तपेदिक अर्थात टीबी का संक्रमण एक बडे़ खतरे को लेकर खड़ा है। इस संक्रमण से बचना देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2006 में एक कार्य योजना तपेदिक अर्थात टीबी की रोकथाम के लिए बनायी थी। इसमें बीस अरब डालर खर्च करने की योजना थी। कोशिश थी कि टीबी की बीमारी को भले ही खत्म न किया जा सके लेकिन इतना अवश्य हो जाये कि वर्ष 2015 तक तपेदिक संक्रमण फैलना बंद हो जाये जिससे देश दुनिया के बाशिंदे तपेदिक की चपेट में न आने पायें।

           विशेषज्ञों की मानें तो दुनिया में हर बीस सेकेण्ड में तपेदिक अर्थात टीबी से एक मौत हो जाती है। दुनिया में सालाना नब्बे लाख से एक करोड़ बाशिंदे प्रभावित-पीड़ित या संक्रमित होते हैं। चीन भी इस दिशा में शोध कर रहा है। टीबी से बचाव व मुक्ति के इस शोध पर चीन करीब दस करोड़ डालर खर्च कर रहा है।

       हालात-ए-गौर करें तो देश में तपेदिक अर्थात  टीबी संक्रमण के खतरे कम नहीं हैं क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद व्यवस्थायें सुनिश्चित नहीं हो सकीं। देश के करोड़ों बाशिंदों को कूड़ा करकट व गंदगी व संक्रमण के बीच जीवन का गुजर-बसर करना पड़ रहा है। संक्रमण से बचाव के लिए आवश्यक है कि बाशिंदों को साफ सुथरा रिहायशी परिवेश मिले। साफ सुथरा पीने का पानी उपलब्ध हो। बेहतर स्वास्थ्य सेवायें-सुविधायें उपलब्ध हों। टीबी के संक्रमण से बचाव के लिए टीकाकरण के साथ साथ अनुकूल परिवेश भी देश के बाशिंदों को उपलब्ध होगा, तभी सार्थक परिणाम आ सकेंगे। इस चुनौती को देश के नीति-नियंताओं को गम्भीरता से लेना चाहिए। 


                          

Thursday, 29 December 2016

 'इच्छाशक्ति" से ही बनेंगे  'स्मार्ट सिटी" 

         सोच अच्छी हो... सोच विकास की हो... दिशा रचनात्मक हो तो कोई वजह नहीं कि कायाकल्प न हो। शहरों का न केवल कायाकल्प होना चाहिए बल्कि आदर्श-आइडियल शहर विकसित होने चाहिए।

     कोरी लफ्फाजी, दोहरी नीति-रीति व आरोप-प्रत्यारोप शहरों की दशा-दिशा नहीं बदल सकते। शय-मात के खेल नहीं होने चाहिए। विकास को राजनीति के चश्में से नहीं देखना चाहिए। नफा-नुकसान नहीं सिर्फ विकास की रफ्तार होनी चाहिए। फिर चाहे दिल्ली को वल्र्ड क्लास सिटी बनाने की बात हो या फिर हैदराबाद या कोलकाता का कलेवर चेंज करना हो, कोई मुश्किल काम नहीं होगा। वायु प्रदूषण से लेकर साफ सफाई तक की समग्र व्यवस्थाओं के सुधार यथार्थ में बदलने चाहिए क्योंकि आज देश के अधिसंख्य शहरों में वायु प्रदूषण एवं शहरी क्षेत्रों में साफ-सफाई की दशा बेहद बदहाल है। जिसका सीधा दुष्प्रभाव शहरी बाशिंदों की सेहत व स्वास्थ्य पर पड़ता है। यह स्थिति से शहरी जीवन की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।  

       देश समाज व सरकार सभी के लिए यह गम्भीर चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि जनस्वास्थ्य से कहीं न कहीं-कभी न कभी सभी का सरोकार रहता है। बात पानी की हो तो बिजली की भी होनी चाहिए। कोशिश हो कि शहरी विकास का एक समग्र डिजाइन तैयार हो जिसमें सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट से लेकर एनर्जी डेवेलपमेंट सहित सभी कुछ शामिल हो।आवश्यक है कि भवन निर्माण नीति में इस तरह की व्यवस्थायें आयें जिससे बिजली की खपत को कम किया जा सके। विशेषज्ञों की मानें तो ऐसा करने से वर्ष 2021 तक 42,000 मेगावाट बिजली बचाई जा सकेगी। 'टेरी" की रिपोर्ट में इस आशय के संकेत भी दिये गये हैं। आवश्यक है कि कूड़ा कचरा सहित अन्य सभी संसाधनों का अपेक्षित उपयोग सुनिश्चित हो। विकास की सतत प्रक्रिया होनी चाहिए। जिसमें संसाधनों का तर्कसंगत इस्तेमाल सुनिश्चित करने के साथ-साथ पर्यावरण एवं सामाजिक पहलुओं का भी पूरा ध्यान रखा जाता हो।

         शहरों में फैले कूड़ा-कचरा को उर्जा, ईंधन, उर्वरक एवं सिंचाई जल में तब्दील करने की योजनायें बननी चाहिए जिससे निस्तारण भी हो आैर आवश्यकताओं की पूर्ति भी हो। इसमें आैद्योगिक घरानों व उद्योग जगत की भूमिका विशेष व महत्वपूर्ण हो सकती है। भारत सरकार का शहरी विकास मंत्रालय इस दिशा में कोशिश कर रहा है लेकिन कोशिशें सार्थक आयाम लेते दिखनी चाहिए क्योंकि सार्थक परिणाम ही देश की आवाम-देश की आबादी को अपेक्षित लाभ दे सकेंगी। भारत सरकार का शहरी विकास मंत्रालय इस दिशा में कार्यरत देश-विदेश की कम्पनियों व संस्थाओं की खोजबीन कर रहा है। कोशिश है कि इससे कूड़ा कचरा एवं सीवेज की व्यवस्थाओं में सुधार आयेगा। दोबारा इस्तेमाल के लिए किफायती समाधान (सोल्यूशंस) भी सामने आयेंगे। यह सभी रीतियां-नीतियां  शहरी विकास के स्वच्छ भारत मिशन, स्मार्ट सिटी व धरोहर शहरी विकास का हिस्सा होंगी। देश के करीब पांच सौ शहरों एवं कस्बों में इस तरह की योजनायें फिलहाल लाने की हलचल दिख रही है।

             शहरी विकास मंत्रालय की माने तो प्रथम श्रेणी व द्वितीय श्रेणी में आने वाले शहरों से नित्य-प्रतिदिन एक लाख तेंतीस हजार मीट्रिक टन कूड़ा-कचरा व ठोस अपशिष्ठ उत्पन्न होता है। इतना ही नहीं इन शहरों से हर दिन तकरीबन अडतीस हजार पांच सौ मिलियन लीटर सीवेज उत्पन्न होता है।  देश के शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का कार्य भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं होगा। शहरी विकास मंत्रालय सहित अन्य मंत्रालयों की कोशिश है कि देश में एक सौ स्मार्ट सिटी बनाये जायें। शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने से पहले शहरी विकास मंत्रालय ने राज्यों व नौकरशाहों से विचार-विमर्श व मंथन कर जानना चाहा कि वह वाकई शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने के प्रति गम्भीर हैं अथवा नहीं क्योंकि भारत सरकार अपेक्षित धनराशि तो उपलब्ध करा सकता है लेकिन क्रियान्वयन या अमल में लाना तो राज्य सरकारों व नौकरशाहों का उत्तरदायित्व होगा। कारण इच्छाशक्ति ही योजनाओं को आकार दे सकती है।

         स्मार्ट सिटी बनाने के लिए स्मार्ट नेतृत्व, स्मार्ट गवर्नेंस, स्मार्ट टेक्नॉलॉजी व स्मार्ट नागरिक भी होने चाहिए क्योंकि इन सभी के संयुक्त प्रयास से शहर स्मार्ट बनेंगे। शहर स्मार्ट तभी होंगे, जब शहर साफ सुथरे होंगे। बीमारियां दूर रहेंगी। इससे अर्थव्यवस्था भी सुधरेगी। जनस्वास्थ्य का सीधा असर अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। शहरों में पर्याप्त व अपेक्षित साफ सफाई व स्वच्छता न होने से बीमारियां फैलती हैं। शहरी विकास मंत्रालय की मानें तो इस कारण प्रत्येक वर्ष सकल घरेलू उत्पाद का 6.40 प्रतिशत यानी 54 बिलियन डालर का बोझ देश की आर्थिक व्यवस्था पर पड़ता है। इतना ही नहीं प्रत्येक वर्ष डायरिया से 18 लाख लोग मर जाते हैं। हालात यह हैं कि अस्सी प्रतिशत बीमारियां जल जनित हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद 19 प्रतिशत शहरी घरों में शौचालय नहीं है। इतना ही नहीं 13 प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं। 

         स्वच्छता के लिए मानसिकता बदलने के साथ-साथ व्यापक स्तर पर जागरुकता की आवश्यकता है। तभी स्वच्छ भारत, स्वच्छ समाज व स्मार्ट सिटी की परिकल्पना साकार होगी। देश की राजधानी दिल्ली को वल्र्ड क्लास सिटी बनाने की बात हो या देश के प्रमुख शहरों को स्मार्ट सिटी के रुप में विकसित करने की परिकल्पना हो या फिर देश के खास शहरों को सांस्कृतिक-पौराणिक-धार्मिक या धरोहर शहर के रूप-रंग में तब्दील करने की वैचारिकी हो.... यह सभी तभी फलीभूत होंगें, जब देश व प्रदेश संयुक्त तौर पर विकास पथ पर कदमताल करेंगे। करीब एक दशक पहले जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन के तहत उत्तर प्रदेश के कवाल टाउन्स कानपुर, आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, लखनऊ सहित देश के कई शहरों में लाख करोड़ की विकास योजनायें लागू की गयी थीं। 

            जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन (जेएनएनयूआरएम) की यह विकास योजनायें अभी तक आयाम नहीं ले सकीं। भले ही कारण कुछ भी रहे हों लेकिन देश की आम जनता को अभी तक न तो सुगम परिवहन सेवायें सुलभ हो सकीं आैर न साफ सुथरा पीने का पानी ही उपलब्ध हो सका बल्कि सप्ताह के सात दिन चौबीस घंटे पीने का पानी उपलब्ध कराने का खाका खींचा जा रहा है। चाहे पीने का पानी हो या फिर परिवहन सेवायें, विकास योजनायें बननी ही चाहिए लेकिन विकास योजनाओं को फलीभूत होने के लिए समयवद्ध  उत्तरदायित्व तय होने चाहिए क्योंकि तभी विकास योजनाओं से देश का कॉमनमैन लाभान्वित हो सकेगा। आवश्यक है कि इसके लिए केन्द्र सरकार व देश की राज्य सरकारें दलगत राजनीति से उपर उठ कर विकास योजनाओं के क्रियान्वयन से लेकर उसकी गुणवत्ता के प्रति गम्भीर हों। जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन की योजनाओं के लिए केन्द्र सरकार ने पचास प्रतिशत धनराशि बतौर अनुदान जारी की  जबकि इसमें तीस प्रतिशत अंशदान स्थानीय निकाय व बीस प्रतिशत अंशदान प्रदेश सरकार को वहन करने का प्रावधान किया गया था लेकिन केन्द्र सरकार की व्यवस्थाओं में बदलाव दिखे। 

          अब शहरी विकास के लिए केन्द्र सरकार ने कई मायनों में राज्य सरकारों पर निर्भरता की रीति-नीति को छोड़ दिया। धरोहर शहर विकास योजना के तहत अब केन्द्र सरकार परियोजना खर्च खुद उठायेगगा। धरोहर शहर विकास योजना के तहत फिलहाल देश के मुख्य  12 शहर चयनित  किये गये हैं। इन एक दर्जन शहरों के लिए केन्द्र सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने पांच सौ करोड़ रुपये की धनराशि का प्रावधान किया है। इसके पीछे शाायद मंशा यह है कि 'संस्कृति व विरासत की अनदेखी कर कोई भी राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता"। शायद इसी सोच के तहत केन्द्र सरकार ने देश के चुंनिदा शहरों को अपेक्षित विकास की स्पीड़ देने का निर्णय लिया है। विशेषज्ञों की मानें तो धरोहर शहर विकास योजना का लक्ष्य शहरों की विरासत को सुरक्षित व संरक्षित रखना है। साथ ही शहरों का समेकित, समावेशी और सतत विकास करना है। इसके तहत केवल स्मारकों के रख रखाव पर ही नहीं, बल्कि शहर के नागरिकों, पर्यटकों और स्थानीय व्यवसायों को बढ़ावा देना है। यूनेस्को ने तीस से अधिक विरासत स्थलों को मान्यता देकर सुरक्षित व संरक्षित किया है। विशेषज्ञों की मानें तो भारत का एशिया में दूसरा और विश्व में पांचवां स्थान है, जो विरासत शहरों व स्थलों के प्रति गम्भीर है। देश में पर्यटन की संभावनाओं का अभी तक पूरा लाभ नहीं उठाया जा सका क्योंकि अपेक्षित विकास न होने से पर्यटन शहरों व स्थलों की ओर पर्यटकों को आकर्षित नहीं किया जा सका। 

          संभव है कि शहरी विकास मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय व पर्यटन मंत्रालय की नयी योजनायें कोई नया आकार गढ़ें। धरोहर शहर विकास योजना के तहत आबादी के आधार पर काशी-बनारस को 89.31 करोड़ रुपए, अमृतसर को 69.31 करोड़ रुपए, वारंगल को 40.54 करोड़ रुपए तथा अजमेर, गया व मथुरा को चालीस-चालीस करोड़ रुपए, कांचीपुरम को 23.04 करोड़ रुपए और वेलानकिनी, अमरावती, बदामी एवं द्वारका को करीब पच्चीस-पच्चीस करोड़ रुपए तथा पुरी को 22.54 करोड़ रुपए मिलेंगे। विकास की यह नयी चुनौतियों अब स्थानीय निकायों के सामने खरा उतरने की हैं। शहरी स्थानीय निकायों को परियोजनाओं के विकास के लिए धनराशि तो केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालय उपलब्ध करायेंगे लेकिन योजनाओं को आकार देने का उत्तरदायित्व तो स्थानीय निकायों पर रहेगा।

          हालात यह हैं कि शहरों के विकास में अब पारम्परिक चाल-ढ़ाल व रवैया नहीं चलेगा कि केन्द्र सरकार ने धनराशि जारी कर दी आैर राज्यों ने विकास की आैपचारिकतायें पूरी कर इतिश्री कर ली क्योंकि यदि शहरों का समग्र या सम्पूर्ण विकास चाहिए तो विकास को एक चुनौती के रूप में जनप्रतिनिधियों से लेकर नौकरशाहों को लेना होगा। शहरी प्रशासन में सुधार और नई चुनौतियों पर खरा उतरने की क्षमता शहरी स्थानीय निकायों में होनी चाहिए। इसी क्षमता के आधार पर शहरी विकास मंत्रालय स्मार्ट सिटी के लिए शहरों को चयनित करेगा। शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू खुद इस आशय के संकेत दे चुके हैं। भारत सरकार का शहरी विकास मंत्रालय फिलहाल देश के सौ स्मार्ट शहरों और पांच सौ शहरों व कस्बों में विकास के रंग भरने की योजनाओं पर कार्य कर रहा है। कोशिश है कि विकास के इस इन्द्रधनुष में जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूवल मिशन के अनुभव के रंग भरे जायें। व्यवस्थाओं को देखें तो देश में प्रति व्यक्ति प्रति दिन एक सौ पैंतीस लीटर पानी उपलब्ध होना चाहिए लेकिन उपलब्धता पचहत्तर लीटर से भी कम है। शहरी क्षेत्र में पचास फीसदी परिवारों या आवासों में पानी कनेक्शन हैं। 

         हालात यह हैं कि शहरी क्षेत्र में सिर्फ चालीस प्रतिशत में घरों में शौचालय की व्यवस्था है तो वहीं सोलह से बीस फीसदी सीवरेज शोधित हो पाता है। इतना ही नहीं शहरी क्षेत्र में कचरा प्रबंधन एक बड़ी समस्या है। करीब बीस से पच्चीस फीसदी कचरा का अपेक्षित निस्तारण हो पाता है।कचरा रिसाइकिलिंग की व्यवस्था अत्यधिक कमजोर है क्योंकि बमुश्किल दस फीसदी कचरा ही रिसाइकिल हो पाता है। विशेषज्ञों की मानें तो अगले बीस वर्षों में बुनियादी ढ़ाचे में सुधार के लिए चालीस लाख करोड़ चाहिए होंगे। इसके साथ ही व्यवस्थाओं के संचालन एवं शहरी उपयोगिताओं के रखरखाव के लिए करीब बीस लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। आवासों की कमी को पूरा करने के लिए भी बड़ी धनराशि चाहिए होगी। विशेषज्ञों की मानें तो 15 लाख करोड़ रुपए आवास की कमी को पूरा करने के लिए और 60 हजार करोड़ रुपए स्वच्छता के लिए आवश्यक है। हालात पर गौर करें तो इन सबके लिए कुल एक हजार दो सौ बिलियन अमेरिकी डालर की आवश्यकता है। अब सरकार की कोशिश है कि इसका अधिसंख्य हिस्सा निजी क्षेत्र से आये। 
                      

Friday, 23 December 2016

अब खाइये जेनेटिक मॉडीफाइड आलू


        अब आपको जेनेटिक मॉडीफाइड आलू खाने को मिलेंगे। जी हां, इस आलू का स्वाद भी कुछ खास होगा तो वहीं इसे अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकेगा।

    आयरलैण्ड के कृषि वैज्ञानिकों ने जेनेटिक माडीफाइड आलू विकसित की है। सामान्यत: आलू नमी व उमस में सड़ने लगता है। आलू को फ्रिज में भी रखा जाये तो कितना रखा जायेगा। देश दुनिया के वैज्ञानिक आलू को सड़ने से बचाने के लिए काफी चिंतित थे। विशेषज्ञों की मानें तो आयरलैण्ड में करीब पौने दो सौ साल पहले 1840 में सूखा पड़ा था। इस सूखे में बड़ी तादाद में आलू सड़ गया था।

       लिहाजा आयरलैण्ड के कृषि वैज्ञानिक आलू पर शोध-अध्ययन व अविष्कार में जुट गये। आयरलैण्ड के कृषि वैज्ञानिकों ने अथक शोध-अविष्कार के बाद जेनेटिक मॉडीफाइड आलू विकसित किया है। यह मॉडीफाइड आलू लम्बे समय तक खराब न होगा। साथ ही स्वाद भी कहीं अधिक अच्छा होगा। देश दुनिया के गांव-गिरांव, खेत-खलिहान से लेकर मेगाटाउन्स के आलीशान मार्केट्स में हर साल करोड़ों ƒ धनराशि के साग-भाजी आलू सड़-गल कर बर्बाद हो जाती है। फल व सब्जियों को खराब व बर्बाद होने से बचाने के लिए खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्रालय अरबों की धनराशि की परियोजनायें बनाता है। जिससे फल एवं साग-सब्जियों को प्रोसेस कर भविष्य के लिए उपयोगी बनाया जा सके।

         इसके बावजूद हर साल लाखों टन फल व सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। ब्रिाटेन में सालाना 60 लाख टन आलू सड़ कर बर्बाद हो जाता है। सामान्य तौर पर आलू को कीटनाशकों से बचाने के लिए एक दर्जन से अधिक बार कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है। आलू को सड़ने गलने से बचाने के लिए यूरोप में भी कृषि वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। देश में इस वर्ष आलू की रिकार्ड फसल होने का अनुमान है। कृषि विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 2012-2013 में आलू का उत्पादन 453.43 लाख टन हुआ था जबकि इस वर्ष आलू का उत्पादन 464.43 लाख टन होने का अनुमान है। अब खास बात यह है कि आलू को सड़ने से बचाने की कोशिश होनी चाहिए। आलू एक ऐसा सब्जी जींस जो हर सब्जी के संग मिलाया जाता है। आलू की खाद्य  पदार्थ के अलावा भी कई अन्य उपयोगितायें हैं। कच्चा आलू झुर्रियों को मिटाने के आैषधीयं उपयोग में आता है तो वहीं दाद, फुंसियों, गैस, मांसपेशियों के रोग में भी उपयोगी होता है।


                          

Thursday, 22 December 2016

फ्लाई एश का प्रदूषण भी कम नहीं


     'शोध-अनुसंधान" एवं  'खोज तथा विकास" की रीति नीति निश्चय ही देश में बदलाव लायेगी। बदलाव के लिए आवश्यक है कि शासन-सत्ता से लेकर नीति नियंताओं को विचार-विमर्श-मंथन पर बल देना चाहिए क्योंकि विचार-विमर्श-मंथन निश्चय ही विकास के पथ खोलने में सहायक सिद्ध-साबित होंगे। 

देश में कोयला की उपलब्धता व विद्युत उत्पादन में वृद्धि करना किसी चुनौती से कम नहीं। इससे भी बड़ी एक आैर चुनौती देश व समाज के सामने है। यह चुनौती है विद्युत उत्पादन से निकलने वाली फ्लाई एश का अपेक्षित एवं समुचित उपयोग सुनिश्चित करना। देश में करीब सत्तर से बहत्तर प्रतिशत विद्युत उत्पादन में कोयला का उपयोग किया जाता है। करीब अस्सी विद्युत उत्पादन इकाईयों में कोयला का उपयोग होता है। विशेषज्ञों की मानें तो इनसे लगभग सौ मिलियन टन फ्लाई एश सालाना निकलती है। फ्लाई एश का भण्डारण विद्युत उत्पादन इकाईयों के लिए एक बड़ी समस्या है तो वहीं विद्युत उत्पादन में चिमनियों से फ्लाई एश निकलना इलाकाई बाशिंदों के लिए परेशानी का सबब भी है। 

फ्लाई एश से परिवेश तो दूषित होता ही है बाशिंदों के सामने स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों का होना भी लाजिमी है। विशेषज्ञों की मानें तो फ्लाई एश से कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन आबादी-बाशिंदों के लिए एक बड़ा खतरा है। कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन में अमेरिका व चीन के बाद भारत सबसे बड़ा उत्सर्जक है। इस तरह देखें तो वायु मण्डल प्रदूषण में भारत विश्व का तीसरा बड़ा देश है। जन स्वास्थ्य के गम्भीर खतरा को देखते हुये कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन से बचना चाहिए। बचाव पूरी तरह से न हो पाये तो इसे न्यूनतम अवश्य करना चाहिए। विद्युत उत्पादन इकाईयों के सामने भी समस्या कम नहीं है क्योंकि फ्लाई एश के भण्डारण के लिए धनराशि व भूमि का प्रबंधन करना आवश्यक है। 

अब फ्लाई एश के अपेक्षित उपयोग की वकालत होनी चाहिए क्योंकि इससे एक तो फ्लाई एश की उपयोगिता सुनिश्चित हो जायेगी तो वहीं फ्लाई एश से उत्पादित वस्तु-सामग्री का राष्ट्र निर्माण में  अपेक्षित उपयोग भी सुनिश्चित हो सकेगा। फ्लाई एश का उपयोग सड़क बनाने, सीमेंट का उत्पादन, कंक्रीट के ब्लाक अर्थात टाइल्स बनाने में किया जा सकता है। भारत सरकार के केन्द्रीय र्इंधन अनुसंधान केन्द्र ने खोज तथा विकास कार्यक्रम में फ्लाई एश से र्इंट बनाने की वकालत की है। हालांकि र्इंट बनाने के लिए फ्लाई एश का उपयोग पहले से ही हो रहा है लेकिन अभी यह उपयोग कमतर हो रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो अभी र्इंट बनाने के लिए फ्लाई एश का उपयोग चालीस से पैंतालिस प्रतिशत तक ही हो रहा है। र्इंट बनाने के लिए फ्लाई एश का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए। इससे देश व समाज को कई फायदे होंगे। एक तो र्इंट उत्पादन के लिए मिट्टी की खोदाई नहीं करनी होगी तो वहीं फ्लाई एश का उपयोग हो जायेगा जिससे विद्युत उत्पादन इकाईयों को धन व भूमि का प्रबंधन करने से काफी हद तक निजात मिल जायेगी।

 फ्लाई एश के भण्डारण को न्यूनतम करने से भू-गर्भ जल व भूमि को प्रदूषित होने से भी बचाया जा सकेगा। भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाये रखने या बचाने के लिए आवश्यक है कि फ्लाई एश की उपयोगिता प्राथमिकता पर सुनिश्चित करनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि अभी तक इस दिशा में कोई प्रयास नहीं हुये लेकिन प्रयास सार्थक आयाम नहीं ले सके। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने वर्ष 1999 में अधिसूचना जारी कर देश के स्थानीय निकाय व डेवलपमेंट अथारिटी को दिशा निर्देश दिये थे कि भवन उप विधियों व नियमों में व्यवस्था करें कि भवन निर्माण, सड़क निर्माण, तट बंध व अन्य निर्माण में फ्लाई एश आधारित उत्पादों का उपयोग शामिल व सुनिश्चित किया जाये।

 अफसोस, यह आदेश-व्यवस्था अभी तक सार्थक आयाम नहीं ले सकी। अभी हाल में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने फ्लाई एश उपयोग के लिए आवश्यक नियम व व्यवस्थायें तय करने के दिशा निर्देश दिये हैं। शासकीय व्यवस्थाओं से ताल्लुक रखने वाले नीति नियंताओं को फ्लाई एश का अपेक्षित उपयोग सुनिश्चित करने के लिए विचार-विमर्श-मंथन करना चाहिए। ऐसी नीति-रीति तय या सुनिश्चित करनी चाहिए जिससे उसके सार्थक परिणाम देश व समाज के सामने दिखें। यथार्थ में उपयोगिता सुनिश्चित हो सके। रीति-नीति केवल बनने के लिए न बने। कारण देश व समाज के लिए वही रीति-नीति मायने रखती है आैर सार्थक रहती है जिसका लाभ समग्र-सम्पूर्ण समाज को मिले।


                          

Monday, 19 December 2016

सड़क हादसों में हर घंटे बीस मौत

    भोजन-पानी, घर-घरौंदा,कपड़ा लत्ता की आवश्यकतायें पूरी होने के साथ ही सुरक्षा अहम है। सुरक्षा चाहे देश की हो या समाज या फिर व्यक्ति की हो, खास मायने रखती है। सुरक्षा को लेकर देश-दुनिया में कानून भी हैं लेकिन कानून के साथ-साथ सुरक्षा को लेकर खुद भी सावधान-सतर्क रहना चाहिए क्योंकि हर जगह-स्थान पर कानून साथ खड़ा नहीं रहता। खुद सावधान-सतर्क रहेंगे तो कहीं अधिक सुरक्षित रहेंगे। अब देखें तो देश में आैसत हर घंटे सड़क हादसों में पन्द्रह से बीस व्यक्तियों की मौत हो जाती है। 


ऐसा नहीं कि इन आप्राकृतिक घटनाओं-दुर्घटनाओं को रोका नहीं जा सकता लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि शासकीय सेवाओं-व्यवस्थाओं के साथ-साथ खुद भी सावधान-सतर्क रहें। हालांकि समय के साथ मोटर कानून में भी बदलाव-संशोधन होना चाहिए क्योंकि सख्त एवं व्यवहारिक कानून न होने से उसे क्रियान्वित या लागू करने में दिक्कतें होती है। जिससे समाज या व्यक्ति को सीधा लाभ-फायदा नहीं मिल पाता। अब देखें तो पायेंगे कि मोटर व्हीकल एक्ट अभी भी बाबा-आदम जमाने अर्थात ब्रिाटिशकालीन चला रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो सड़क हादसों में मामूली जुर्माना होकर घटना-दुर्घटना का मामला रफा-दफा हो जाता है। विशेषज्ञों की मानें तो सालाना करीब  पांच लाख व्यक्तियों की मौत विभिन्न कारणों से हो जाती है। इनमें दो लाख व्यक्तियों की मौत केवल सड़क हादसों से होती है। इससे व्यक्ति की जान की क्षति तो होती ही है, माल की भी क्षति होती है। सड़क हादसों से दो लाख करोड़ धनराशि की आर्थिक क्षति होती है। जान-माल की इस क्षति को रोका जा सकता है।कम से कम न्यूनतम तो किया ही जा सकता है।


 हालांकि सड़क परिवहन एवं सुरक्षा विधेयक-2014 लाने की कोशिश चल रही है। सड़क हादसों को रोकने व न्यूनतम करने के लिए आवश्यक है कि सख्त व व्यवहारिक कानून हो, जनता जागरुक हो तो वहीं सड़क नेटवर्क बेहतर डिजाइन का हो। सड़क नेटवर्क बेहतर होना चाहिए क्योंकि सड़क नेटवर्क में अपेक्षित विस्तार न होने या वृद्धि न होने से वाहन चालकों के सामने दिक्कतें आती हैं। सड़क दुर्घटनाओं का एक बड़ा कारण सड़क नेटवर्क का बेहतर न होना भी है तो वहीं सड़कों का डिजाइन भी दुर्घटनाओं के लिए कम जिम्मेदार नहीं। खुद को भी दुर्घटनाओं से बचने के लिए सचेष्ट रहना चाहिये क्योंकि कई बार छोटा सा कारण भी दुर्घटना का कारण बन जाता है। कर्तव्य निवर्हन पर ध्यान देंगे तो काफी कुछ सुधरा दिखेगा क्योंकि कर्तव्य निवर्हन से व्यवस्थायें सुचारु हो जाती हैं। कर्तव्य निवर्हन से अधिकार खुद-ब-खुद हासिल हो जाते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो वाहन की यांत्रिक स्थिति ठीक न होने के कारण तीन प्रतिशत दुर्घटनायें होती हैं। खराब सड़क के कारण बारह प्रतिशत दुर्घटनायें होती हैं। 

 इसी तरह से चालक की गलती-लापरवाही से सत्तर प्रतिशत दुर्घटनायें होती हैं। खराब मौसम के कारण सात प्रतिशत दुर्घटनायें होती हैं। देश में सड़कों का संजाल करीब चौंतीस लाख किलोमीटर लम्बा है जबकि वाहनों की संख्या साढ़े नौ करोड़ है। आजादी के समय देश में सड़कों की लम्बाई 3.98 हजार किलोमीटर थी जबकि वाहनों की संख्या तीन लाख थी। अब देखें तो सड़कों पर वाहनों का दबाव काफी बढ़ा लेकिन सड़क नेटवर्क में उस रफ्तार से सुधार-बदलाव नहीं हो सका। इस पर स्थानीय निकायों  से लेकर केन्द्रीय शासन-सत्ता में बैठे नीति-नियंताओं को गम्भीरता से विचार-विमर्श करना चाहिए क्योंकि यह जान एवं माल की सुरक्षा से ताल्लुक रखने वाला गम्भीर विषय है क्योंकि क्षति तो क्षति होती है।अब क्षति चाहे व्यक्ति की हो या फिर आर्थिक हो लेकिन व्यक्ति की क्षति कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि व्यक्ति की क्षति की पूर्ति करना असंभव व नामुमकिन होता है। व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारियां-उत्तरदायित्व व कर्तव्य सहित बहुत कुछ उसमें निहीत होता है।

                          


Friday, 16 December 2016

पाण्डु नदी को अस्तित्व का खतरा 

    नदियों का सौन्दर्य, नदियों की आगोश, आबो-हवा.... मंद-मंद प्रवाहित शीतलता शनै-शनै लुप्त हो गयी। नदियों की शीतलता मन-मस्तिष्क को प्रफुल्लित कर देती थी लेकिन अब यह सब बीते कल की बातें हो गयीं क्योंकि अब तो नदियां खुद अपने अस्तित्व के लिए ही संघर्ष करने लगीं।
                           
राष्ट्रीय नदी गंगा की सहोदरी 'पाण्डु नदी" को ही लें तो उसका अस्तित्व खतरे में दिख रहा है क्योंकि अब नदी का मार्ग तो दिखता है लेकिन नदी में जल का 'प्रवाह" नहीं रहा। राष्ट्रीय नदी गंगा की सहोदरी 'पाण्डु नदी" उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद से प्रारम्भ होकर करीब एक सौ बीस किलोमीटर लम्बी यात्रा कर फतेहपुर में गंगा में विलीन हो जाती है। पाण्डु नदी का उद्गम भी गंगा की गोद से होता है आैर विलय भी गंगा की आगोश में होता है। दशकों से पाण्डु नदी का जल खेती-बारी को फलित-पुष्पित करता चला आ रहा था लेकिन उत्तर प्रदेश के ही कानपुर के आैद्योगिक क्षेत्र व बदइंतजामी ने पाण्डु नदी को कलुषित कर डाला क्योंकि कानपुर के पनकी, दादा नगर सहित कई आैद्योगिक क्षेत्रों की छह हजार से अधिक छोटे, बड़े व मंझोले श्रेणी के उद्योग, कल-कारखानों ने आैद्योगिक कचरा प्रवाहित कर नदी के जल को मैला-विषैला कर डाला। मेहरबान सिंह का पुरवा हो या कुंदौली या फिर बिनगंवा हो, इन सहित पचास से अधिक गांव-गिरांव की आबादी कभी पाण्डु नदी के जल से खेती-बारी को सिंचित-अभिसिंचित करती थी। पाण्डु नदी को कलुषित-दूषित-प्रदूषित करने में शासकीय व्यवस्थायें भी पीछे नहीं रहीं क्योंकि पनकी थर्मल पॉवर प्लांट की फ्लाई ऐश का एक बड़ा हिस्सा पाण्डु नदी की आगोश में हर दिन दफन किया जाता रहा। आप केवल परिकल्पना करें कि पॉवर प्लांट की गर्म फ्लाई ऐश पाण्डु नदी में फेंकी जाती होगी तो नदी के जल जन्तुओं का क्या हाल होता होगा....? क्योंकि गर्म फ्लाई ऐश से नदी का जल उबलने लगता है। ऐसे में जल जन्तुओं की मौत होना स्वाभाविक व लाजिमी है। पॉवर प्लांट से हर दिन आैसत चालीस टन फ्लाई ऐश नदी की आगोश में फेंकी जाती रही। इतना ही नहीं शहरी आबादी की गंदगी भी सीओडी नाला के जरिये सीधे पाण्डु नदी में गिरती है। मल-मूत्र व घरेलू गंदगी हर दिन आैसत बीस करोड़ लीटर नदी के जल को 'ब्लैक वॉटर" में तब्दील कर देता है।

ऐसा नहीं है कि पाण्डु नदी के अस्तित्व को बचाने के लिए कोई पहल नहीं की गयी लेकिन पहल कोई सार्थक परिणाम नहीं दे सकी। रमन मैगसेसे एवार्ड से अलंकृत जल पुरुष राजेन्द्र सिंह ने नदी को बचाने के लिए हरकोर्ट बटलर टेक्नीकल इंस्टीट्यूट (एचबीटीआई) के छात्रों को जागरुक भी किया लेकिन पाण्डु नदी बच न सकी। पाण्डु नदी को बचाने के लिए शासकीय प्रयास के साथ साथ आबादी को भी जागरुक होना चाहिए कि हम न तो नदी को गंदा करेंगे आैर न किसी को नदी गंदी करने देंगे क्योंकि भले ही विकास के अनेक आयाम विकसित हो गये हों लेकिन पाण्डु नदी लाखों गरीबों-गांव-गिरांव के बाशिंदों व गवंईयों की लाइफ लाइन आज भी है। नदी के जल से आसपास के खेतों की सिचाई होती है तो वहीं पशुओं को पीने का पानी भी नदी में उपलब्ध होता है। एक सार्थक कोशिश की आवश्यकता है जिससे पाण्डु नदी का अस्तित्व बच सके।

Thursday, 15 December 2016


भूख से गरीब बेहाल
अरबों का भोजन बर्बाद
एक दशक में दो लाख से अधिक लोग भूख से मरे

        'कॉमनमैन" की शक्ति-पॉवर को कम नहीं आंकना चाहिए क्योंकि 'कॉमनमैन" ही देश-दुनिया में इंकलाब लाता है। चाहे सिल्वर स्क्रीन की फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस" का डॉयलॉग 'डोंट अण्डर स्टीमेट द पॉवर ऑफ कॉमनमैन" हो या किसी राजनीतिक मंच से 'आम आदमी" की बात की जा रही हो। राजनीतिक मंच हो या फिर सिल्वर स्क्रीन की फिल्म हो.... 'कॉमनमैन" के लिए 'डॉयलॉग" तो अच्छा लगता है।

 फिल्म के दर्शक हों या फिर राजनीतिक मंच के श्रोता हों.... तालियां खूब बजाते हैं.... वाह-वाह भी खूब होती है लेकिन अफसोस 'कॉमनमैन" की दशा-दिशा से समाज से लेकर सरकार तक सभी बेपरवाह दिखते हैं क्योंकि यदि समाज-सरकार की बेपरवाही न होती तो देश-दुनिया में करोड़ों बाशिंदे भूखे या आधे पेट खाना खाकर न सोते। राजनीतिक गलियारों के विशेषज्ञों की मानें तो देश में दस वर्ष के दौरान पांच लाख बाशिंदे भूख से मर गये। अब सरकार की नजर से देखें तो भी दस वर्ष में 2.10 लाख लोग भूख से मर गये। भारत भले ही दुनिया में तीसरी महाशक्ति के तौर पर उभरा हो लेकिन हकीकत यह है कि भारत ने भुखमरी में पाकिस्तान व श्रीलंका को भी पीछे छोड़ दिया। विशेषज्ञों की मानें तो देश का 44 प्रतिशत बचपन भुखमरी का शिकार है।

ऐसा नहीं है कि देश-दुनिया में खाद्यान्न का कहीं कोई गंभीर संकट खड़ा है जिससे आबादी को खाना नहीं मिल रहा है। हालात यह हैं कि दुनिया में सालाना एक अरब तीस टन भोजन-खाना बर्बाद हो जाता है। देश में ही 50 से 60 करोड़ धनराशि का खाना सालाना बर्बाद चला जाता है। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि बर्बाद होने वाले खाने से कितने लोगों का खाली पेट भरा जा सकता है। भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है। हालांकि दिल्ली में 'इण्डिया फूड बैंकिंग नेटवर्क" शुरू किया गया है लेकिन इसकी सार्थकता तो तभी है, जब भूख से तड़पते-मरते गरीब का पेट भरा जा सके। अब विशेषज्ञों की मानें तो शादी, विवाह, साामाजिक कार्यक्रमों की दावतों में पन्द्रह से बीस प्रतिशत खाना बर्बाद हो जाता है। खाना-भोजन की इस बर्बादी को रोका जा सकता है।

 एक बेहतर नेटवर्किंग के जरिये बर्बाद होने वाले खाना से गरीब-मजदूर-लावारिस, बेसहारा, बच्चों-बड़ों-बूढ़ों का पेट भरा जा सकता है। इससे भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है। हालांकि मौत होने पर तर्क दिया जाता है कि गर्मी में मौत लू लगने से हो गयी तो सर्दी में तर्क दिया जाता है कि मौत सर्दी लगने से हो गयी लेकिन चिकित्सा वैज्ञानिकों की मानें तो सर्दी हो या गर्मी खाली पेट होने पर लू भी लगेगी आैर सर्दी भी लगेगी, जिससे मौत भी हो सकती है।  साफ जाहिर है कि मौतें भूख से होती है लेकिन उत्तरदायित्व से बचने के लिए तर्क तो दिये ही जा सकते है। अफसोस भूख से होने वाली मौत को रोकने के लिए अभी तक कोई भी सार्थक उपाय नहीं किये गये।

हालांकि भोजन की बर्बादी को रोक कर कुपोषण व भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है। भूख से होने वाली मौतों को रोका नहीं जा सकता तो कम से कम इसे न्यूनतम अवश्य किया जा सकता है। आवश्यक है कि फूड़ बैंक की ऐसी व्यवस्था बने जो शादी-विवाह व अन्य सार्वजनिक समारोह की दावतों में बर्बाद होने वाले भोजन को बर्बाद होने से बचा सके। इसके लिए एक संचार संसाधनों से युक्त बेहतर नेटवर्क बनना चाहिए। शादी-विवाह, सार्वजनिक समारोह की दावतों का भोजन बचने की सूचना समय से फूड़ बैंक को दी जाये जिससे फूड़ बैंक उसे संग्रहित कर संरक्षित कर ले। फूड़ बैंक में व्यवस्थित स्टोर्स हों, जहां भोजन को खराब होने से बचाया जा सके। इन फूड़ स्टोर्स से जरुरतमंदों को भोजन उपलब्ध कराया जाना सुनिश्चित किया जाये। इससे भोजन की बर्बादी भी रुकेगी आैर जरुरतमंद व्यक्ति-परिवारों तक भोजन पहंुच सकेगा।

                          



Wednesday, 14 December 2016

मंगलामुखी का आशीर्वाद  
 
     शिक्षा-दीक्षा व्यक्ति को संस्कारवान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निवर्हन करती है लेकिन देश में समाज के 'मंगलामुखी" किन्नरों के कल्याणार्थ कोई व्यापक या समग्रता वाली रीति-नीति नहीं दिखती जिससे किन्नर समाज खुद को सामाजिक व आर्थिक रूप से सुरक्षित महसूस करते। सवाल उठता है कि सर्वसमाज के कल्याण व मंगल की कामना करने वाले 'मंगलामुखी" किन्नरों के दु:ख-दर्द को कौन समझेगा...? जी हां, किन्नरों के दु:ख-दर्द को समझने के लिए संवेदना होनी चाहिए क्योंकि बिना संवेदना किसी भी व्यक्ति के दु:ख-दर्द को समझा जाना नहीं जा सकता।

'बीच" वाला कह कर अक्सर लोग-बाग 'मंगलामुखी" किन्नरों पर व्यंग्यबाण कसने से नहीं चूकते लेकिन कभी उनकी तकलीफों व पीड़ा को महसूस करने की जहमत नहीं उठाते क्योंकि तकलीफों को महसूस करने के लिए दिल में एक 'चुटकी संवेदना" होनी चाहिए। 'अभिजात्य" वर्ग से लेकर 'कॉमनमैन" तक को एक बार चिंतन अवश्य करना चाहिए कि आखिर 'मंगलामुखी" किन्नरों को समाज की मुख्यधारा से कैसे जोड़ा जाये जिससे वह समाज में सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार हासिल कर सकें। केन्द्र सरकार हो या फिर देश की राज्य सरकारें हों... सभी को किन्नरों की शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य की रीति-नीति तय करनी चाहिए, जिससे वह समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकें। व्यवसाय से लेकर आवास उपलब्ध कराने की दिशा तय करनी चाहिए जिससे उनमें स्वावलम्बन की भावना विकसित हो सके। हालांकि ऐसा नहीं हैं कि देश में 'मंगलामुखी" किन्नरों के लिए कुछ नहीं हो रहा है लेकिन प्रयास पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि किन्नर समाज देश के गांव-गिरांव से लेकर मैट्रोपोलिटेन सिटीज तक फैला हुआ।

हालांकि किन्नरों की शिक्षा-दीक्षा व व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए बरेली में 'आस" नाम से स्कूल के रूप में सहपुर्नवास केन्द्र खोल गया है। इस स्कूल में सामान्य शिक्षा के साथ साथ रोजगारपरक व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। 'आस" से उनको उज्जवल भविष्य की रोशनी तो मिलेगी लेकिन यह रोशनी देश में फैलनी चाहिए क्योंकि तभी किन्नर समाज का अपेक्षित कल्याण हो सकेगा। देश में किन्नरों की संख्या नौ से दस लाख अनुमानित है लेकिन अधिसंख्य किन्नर अशिक्षा के अंधकार में भटकते दिखते हैं क्योंकि इनकी शिक्षा के लिए कोई व्यापक प्रबंध केन्द्र व राज्य सरकारों की रीतियों-नीतियों में नहीं दिखते। हालांकि इनको देश में मतदान से लेकर चुनाव लड़ने का अधिकार हासिल है। इसके बावजूद किन्नरों को समाज में हेय या तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है। फिलहाल किन्नर नाच-गा कर या बधाई देकर नजराना पाकर अपना गुजर-बसर करते हैं। तमिलनाडु में राशनकार्ड में इनका अपना एक अलग वजूद दिखता है तो केन्द्र सरकार ने पासपोर्ट में इनके लिए एक अलग कॉलम निधार्रित किया है। इतना ही नहीं भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने देश के साढ़े बारह हजार से अधिक किन्नरों को 'आधार कार्ड" जारी कर एक पहचान देने की सार्थक कोशिश की है।  

अभी हाल ही में पाकिस्तान ने किन्नरों को चुनाव में मत देने का अधिकार दिया है। सागर में आयोजित किन्नर सम्मेलन में देश भर से जुटे किन्नरों ने केन्द्र सरकार से एक स्वर से मांग की थी कि केन्द्र सरकार 'किन्नर आयोग" का गठन करे जिससे किन्नरों के हितों की रक्षा हो सके। अभी कुछ समय पहले लखनऊ नगर निगम की कार्यकारिणी ने फैसला लिया था कि किन्नरों का स्वास्थ्य परीक्षण कर पहचान-पत्र जारी करेगा। इतना ही नहीं नगर निगम के स्कूलों में किन्नरों को निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जायेगी। यह एक अच्छी व रचनात्मक पहल है। सरकारी नौकरियों में किन्नरों को आरक्षण देने का फैसला भी कार्यकारिणी ने लिया है लेकिन नगर निगम कार्यकारिणी का यह फैसला तभी लागू हो सकेगा, जब शासन भी इस पर अपनी मुहर अंकित करेगा। इसके बावजूद किन्नरों के लिए रीति-नीति निर्धारित करने की आवश्यता है जिससे मंगलामुखी किन्नर राष्ट्र व समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकें।

                            



Tuesday, 13 December 2016

 निर्मलता-अविरलता के लिए गंगा मांगे 'भागीरथ"

  संकल्प करें तो क्या नहीं हो सकता.... बस मन में दृढ़इच्छाशक्ति हो.... विपरीत परिस्थितियों में कुछ कर गुजरने की लालसा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं। मातश्री गंगा को धरती पर लाने के लिये भागीरथ का संकल्प था। तप बल से भागीरथ मातश्री गंगा को धरती पर लाने में सफल रहे। अफसोस मातश्री गंगा की निर्मलता-अविरलता को अब हम सब बरकरार न रख सके क्योंकि व्यवस्था गंगधारा को कलुषित-दूषित करती रही।

गोमुख से गंगासागर तक करीब 2525 किलोमीटर लम्बी गंगधारा में नित्य अरबों लीटर सीवरेज व अन्य गंदगी गिर रही है। राजनीतिक लंबरदार हों या संत समाज हो या फिर गंगा के हित चिंतक.... आंदोलन से लेकर बात तो गंगा निर्मलीकरण-अविरलता की करेंगे किन्तु हमारे सार्थक प्रयास क्या होने चाहिए जिससे गंगा जल अपना निर्मल स्वरूप हासिल कर सके.... इस पर चिंतन-मनन-विमर्श कम ही दिखता है। 'हम सुधरेंगे-जग सुधरेगा" का दर्शन शास्त्र कहीं नहीं दिखता। गंगा जल की निर्मलता के लिए खुद हमें भी तो कुछ-कतिपय साध्य-साधन करने चाहिए। जी हां, गंगा निर्मलीकरण के लिए केवल शासन-सत्ता के भरोसे नहीं रहा जा सकता।

 इसके सार्थक उपाय समाज को भी खोजने चाहिये। 'बूंद-बूंद से सागर भरने..." की कहावत चरितार्थ हो सकती है बशर्ते कुछ सार्थक उपाय चिंतन-मनन-विमर्श में आयें। कुछ इसी तरह का संकल्प काशी में लिया गया। 'भागीरथी सेवार्चन" ने संकल्प लिया कि गंगा को निर्मल भी बनायेंगे आैर गंगा जल को श्रद्धालुओं तक पहंुचायेंगे भी। खास तौर से देश के दूरदराज के इलाकों के श्रद्धालुओं-बाशिंदों तक गंगा जल पहंुचायेंगे, जिनकी पहंुच से दूर है गंगा-जल। 'भागीरथी सेवार्चन" ने गंगा-जल को पैकिंग कर देश के बाशिंदों-श्रद्धालुओं तक निशुल्क पहंुचाने की व्यवस्था की है। देश के किसी भी कोने के बाशिंदे-श्रद्धालु 'भागीरथी सेवार्चन" की वेबसाइट 'डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू भागीरथी सेवार्चन डॉट ओआरजी" का उपयोग कर गंगा जल निशुल्क हासिल कर सकते हैं। संस्था की मानें तो अब तक आठ हजार से अधिक श्रद्धालुओं-बाशिंदों को गंगा जल निशुल्क भेजा जा चुका है।

श्रद्धालुओं-बाशिंदों को सिर्फ कोरियर या डाक खर्च का भुगतान गंगा जल प्राप्त होने पर करना होगा। संस्था की मानें तो अब तक मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक व उडीसा सहित देश के विभिन्न इलाकों में निर्मल गंगा जल पैक कर भेजा जा चुका है। गंगा जल का निर्मलीकरण भी बिना मशीनीकरण से किया जाता है। 'भागीरथी सेवार्चन" ने गंगा को प्रदूषण से बचाने का भी संकल्प लिया है। पूजा-अर्चना में गंगा में बड़ी तादाद में फूल-मालाओं-पत्तियों का विसर्जन होता है। संस्था इस फूल-माला-पत्तियों को गंगा जल से संग्रहित कर जैविक खाद बनायेगी। इस जैविक खाद को किसानों को लागत मूल्य पर उपलब्ध कराया जायेगा। इससे गंगा जल में फूल-मालायें व पत्तियां नहीं सड़ेंगे आैर गंगा जल में प्रदूषण नहीं होगा भले ही यह प्रदूषण आशिंक हो लेकिन यह सार्थक कोशिश कहीं न कहीं अपना रचनात्मक प्रभाव डालेगी। सभ्य समाज को गंगा का अमृत्व जल निर्मल बनाने के लिए खुद को संकल्पि करना होगा कि कम से कम हम गंगा में कचरा व गंदगी फेंक कर गंदा नहीं करेंगे। कोई बड़ी बात नहीं कि यह संकल्प एक बड़े अभियान की शक्ल ले ले जिससे गंगा का अमृत जल निर्मल हो जाये। सोचना तो यही चाहिये कि हम सुधरेंगे-जग सुधरेगा।


                         



Monday, 12 December 2016


गंगा स्नान करेंगे तो जेल जाएंगे         

 गंगा स्नान करेंगे तो जेल जाएंगे। जी हां, लव-कुश बांध अर्थात गंगा बैराज पर गंगा स्नान किया तो जेल जाएंगे। स्थानीय पुलिस प्रशासन ने इस स्थान को अशांत क्षेत्र घोषित किया है। गंगा स्नान करते पकड़े गये तो जेल जाना तय। गंगा बैराज स्थल जहां एक ओर मनोरम एवं खूबसूरत स्थल है तो वहीं बेहद खतरनाक भी है। गंगा बैराज में गंगा स्नान के दौरान अब तक सैकड़ों मौते हो चुकी हैं।

लिहाजा पुलिस प्रशासन ने गंगा बैराज क्षेत्र में गंगा स्नान करने वालों के खिलाफ कानूनी डंडा उठा लिया है। पुलिस प्रशासन ने गंगा स्नान के लिए इसे अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया है। गंगा स्नान करने की मनाही है। सैर-सपाटा करें। आनन्द लें। जीवन को जोखिम में न डालें। 'गंगा बैराज कानपुर" शहर को समर्पित यह परियोजना निश्चय ही कानपुर को एक बड़ी सौगात है। गंगा बैराज कानपुर का हालांकि आधिकारिक नामकरण 'लव-कुश बांध" किया गया था लेकिन इसे गंगा बैराज के नाम से ही जाना जाता है। गंगा बैराज केवल एक बैराज अथवा बांध भर नहीं बल्कि कानपुर को लखनऊ-उन्नाव से जोड़ने वाला एक बेहद सेतु भी है।

 शहर के पश्चिम इलाके में नवाबगंज-आजाद नगर के निकट गंगा पर बना यह बैराज पांच वर्ष की अवधि में बन कर पूर्ण हुआ। वर्ष 1995 में गंगा बैराज बनाने के लिए शिलान्यास किया गया जबकि मई 2000 में विधिवत इसे लोकार्पित कर दिया गया। करीब छह सौ इक्कीस मीटर लम्बे इस बांध में करीब दो दर्जन गेट लगे हैं। नरोना बांध से करीब एक लाख क्यूसेक गंगा जल इस बांध के लिए नित्य छोड़ा जाता है। हालांकि बारिश का मौसम छोड़ दिया जाए तो एक लाख क्यूसेक गंगा जल की उपलब्धता नहीं होती। फोरलेन फर्राटा सड़क मार्ग की आवाजाही अनवरत बनी रहती है। इसके निर्माण में करीब 303.14 करोड़ की धनराशि खर्च की गयी थी।

गंगा बैराज का निर्माण सिचाई विभाग की देखरेख में किया गया। गंगा बैराज के सभी गेट जल की निकासी हेतु नहीं खोले जाते बल्कि आवश्यकता के अनुसार गेट खुलते-बंद होते रहते हैं। गंगा बैराज शहर के सुन्दर एवं पर्यटन स्थलों में से एक है। दिल्ली-नोएड़ा के बोटैनिकल गार्डेन की तर्ज पर गंगा बैराज क्षेत्र में बोटैनिकल गार्डेन बनाने की भी योजना है। बोटैनिकल गार्डेन बन जाने से इस क्षेत्र के सौन्दर्य में आैर भी अधिक निखार आ जायेगा। विद्वानों की मानें तो 'गंगा जल का पान" सौभाग्य से मिलता है। अब यह कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी कि कानपुर के बाशिंदे सौभाग्यशाली हैं क्योंकि उनको पीने के लिए 'गंगाजल" मिल रहा है। जी हां, गंगा बैराज से शहर के लिए जलापूर्ति की भी व्यवस्था की गयी है। करीब बारह सौ एमएलडी (मिलियन लीटर डेली) का वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लगना है। हालांकि दो सौ एमएलडी क्षमता का वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लग चुका है बल्कि चालू है। इससे शहर के एक बड़े हिस्से को जलापूर्ति होती है।





Sunday, 11 December 2016

 वायु मण्डल का जहरीलापन कहीं जान न ले ले

   'इच्छाशिक्त" हो तो कोई भी मिशन-लक्ष्य नामुमकिन नहीं। बात चाहे सुरक्षा की हो या स्वास्थ्य की हो। देश व समाज सब कुछ व्यवस्थित रहे, व्यवस्थित चले। इसके लिए कानून भी बनते हैं आैर व्यवस्थायें भी तय की जाती हैं लेकिन इच्छाशक्ति के बिना न कोई कानून सार्थक-कारगर दिखता है आैर न व्यवस्थायें ही आयाम लेते दिखती हैं। देश में चौतरफा साफ सफाई के लिए स्वच्छता अभियान चल रहा है। नेता-अभिनेता, छोटे-बड़े सभी व्यक्तित्वों ने हाथों में झाड़ू उठा ली।

गली-गलियारों में झाडू़ लगाने निकल पड़े। अब एक बड़ा सवाल उठता है कि कूड़ा का प्रबंधन कैसे किया जायेगा क्योंकि कूड़ा कहीं न कहीं फेंका-डाला जायेगा। जाहिर सी बात है कि कूड़ा कहीं भी होगा तो सड़ेगा। दुर्गन्ध होगी-संक्रमण फैलेगा। बीमारियां फैलेंगी। शासन-सत्ता से लेकर नीति-नियंताओं से लेकर समाज के हर खास-ओ-आम आदमी को चिंतन करना होगा। चिंतन भी केवल नीति निर्धारण तक सीमित न रहे क्योंकि देश-दुनिया में अनेक कानून-व्यवस्थायें बनती हैं किन्तु जब तक इच्छाशक्ति न होगी, तब तक कोई भी कानून या व्यवस्था बलवती नहीं हो सकती।
    

उच्चतम न्यायालय की व्यवस्थायें हैं कि कूड़ा करकट व गंदगी को किसी भी दशा में जलाया न जाये। शासन-सत्ता ने व्यवस्था के लिए आदेश भी जारी किये। शहरी क्षेत्र में कूड़ा गाड़ियां कूड़ा भर कर निकलें तो कूड़ा के उपर तिरपाल या अन्य किसी प्रकार से उसे ढ़क कर निकालना चाहिए। कानून भी हैं आैर व्यवस्थायें भी हैं लेकिन इन पर अमल नहीं दिखता। देश में साफ सफाई के लिए झाड़ू लग रही है। अच्छी बात है। स्वच्छता आदत में शामिल होनी चाहिए। देश-दुनिया में सालाना दो अरब टन से अधिक कूड़ा-कचरा निकलता है। अफसोस, इसका चालीस प्रतिशत कूड़ा जला दिया जाता है। कूड़ा जलने-जलाने से वायु मण्डल जहरीला होता है क्योंकि कूड़ा करकट व गंदगी में पॉलीथिन व इलेक्ट्रानिक कचरा सहित अनेक रसायनिक खतरनाक तत्व होते हैं, जो जलने से वायु मण्डल को जहरीला बनाते हैं।
     

  विशेषज्ञों की मानें तो दुनिया में कूड़ा कचरा जलाने की आदत में भारत व चीन काफी आगे है। कूड़ा जलाने की आदत से बचना चाहिए क्योंकि इससे हमारा भी स्वास्थ्य प्रभावित होता है। कारण कचरा जलने से कार्बन डायआक्साइड व कार्बन मोनो डायआक्साइड जैसी खतरनाक गैसों का उत्सर्जन होता है। इसके सूक्ष्म कण वायु मण्डल में घुल कर श्वांस के जरिये शरीर में पहंुच जाते हैं। इससे संक्रमण व बीमारियों का खतरा बढ़ता है। लिहाजा कम से कम कूड़ा कचरा जलने-जलाने से बचना चाहिए जिससे वायु मण्डल जहरीला होने से बच सके क्योंकि वायु मण्डल के नफा-नुकसान देश के बाशिंदों को मिलेंगे। इन स्थितियों से बचने के लिए वायु मण्डल को तो जहरीला न होने दें। स्वच्छता अभियान के साथ ही देश व समाज को इस पर चिंतन-विचार-विमर्श करना चाहिए। हम सुधरेंगे-जग सुधरेगा। हम बदलेंगे-जग बदलेगा। इस चिंतन-सोच से परिवेश को एक सार्थक दिशा मिलेगी।

                             



Tuesday, 6 December 2016


बेकार नहीं कबाड़ करें बेहतर उपयोग 

       'पॉलीथिन-प्लास्टिक" उपयोग होने के बाद भले ही बेकार-कबाड़ समझ लिया जाता हो लेकिन उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। हालांकि देश-दुनिया के स्थानीय निकायों को पॉलीथिन-प्लास्टिक के कारण 'सिस्टम" को चलाने में अनेक दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है। साइंस एण्ड टेक्नॉलॉजी इंजीनियर्स ने 'पॉलीथिन-प्लास्टिक" के कबाड़ को 'विलेन" से 'हीरो" बना दिया क्योंकि देश-दुनिया में अब 'पॉलीथिन-प्लास्टिक" के कबाड़ का बेहतर उपयोग किया जा रहा है। 'पॉलीथिन-प्लास्टिक" के कबाड़ से कहीं सड़क बन रही है तो कहीं आलीशान 'आशियाना' आकार ले रहा है।

इसके लिए बस आपकी सोच सकारात्मक होनी चाहिए । विशेषज्ञों ने 'पॉलीथिन-प्लास्टिक" का अपेक्षित उपयोग कर करीब एक दशक के दौरान बंगलोर सहित कई इलाकों में दो हजार किलोमीटर लम्बी सड़कों का संजाल बिछा दिया। खास बात यह है कि 'पॉलीथिन-प्लास्टिक" का उपयोग कर बनी सड़कों का रखरखाव खर्च न्यूनतम हो गया तो वहीं इन सड़कों पर पानी व तापमान का कोई असर-प्रभाव नहीं होता। विशेषज्ञों की मानें तो देश में पॉलीथिन-प्लास्टिक का उत्पादन करने वाले बड़े उद्योगों की संख्या पच्चीस हजार से अधिक है। इनमें बड़ी तादाद में बाटल्स का उत्पादन होता है। विशेषज्ञों की मानें तो प्लास्टिक की बाटल्स को नष्ट होने में 450 वर्ष से भी अधिक समय लगता है। मैक्सिको हो या अफ्रीका, प्लास्टिक बाटल्स का आशियाना बनाने में बेहतर उपयोग हो रहा है। खास बात यह है कि प्लास्टिक बाटल्स से बने खास आशियाना बेहद लोकप्रिय हो रहे हैं। मेक्सिको की क्वाड्रो इको साल्यूशंस के विशेषज्ञ प्लास्टिक की प्लेट्स बना रहे हैं। इन प्लेट्स का उपयोग आशियाना बनाने के लिए किया जा रहा है। करीब बीस वर्ग मीटर का आशियाना बनाने में करीब डेढ़ टन प्लास्टिक का उपयोग होता है। सामान्य तौर पर पचास से साठ वर्ग मीटर क्षेत्रफल का आशियाना बनाने में 3.50 लाख से चार लाख की धनराशि का खर्च होता है। नाइजीरिया में तो कबाड़ प्लास्टिक को पिघलाया भी नहीं जाता क्योंकि इसके लिए एक अन्य रास्ता खोज निकाला गया।

नाइजीरिया के बाशिंदों ने प्लास्टिक की बाटल्स को आशियाना बनाने में उपयोग किया। प्लास्टिक की खाली कबाड़ बाट्ल्स में बालू या मिट्टी भर कर नॉयलॉन की रस्सी से एक दूसरे को बांध दिया। बाद में इसे गारा से जोड़ दिया गया। इन आशियानों को भूकम्परोेधी भी माना जाता है। गौरतलब है कि दुनिया के तमाम देशों में सालाना करीब दस करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है। इसका बड़ा हिस्सा बाट्ल्स के रूप में होता है। इन बाट्ल्स का 80-90 प्रतिशत हिस्सा कबाड़ में तब्दील हो जाता है। इस कबाड़ का विकास कार्य में बेहतर उपयोग किया जा सकता है क्योंकि विकास एक सतत प्रक्रिया है। 'पॉलीथिन-प्लास्टिक" के कबाड़ का वैज्ञानिक निस्तारण सुनिश्चित होना चाहिए जिससे पॉलीथिन-प्लास्टिक का कबाड़ समाज-सोसाइटी के लिए खलनायक न बने बल्कि उसकी इमेज एक हीरो की तरह सामने आये। इस कबाड़ को वैज्ञानिक तौर तरीके से डिस्पोजल करने के लिए सांइस एण्ड टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इससे विकास को भी एक नया आयाम मिलेगा तो वहीं यह कबाड़ स्थानीय निकायों के सिस्टम को चलाने में बाधायें भी पैदा नहीं करेगा। इतना ही नहीं इससे रोजगार के कुछ नये अवसर भी पैदा होंगे। सरकार को इस दिशा में सार्थक पहल-प्रयास भी करने होंगे।

                           

Monday, 5 December 2016

सड़कों पर जाम का झाम आक्सीजन का काम तमाम

       शानदार चौड़ी चमचमाती सड़कों का संजाल हो.... लम्बे चौड़े फ्लाईओवर्स की श्रंखला हो.... ऐसी सड़कों पर फर्राटा भरते लाखों-हजारों वाहनों की श्रंखला निश्चय ही बेहद खूबसूरत नजारा साबित होगा। अब आप ताज्जुब करेंगे कि खुली चौड़ी सड़कों व फ्लाईओवर्स का संजाल होने के बावजूद जाम के झाम दिखते हैं।

आप ताज्जुब करेंगे कि चाइना के शहर में करीब दो सौ साठ किलो मीटर लम्बा जाम लग गया। हजारों कारों व अन्य वाहनों के काफिले फंस गये। निश्चय ही यह दुनिया के बड़े यातायात जाम में से एक होगा। जाम का झाम देश-दुनिया के हर छोटे-बड़े शहर के बाशिंदों को झेलना पड़ता है। दिल्ली-मुम्बई व कोलकाता जैसे शहरों में तो हर दिन बाशिंदों को जाम के झाम से जूझना पड़ता है। विशेषज्ञों की मानें तो केवल दिल्ली में ही आैसत हर दिन तीस लाख लीटर र्इंधन, पेट्रोल-डीजल बर्बाद हो जाता है क्योंकि वाहनों को अक्सर भारी जाम में फंसना पड़ता है।

देश में आैसत सालाना तीस लाख बाशिंदों की मौत प्रदूषित हवा के कारण हो जाती है। वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण जाम में फंसे वाहनों का धुंआ होता है। विशेषज्ञों की मानें तो बड़े शहरों में जाम के कारण चार से आठ घंटे का समय बर्बाद हो जाता है। जाम का झाम न हो तो बर्बाद होने वाले इस समय को बचाया जा सकता है।


                          


Sunday, 4 December 2016



गार्बेज डिस्पोजल : कोसें नहीं खुद को भी बदलें 


     कूडा-करकट-गंदगी देख नाक-भौं सिकोड़ते व्यवस्था को कोसने की हमारी नियति बन चुकी है क्योंकि गली गलियारों से लेकर नेशनल हाईवेज के किनारे अक्सर कूड़ा-करकट व गंदगी के पहाड़ खड़े दिख जाते हैं। हालांकि कूूड़ा करकट व गंदगी के यह दानव देश-समाज के लिए एक गम्भीर समस्या है।

अमूमन कूड़ा-करकट व गंदगी को देख कर कभी हम न्यूयार्क की साफ-सफाई की दुहाई देंगे तो कभी सिंगापुर की शान में कसीदे पढें़गे। फिर कूड़ा-करकट-गंदगी के लिए शासन-सत्ता से लेकर व्यवस्था तक को एक झटके में कोस डालेंगे। सरकार ऐसी है... सरकार वैसी है... व्यवस्था चौपट है... कोई देखने सुनने वाला नहीं। आत्म चिंतन-आत्म मंथन करें तो क्या आप पायेंगे कि अपने शहर गली-मोहल्ले, गांव-गिरावं-गलियारों की साफ सफाई व्यवस्था में सहयोग करना हमारा कोई नैतिक धर्म कर्तव्य नहीं है....?  जी हां, शासन-सत्ता या व्यवस्था को कोसने व दोष देने से गांव गिरांव से लेकर मेगाटाउंस चकाचक नहीं दिखने वाले।

 भले ही भारत सरकार का ग्रामीण विकास मंत्रालय डर्टी गर्ल विद्या बालन को साफ-सफाई के लिए ब्राांड एम्बेसडर क्यंू न बना दे लेकिन क्या...? इससे शहर की सड़कें व गांव के गलियारे लकालक चमकने लगेंगे। जी नहीं... क्योंकि जब तक हमारी मानसिकता... सोच... सिविक सेंस में बदलाव नहीं आयेगा, तब तक हम गांव-गलियारा व सड़क तो छोडिए अपना घर तक साफ-सुथरा नहीं रख पायेंगे। गौर करें तो पायेंगे कि देश में प्रतिदिन करोड़ों मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है। अफसोस दक्षिण भारत के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो देश में कूड़ा-करकट-गंदगी के अपेक्षित व वैज्ञानिक निस्तारण या डिस्पोजल की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है।

विशेषज्ञों की मानें तो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन छह सौ ग्राम कूड़ा का उत्सर्जन माना जाता है। अब यह कूड़ा निकलेगा तो निश्चय ही घर से सड़क पर आयेगा। घर-घरौंदे से बाहर आते ही कूड़ा करकट के डिस्पोजल का उत्तरदायित्व म्यूनिसिपल बोर्ड सरीखे संस्थानों पर आ जाता है। बस यहीं से हम शासन-सत्ता व व्यवस्था को कोसने में लग जाते हैं क्योंकि कूड़ा करकट व गंदगी हमें गली गलियारों से लेकर सड़कों तक फैली दिखती है। म्युनिसिपल बोर्ड हो या लोकल बॉडी सभी की कूड़ा प्रबंधन की एक अलग व्यवस्था होती है। कूड़ा करकट व गंदगी उठाने का हर जगह एक समय निर्धारित होता है। अमूमन-आदतन बाशिंदे घर की साफ-सफाई के बाद कूड़ा सड़क या गली में कूड़ा फेंक देते हैं। लाजिमी है कि यह कूड़ा चौबीस घंटे सड़ता रहेगा। जिससे इलाके में सडांध फैलेगी।

एक आदत होती है कि केला या कोेई अन्य फल खाया आैर उसका छिलका सड़क पर इधर उधर कहीं भी फेंक दिया। खाने-पीने के बाद रैपर या पैकिंग पेपर कहीं भी इधर-उधर फेंक देते हैं। पान-पान मसाला या गुटखा खाया आैर कहीं भी थूंक दिया। इससे चौतरफा गंदगी फैलना स्वाभाविक है। इससे सरकारी दफ्तर भी अछूते नहीं रहते। साफ-सफाई के लिए आवश्यक है कि हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा कि हम खुद साफ सफाई का ख्याल रखें। कहीं भी इधर-उधर गंदगी करने या फैलाने से बचना चाहिए। दक्षिण भारत के शहरों में गंदगी कम दिखेगी क्योंकि व्यवस्था के साथ-साथ आदतन साफ सफाई की इच्छाशक्ति होती है।

खान-पान-परिधान में विदेश की नकल करते हैं तो सिविक सेंस की भी नकल करनी चाहिए। न्यूयार्क की प्रवासी भारतीय सुश्री कृष्णा कोठारी हिन्दुस्तान आती थीं तो गंदगी के कारण अक्सर बीमार पड़ जाती थीं लिहाजा कोठारी ने साफ सफाई का वीणा उठाया आैर 'क्लीन इंदौर" का स्लोगन देकर 'स्वीपिंग-क्लीनिंग-मूवमेंट" चलाना शुरू किया। इसके तहत कृष्णा ने स्कूल-कालेज के छात्र-छात्राओं को चुना। प्रवासी भारतीय कृष्णा छात्र-छात्राओं को एक वीडियो के जरिये गंदगी के नुकसान व साफ-सफाई के फायदे बताती-गिनाती है। इसके लिए उसने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक का भी सहारा लिया।

परिणाम यह रहा कि कुछ ही समय में 'क्लीन इंदौर" की जमीनी हकीकत दिखने लगी। उपदेश देने या 'स्वीपिंग-क्लीनिंग" की वर्कशाप करने से गली-मोहल्लों को साफ-सुथरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए सिविक सेंस व इच्छाशक्ति होनी चाहिए। खुद को बदलेंगे तो घर-आंगन, गली-मोहल्ला,गांव-गिरांव व मेगासिटीज चमकने लगेंगे।

                          
        


Wednesday, 30 November 2016

अब सड़कें बनेंगी चार्जर दौड़ेगे इलेक्ट्रिक वाहन 

       देश में मंहगाई के तीखे झटके अक्सर गांव-गिरावं से लेकर मेगासिटीज के बाशिंदों को लगते रहते हैं। खास तौर से देखा जाये तो पेट्रोल व डीजल की कीमतों में दो साल में एक दर्जन बार इजाफा हुआ। हालांकि इसके बावजूद देश में पेट्रोल व डीजल चलित वाहनों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी। पेट्रोल व डीजल की कीमतों में इजाफा होने से वाहनों के संचालक व चालक कुछ तनाव में अवश्य आ जाते हैं। आटोमोबाइल इण्डस्ट्री के इंजीनियर्स ने पेट्रोल व डीजल की खपत से निजात दिलाने के लिए बैटरी-इलेक्ट्रिक चलित वाहनों की श्रंखला इजाद की। देश में बैटरी-इलेक्ट्रिक चलित वाहन सड़कों पर दौड़ने भी लगे। ऐसे वाहन चालकों के सामने एक बड़ी समस्या है कि यदि यात्रा के दौरान बैटरी डिस्चार्ज हो गयी तो समझो एक बड़ी मुसीबत सामने आ गयी। टेक्नॉलॉजी पर भरोसा करें तो भविष्य में इन दिक्कतों से वाहन चालकों को छुटकारा मिल सकेगा। दक्षिण कोरिया के इंजीनियर्स ने इलेक्ट्रिक टेक्नॉलॉजी से युक्त एक सड़क इजाद की है।

दक्षिण कोरिया की यह सड़क उपर से गुजरने वाले वाहनों को रिचार्ज करती है। हालांकि इलेक्ट्रिक टेक्नॉलॉजी वाली यह सड़क फिलहाल बारह किलोमीटर लम्बी बनायी गयी है लेकिन भविष्य में इसे अपेक्षित विस्तार दिया जायेगा। इंजीनियर्स मानते हैं कि दक्षिण कोरिया की यह इलेक्ट्रिक सड़क देश-दुनिया की रिचार्ज सिस्टम वाली पहली सड़क है। खास बात यह है कि वाहन को रिचार्र्ज करने के लिए सड़क पर कहीं रुकने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि टेक्नॉलॉजी का सम्पूर्ण सिस्टम सड़क के अन्दर संचालित होता है। फिलहाल अभी इस सड़क पर दो सार्वजनिक बसों का संचालन किया जा रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो दो वर्ष की अवधि में इस सड़क पर दस आैर बसों को चलाया जायेगा। टेक्नॉलॉजी के इस सिस्टम को कोरिया की कोरिया एडवांस इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एण्ड टेक्नॉलॉजी के विशेषज्ञों ने तैयार किया है।

 हालांकि यह टेक्नॉलॉजी काफी खर्चीली व महंगी है लेकिन बैटरी-इलेक्ट्रिक चलित वाहन चालकों के लिए बेहद सहूलियत वाली है। इस टेक्नॉलॉजी से वाहनों से होने वाले वायु प्रदूषण को काफी हद तक रोका जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में इस टेक्नॉलॉजी की भारी संभावनाएं हैं। इससे जन स्वास्थ्य को भी कोई खतरा नहीं है। इस टेक्नॉलॉजी में बिजली के तारों को सड़क के नीचे सिस्टमेटिक तौर-तरीके से लगाया गया है। इसमें उपकरण भी लगाये गये हैं। यह सिस्टम विद्युत की चुम्बकीय धारा प्रवाहित करता है। वाहन के चार्ज होने वाले उपकरण को सड़क से कुछ अंतराल पर वाहन में स्थापित किया जाता है।

विशेषज्ञों की मानें तो इस सिस्टम के लिए पूरी सड़क न तो खोदने की आवश्यकता है आैर न पूरी सड़क में सिस्टम को लगाया जाता है। सिस्टम की पॉवर स्ट्रिप को सड़क के पांच से पन्द्रह प्रतिशत हिस्से में ही लगाया जाता है। हालांकि दक्षिण कोरिया की इस टेक्नॉलॉजी से पेट्रोल-डीजल पर निर्भरता भी कम होगी तो वहीं वायु प्रदूषण भी कम होगा। वाहन चालकों को तो सहूलियत रहेगी ही। इतना जरुर है कि इस टेक्नॉलॉजी से युक्त सड़कों के रखरखाव पर खास-विशेष ध्यान रखना पड़ेगा जिससे वाहन स्मूथली अपनी रफ्तार को कायम रख सकें। फिलहाल दक्षिण कोरिया के सार्वजनिक वाहन चालकों के लिए एक बड़ी खुशखबरी तो है ही। हालांकि इस टेक्नॉलॉजी को अपनाने में देश-दुनिया को अभी लम्बा वक्त लगेगा।

    



Monday, 28 November 2016

गंगा की निर्मलता एवं अविरलता :
चाहिए एक अंजुरी इच्छाशक्ति
राजनीतिज्ञ लें संकल्प, साफ करेंगे 'मोक्षदायिनी"


      'हिमालय" को न बचा सके तो शायद काफी कुछ खो देंगे....?  जी हां, पर्यावरण प्रेमियों व गंगा सेवकों की कसक तो यही बयां कर रही है क्योंकि हिमालय क्षेत्र व गंगधारा कंक्रीट की चपेट में दिख रही है। सुरम्य जल घाटियों वाले हिमालय क्षेत्र में विद्युत उत्पादन के लिए एक नहीं बल्कि असंख्य परियोजनाएं आकार लेते दिख रही हैं। 

जिससे उत्तराखण्ड का एक बड़ा इलाका विकास एवं विनाश की द्वंद में फंसा दिखायी दे रहा है। गंगा व उसकी सहयोगी नदियों मसलन मंदाकिनी, अलकनन्दा, यमुना, टौंस, पिंडर, काली, धौली, गौरी, रामगंगा व शारदा सहित अन्य छोटी-बड़ी नदियों पर 70 से अधिक बांध परियोजनाएं बलवती होते दिख रही हैं तो वहीं विद्युत परियोजनाओं के लिए पांच सौ से अधिक स्थल चिह्नित किये जा चुके हैं। अब ऐसे में देखा जाये तो गंगा-यमुना सहित अन्य नदियों का अस्तित्व ही खतरों में होगा। गंगा-यमुना कंक्रीट की सुरंगों में कैद होंगी.... ? शायद यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि इतनी लम्बी श्रंखला में बांधों का बनना निश्चित रूप से नैसर्गिक सौन्दर्य को तो नष्ट करेगा ही प्राकृतिक संसाधनों कोे भी खत्म कर देगा। 

कंक्रीट का जंगल बढ़ेगा तो निश्चित मानिए कि पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि पेड़-पौधे कटेंगे तो पर्यावरण का एक गम्भीर संकट खड़ा होगा। कल्पना करें कि पेड़-पौधे खत्म हो जायेंगे तो परिवेश कैसा होगा....? नदियां कंक्रीट की सुरंग में कैद होंगी तो आक्सीजन का प्रवाह न्यूनतम हो जायेगा। यह स्थिति न तो बाशिंदों के लिए सुखकर होगी न जलीय जीवों के हित में होगी। हिमालय संरक्षण, गंगधारा की अस्तित्व रक्षा व पर्यावरण का हनन न होने देने के लिए पर्यावरण  मर्मज्ञ सुन्दर लाल बहुगुणा के संघर्ष को देश के बाशिंदे अभी भूले नहीं होंगे। गंगा रक्षा में स्वामी निगमानन्द के प्राण चले गये। गंगा सेवा अभियानम के गंगा रक्षा आंदोलन में प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल (स्वामी सानन्द), साध्वी पूर्णाम्बा, साध्वी शारदाम्बा, ब्राह्मचारी कृष्णप्रियानन्द सहित दर्जनों साधु-संतों ने लम्बे समय तक अनशन,उपवास एवं तप किया लेकिन आंदोलन के कोई सार्थक परिणाम नहीं दिखे जिससे गंगा की अविरलता एवं निर्मलता गोमुख से गंगासागर तक दिखती।

 हालांकि गंगा रक्षा का यह आंदोलन न तो खत्म हुआ आैर न शांत हुआ। हां, इतना अवश्य हुआ कि आंदोलन का स्वरूप अब कानूनी शिंकजा कसने की कोशिश करता दिख रहा है। गंगा सेवा अभियानम ने संकल्प लिया है कि व्यवस्था से जुड़े विभागों के खिलाफ एक हजार एक तहरीर देकर एफआईआर दर्ज करायेंगे। इसकी शुरूआत भी हुई। काशी के विभिन्न थानों में तहरीर दी गयीं। गंगा सेवक राम शंकर सिंह फोटोग्राफ्स के जरिए 'गंगा का दर्द " दो दशक से निरंतर बयां करते चले आ रहे कि गंगा कैसे मलिन व कलुषित होती जा रही है। इसकी रक्षा करो....। अब शायद यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि कहीं न कहीं गंगा रक्षा के लिए राजनीतिक क्षेत्र में चेतना आयी है क्योंकि कई राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं ने हस्ताक्षर कर देश के तत्कालीन (पूर्व) प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के सामने गंगा की व्यथा-कथा रखी भी। 

गंगा रक्षा के लिए आंदोलित गंगा सेवकों का मानना है कि टिहरी बांध को तोड़े बिना गंगा-यमुना व अन्य नदियों के अस्तित्व को नहीं बचाया जा सकता। भारत सरकार ने गंगा की मलिनता को खत्म करने का संकल्प लिया। गंगा पुर्नरुद्धार एवं जल संसाधन मंत्रालय ने योजनायें भी बनायीं लेकिन अभी तक कहीं कोई सार्थक परिणाम नहीं दिखे। गौरतलब है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना गंगा की निर्मलता एवं अविरलता लौटाना काफी कुछ मुश्किल नहीं बल्कि असंभव सा दिखता है। सामाजिक सोच में बदलाव भी गंगा की निर्मलता में अपना योगदान दे सकता है। कुल मिला कर एक समग्र प्रयास होना चाहिए जिससे गंगा की निर्मलता एवं अविरलता लौट सके।  प्रकाशन तिथि 28.11.2016  

                             

Tuesday, 22 November 2016

 अब 'नीली क्रांति" की कोशिश
  
     'हरित क्रांति" के बाद अब 'नीली क्रांति" लाने की कोशिश।  जी हां, अब देश के नीति-नियंता मछली पालन को बढ़ावा देने की कोशिश में हैं। लिहाजा जल कृषि उत्पादन में वृद्धि की रणनीति बनने लगी। भारत सरकार को विश्वास है कि मछली पालकों व किसानों को आर्थिक फायदा के रास्ते भविष्य में तेजी से खुलेंगे। भारत सरकार ने रणनीति तैयार की है। इसी रणनीति के तहत केन्द्रीय बजट में इसके लिए 1700 करोड़ धनराशि का प्रावधान किया गया है। विशेषज्ञों की मानें तो अब उचित खर्च-उचित आय। 

इसके तीन फायदे गिनाये जा रहे हैं। मछली पालन से किसानों को 'आय" का प्रत्यक्ष फायदा होगा तो वहीं देश का निर्यात बढ़ेगा। साथ ही देश की विकास दर में इजाफा होगा। विशेषज्ञों की मानें तो मछली पालन का व्यवसाय तेजी से नया आकार ले रहा है। फिलहाल देश में 150 लाख से अधिक किसान-काश्तकार मछली पालन व्यवसाय से जुड़े हैं। भारत विश्व में झींगा मछली पालन में पहला स्थान रखता है। झींगा मछली का विश्व के अनेक देशों को निर्यात किया जाता है। कृषि मंत्रालय की मानें तो वर्ष 2015-2016 में 10.8 मिलियन टन मछली उत्पादन हुआ। यह मछली उत्पादन विश्व के मछली उत्पादन का 6.4 प्रतिशत रहा। भारत जल कृषि उत्पादन में लगभग 6.3 प्रतिशत योगदान करता है।

 विश्व में मछली एवं मत्स्य उत्पादन में निर्यात दर आैसत 7.5 प्रतिशत रही जबकि भारत का यह प्रतिशत 14.8 रहा। विकास दर में भारत विश्व में पहले स्थान पर रहा। कृषि मंत्रालय ने 'नीली क्रांति" का संदेश दिया है। मंत्रालय ने विभिन्न योजनाओं का विलय कर तीन हजार करोड़ की एक छत्र योजना नीली क्रांति का एलान किया है। कोशिश है कि 2020 तक मत्स्य उत्पादन पन्द्रह मिलियन टन हो। जल कृषि के लिए लगभग 26869 हेक्टेयर क्षेत्र विकसित किया गया। इससे करीब 63372 मछुआरों को लाभ मिलेगा। इतना ही नहीं मछुआरा कल्याण के तहत 9603 मछुआरा आवास का निर्माण भी किया गया। कल्याण एवं व्यवसाय के लिए 20705 मछुआरों को प्रशिक्षण भी दिया गया। इतना ही नहीं पचास लाख मछुआरों को बीमा सहायता भी दी गयी।  
                                                          प्रकाशन तिथि 22.11.2016


Monday, 21 November 2016

गरीब को आवास एक बड़ी चुनौती !
    'सभी को आवास एक बड़ी चुनौती" ! जी हां, देश की आवाम को आवास उपलब्ध कराना किसी चुनौती से कम नहीं। भारत सरकार ने इस चुनौती को स्वीकार किया है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एलान किया है कि वर्ष 2022 तक सभी को आवास का प्रबंध किया जाएगा। भारत सरकार की कैबिनेट करीब आठ माह पूर्व ग्रामीण आवास योजना को स्वीकृति दे चुकी है। भारत सरकार ने इसे बाकायदा एक मिशन के तौर पर स्वीकार किया है। ताज नगरी आगरा में बाकायदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ग्रामीण आवास योजना का शिलान्यास कर गरीब के सपनों को पंख लगा दिये लेकिन क्रियान्वयन कैसा होगा ? नौकरशाहों की कार्यसंस्कृति सवालिया निशान खड़ा करती है। गरीब को आवास उपलब्ध कराना आैर गुणवत्तापरक आवास का होना.... यह किसी चुनौती से कम नहीं। आवास भी पर्यावरणीय, सुरक्षित एवं गुणवत्तापरक होंगे। भरोसा तो देश के प्रधानमंत्री यही दिला रहे हैं। यह आवास मंहगे भी नहीं होंगे बल्कि अत्यंत निम्नदर पर उपलब्ध होंगे।

जी हां, आवास की लागत भले ही कुछ हो लेकिन लाभार्थी को डेढ लाख से एक लाख पचास हजार में उपलब्ध होंगे। लाभार्थी चाहे तो आवास के लिए ऋण भी ले सकेगा क्योंकि योजना के तहत सत्तर हजार ऋण का भी प्रावधान किया गया है। विशेषज्ञों की मानें तो अब तक दो सौ डिजाइन तैयार किये जा चुके हैं। लक्ष्य भी मार्च 2019 तक एक करोड़ आवास तैयार करने का है। गरीब को मिलने वाले इन आवास में रसोई, बिजली का कनेक्शन, एलपीजी, स्नानघर, शौचालय आदि सहित सभी आवश्यक आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी।

भारत सरकार का मिशन '2022 तक सभी को आवास" है। ग्रामीण विकास मंत्रालय की मानें तो 2022 तक देश में तीन करोड़ आवास बनाने का लक्ष्य है। इसके लिए बाकायदा 81975 करोड़ की धनराशि का प्रावधान बजट में किया गया है। लागत में प्रांत सरकारों को भी सहयोग करना होगा। केन्द्र सरकार का अंशदान 60 प्रतिशत तो प्रांत सरकार का अंशदान 40 प्रतिशत होगा। पहाड़ी क्षेत्रों में भारत सरकार का अंशदान 90 प्रतिशत होगा तो प्रांत सरकार का अंशदान सिर्फ 10 प्रतिशत ही रहेगा। आवास का क्षेत्रफल बीस से पच्चीस वर्गमीटर तय किया गया है।

भारत सरकार की कोशिश होगी कि 2022 तक पांच करोड़ आवास तैयार करे। हालांकि प्रधानमंत्री के इस मिशन में गुणवत्ता से लेकर पर्यावरणीय परिवेश सहित कई चुनौतियां सामने होंगी। तो वहीं गरीब या ग्रामीण के सामने भी कम  चुनौतियां नहीं होंगी। आवास पात्रता के आधार पर उपलब्ध होंगे। आय से लेकर जाति प्रमाण पत्र व अन्य आैपचारिकतायें पूरी करना गरीब के लिए मुश्किल होगा। ऐसा नहीं है कि किसी गरीब एवं ग्रामीण को आवासीय लाभ नहीं मिलेगा लेकिन बहुसंख्यक गरीब-ग्रामीण इस लाभ से वंचित रहेंगे।                          प्रकाशन तिथि 21.11.2016

Saturday, 19 November 2016

 जल परिवहन के मजे लें

      मौसम कोई भी हो, जल क्रीड़ा-जल यातायात के मजे ही कुछ आैर होते हैं। जर्मन को जानना हो या सिंगापुर में सैरसपाटा करना हो तो जल यातायात का आनन्द लें। जर्मन में राइन सहित करीब आधा दर्जन नदियों की शानदार जल श्रंखला है। यह नदियां यातायात की एक बेहतरीन कड़ी हैं। करीब सात हजार किलोमीटर लम्बी नदियों की इस श्रंखला से जर्मन के दर्शन किये जा सकते हैं। इसी तरह से सिंगापुर में वॉटर पार्कों की बहुतायत है। सिंगापुर में जलधाराओं को मनोरंजन के साथ साथ यातायात के रूप में भी उपयोग किया जाता है। देश में भी जल यातायात के नये आयाम की खोज-बीन हो रही है।

 हालांकि ऐसा नहीं है कि देश में जल पार्कों, जल यातायात व नदियों की कहीं कोई कमी है। वैसे देखें तो जर्मन की तुलना में देश में कहीं अधिक लम्बे जल यातायात की व्यवस्थायें दिखती हैं। जल यातायात में घूमने-फिरने का भी आनन्द है आैर सफर भी आसान रहता है क्योंकि जल यातायात में कहीं कोई ट्रैफिक जाम का संकट नहीं होता। इसके साथ ही जल परिवहन व्यवस्था पर्यावरण के काफी कुछ अनुुकूल भी होती है। विशेषज्ञों की मानें तो देश में चौदह हजार पांच सौ किलोमीटर लम्बी जल परिवहन की व्यवस्थायें हैं। जल परिवहन की यह व्यवस्थायें खास तौर यात्रियों के आवागमन के साथ साथ माल ढ़ोने का काम भी जल क्षेत्र से होता है। जल परिवहन की व्यवस्थाओं वाले क्षेत्रों में खास तौर से असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, मुम्बई, गोवा व केरल आदि इलाके खास तौर से माने जाते हैं। दक्षिण भारत  में केरल सहित कई इलाकों में नौकायन के मजे लिये जा सकते हैं। इन इलाकों में नौकाओं की दौड़-प्रतियोगिताओं के आयोजन भी अक्सर होते रहते हैं। देश की बड़ी नदियों में सुमार होने वाली ब्राह्मपुत्र में भी सादिया से घाबरी तक करीब नौ सौ किलोमीटर लम्बी जल परिवहन व्यवस्था है। इसी तरह से दक्षिण भारत में कोल्लम से कोट्टापुरम तक करीब दो सौ पांच किलोमीटर लम्बा जल परिवहन क्षेत्र है। भारत सरकार जल परिवहन व्यवस्थाओं को एक नया आयाम देने पर विमर्श-मंथन कर रही है। जिससे जल परिवहन व्यवस्थाओं को विस्तार दिया जा सके। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से हल्दिया तक गंगा नदी में करीब 1620 किलोमीटर लम्बा जल परिवहन मार्ग विकसित होने की संभावना है।

 इससे एक बार फिर गंगा की गोद में जल तरंगों का भरपूर आनन्द ले सकेंगे। विशेषज्ञों की मानें तो जल परिवहन मार्ग बनाने में करीब बीस हजार करोड़ से अधिक धनराशि खर्च की जायेगी। हालांकि ऐसा नहीं है कि गंगा नदी में कोई पहली बार जल परिवहन की व्यवस्था को आयाम देने की कोशिश की जा रही है क्योंकि ब्रिाटानिया हुकूमत में एशिया की आैद्योगिक राजधानी कानपुर से पश्चिम बंगाल तक जल परिवहन की व्यवस्थायें चलती थीं। चूंकि कानपुर में कपड़ा मिलें बहुतायत में थीं। गंगा नदी के जल मार्ग से कानपुर से कपड़ा कलकत्ता भेजा जाता था। काशी-बनारस में तो सैकड़ों नाव-स्टीमर्स का काफिला गंगा की गोद में अनवरत जल तरंगों के साथ अठखेलियां करता रहता है। देश-दुनिया के लाखों पर्यटक गंगा में नौकायन का आनन्द-लुफ्त उठाने सालों-साल से आते रहते हैं। नोएड़ा हो या लखनऊ, देश के सभी बड़े शहरों में वॉटर पार्कों में जलक्रीड़ा का आनन्द लिया जा सकता है।

कानपुर की शान, देश-विदेश में पहचान
  
       कानपुर की शान, देश-विदेश में पहचान। जी हां, उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर की शान से 'लाल इमली" मिल को नवाजा जाए तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। लाल इमली के कम्बल हों या कोई अन्य उत्पाद वस्त्र उद्योग एवं उपभोक्ताओं के बीच अपनी खास अहमियत रखते हैं। लाल इमली शहर की केवल एक मिल ही नहीं बल्कि एक इतिहास भी है। एशिया के मैनचेस्टर की आैद्योगिक ताकत का एहसास वाकई यह शहर कराता है। आैद्योगिक ताकत में लाल इमली मिल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लाल इमली मिल शहर के बाशिंदों को 'समय" की याद भी दिलाता-बताता है। करीब एक सौ चालीस वर्ष पहले 1876 में पांच अंग्रेज वी ई कूपर, जॉर्ज ऐलेन, गैविन एस जोंस, डाक्टर कॉडोन व बिवैन पेटमैन ने संयुक्त तौर पर एक छोटी सी मिल की स्थापना की थी। 

शहर के सिविल लाइंस में स्थापित एवं संचालित इस मिल ने धीरे-धीरे एक वृहद स्वरुप हासिल कर लिया। बताते हैं कि इसके संसद में एक विशेष कानून भी बना। लाल इमली मिल की स्थापना खास तौर से निर्बल एवं कमजोर तबके की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर की गई थी। मिल में सस्ते ऊनी कम्बल एवं शॉल सहित अन्य वस्त्र उत्पादन खासियत रही। इस मिल से गरीबों को आवश्यकताओं के लिए वस्त्र आदि रियायती दर पर उपलब्ध होते थे तो वहीं ब्रिाटिश सेना के सिपाहियों के लिए कम्बल बड़ी तादाद में बनते थे। विस्तार के साथ ही इसके उत्पाद देश-विदेश में बड़ी तादाद में भेजे जाते थे। इस मिल का नाम प्रारम्भ में कानपोर वुलेन मिल्स रखा गया। मिल परिसर में एक इमली का विशाल पेड़ हुआ करता था। शनै: शनै: इमली इस मिल की पहचान बन गयी। चूंकि शहर में अन्य मिलें भी थीं। लिहाजा इस मिल को इमली वाला मिल के तौर पर जाना-पहचाना जाने लगा। आम बातचीत में इमली वाला मिल आ गया। वर्ष 1910 में अचानक इस मिल में आग लग गई। मिल की नई इमारत गोथ शैली में लाल र्इंट (ब्रिाक्स) से बनाई गयी। 

लिहाजा इस मिल को 'लाल इमली" की नई इबारत मिल गयी। उस वक्त चूंकि घंटे एवं घड़ियों की कोई पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। लिहाजा मिल प्रबंधन ने घंटाघर बनाने का फैसला लिया। वर्ष 1911 में घंटाघर बनना प्रारम्भ हुआ आैर वर्ष 1921 में बन कर तैयार हो सका। खास बात यह रही कि लाल इमली मिल का घंटाघर लंदन के बिग बेन की तर्ज पर बना। घंटाघर की ऊंचाई 130 फुट है। घंटाघर की टिकटिक करती सुइयां साफ तौर पर सुनी जा सकती हैं। इसे शहर की आैद्योगिक ताकत के तौर पर देखा जाने लगा। वर्ष 1947 में ब्रिाटिश देश छोड़ कर जाने लगे तो इसका प्रबंधन भारतीयों को सौंप दिया गया। कई उद्योगपतियों के हाथों से गुजरने के बाद आखिर वर्ष 1981 में लाल इमली मिल का नियंत्रण भारत सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। इस मिल के ऊनी वस्त्र एवं कम्बल देश विदेश में मशहूर हैं।          प्रकाशन तिथि 19.11.2016